वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु यज्ञ का वास्तविक स्वरूप कैसा है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

श्रृंखला की पिछली कड़ी और कड़ियों में हमने देखा कि सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यो (पिछली कड़ियों के शीर्षक उनकी लिंक्स के साथ सबसे अन्त में दिए गए हैं। देखे जा सकते हैं।) हैं? क्योंकि श्रौत परम्परा का प्रधान प्रतिपाद्य यज्ञ है। और वेद यज्ञ को ही श्रेष्ठतम कर्म मानता है। यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्मः। – शतपथ ब्राह्मण 1/7/1/5 अब उससे आगे… 

यज्ञ संस्था पर सबसे बड़ा अपवाद इसमें पशुओं के बलिदान को लेकर होता है। प्रश्न होता है कि यागों में निरीह प्राणियों के आलभन जैसा हिंसक कर्म कैसे क्षम्य हो सकता है? परमात्मा कैसे अपनी सृष्टि से जीव-जन्तुओं की हिंसा से प्रसन्न हो सकते हैं? अग्नि में देवों के निमित्त हवि क्या व्यर्थ नहीं है? – ऐसे तमाम तर्क-वितर्क के साथ यज्ञ-यागों पर नास्तिक-वेदनिन्दक व्यर्थ-अनुपयोगी और हिंसाचार का घिसा-पिटा आरोप लगाते आ रहे हैं। नास्तिकों की संकीर्ण कारण-कार्य तर्कणा एवं दाम्भिक दयालुता के छद्म का शिकार अवान्तर आस्तिक सम्प्रदाय भी हुए हैं। औपनिवेशिक आयातित नैतिकता के बोझ से दबे नव्य अनार्य-वैदिक, वेदान्ती, भक्तिवादी और हिन्दुत्ववादी यज्ञ-याग को यथारूप कितने अंश में स्वीकार कर पाएँगे, यह एक अलग विश्लेषण का विषय है! अस्तु।

श्रुति वर्णित यज्ञ-याग वे धार्मिक विधान हैं, जिसमें व्यष्टि से समष्टि तक फैले पवित्र दैवीय सत्ता से व्यवहार में विनिमय होता है। ये देवताओं के प्रति किए गए कर्म हैं। यज्ञ की बात करें तो वेद, श्रौत-गृह्य सूत्रों में यज्ञ की संख्या 21 बताई गई है। पाकयज्ञ, हविर्यज्ञ और साेमयज्ञ इन तीन संस्थाओं के अन्तर्गत ऋग्वेद प्रत्येक के सात-सात यज्ञ परिगणित करता है। इस तरह यह 21 यज्ञ होते हैं। वैदिक यज्ञों को श्रौत और गृह्य यज्ञ इन दो भागों में बाँटा गया है। गृह्य और स्मार्त यज्ञ पाकयज्ञ संस्था के अन्तर्गत आते हैं। गृहस्थ वैदिकों द्वारा ये कृत्य नित्य सम्पादित किए जाने का विधान है। हविर्यज्ञ और सोम यज्ञ विशेष उद्देश्य और अवसर पर सम्पादित किए जाते हैं।

ब्राह्मण को तो नित्य अग्निहोत्र का आदेश है। इसमें दुग्ध की आहूति होती है। अन्य तीनों वर्णों को इष्टियों का विधान है। जिनमें दूध-दधि, घृत, पुरोडाशादि अर्पित होता है। इसके बाद दैक्ष, प्राजापत्य पशु याग (यज्ञ) आते है। विशिष्ट हेतु या अवसर पर किए जाने यागों के पाँच प्रकार माने गए हैं – होम, इष्टि, पशु, सोम और सत्र। यज्ञ का उद्देश्य इसी क्रम में वृहत्तर होता जाता है।

पशु याग, साेम याग और सत्र यागों में देवताओं के निमित्त पशुओं के आलभन की प्राचीनतम परम्परा है। यह यज्ञ कर्म का अन्तरतम भाग है। पशु याग सृष्टि के प्रथम यज्ञ के प्रारूप पर आधारित है। जब देवों ने उस विराट् पुरुष को ही हवि बनाकर पवित्र यज्ञ आरम्भ किया। वसंत ऋतु ने घृत, ग्रीष्म ने समिधा और शरद ने हवि रूप लिया। इस यज्ञ में सप्त परिधियाँ और त्रि-सप्त (21) समिधाएँ थीं। जहाँ देवों ने उस विराट् पुरुष को यज्ञपशु रूप में बाँधा था।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥पुरुष सूक्त 14-15॥

तात्पर्य स्पष्ट है कि यज्ञ में किया जाने पशु का आलभन किसी निरीह प्राणी का बलिदान नहीं है। क्योंकि सृष्टि के प्रथम यज्ञ में परम पुरुष परमात्मा ही यज्ञपशु रूप में प्रस्तुत हुए थे। यज्ञ-याग परम सत्ता के यजन की अब तक जीवित प्राचीनतम विधि है।

यज्ञ शाला में विविध अग्नियों के कुंड होते हैं। उनमें उन-उन देवताओं के निमित्त हवि प्रदान की जाती है। पशु याग में एक सर्वांग दोषरहित छाग को यज्ञशाला में पवित्र वृक्ष के काष्ठ से बने यूप से बाँधा जाता है। श्वास के निरोध से उसका निधन होता है। इसे संज्ञपन कहते है। पशु के निर्दिष्ट अंग उन-उन देवताओं के निमित्त विशेष अग्नियों में प्रदान किए जाते हैं। यज्ञ द्वारा देवता को समर्पित वह पशु उस देवता को प्राप्त हो जाता है।

इस तरह यज्ञ में पशु का संज्ञपन न तो वध है और न ही पाप। वेद की आज्ञा से वह पशु मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, जिस देवता के निमित्त पशु आहुत होता है, वह उसके लोक को प्राप्त होता है। इस वैदिक शासन को सभी आस्तिक धर्म शास्त्र, करते हैं। मनु इसी आधार पर कहते हैं कि पशुओं की रचना यज्ञ के लिए हुई है। यज्ञ पशु के रूप में उस विराट पुरुष की आहूति द्वारा यजन विधान का पुनरावर्तन है।

लौकिक देवी देवताओं को दी जाने वाली बलि, मलेच्छों में दी जाने वाली कुर्बानी आदि में पशुओं का माँस खाद्य रूप में ग्राह्य हाेता है। इसके विपरित अग्नि में देवों के निमित्त प्रदत्त पशुओं के अंगों को खाद्य के रूप में लेने का विधान नहीं है। कहीं-कहीं में प्रसाद रूप में अत्यल्प भाग को ग्रहण लेने की विधि है। इससे वैदिक यागों की अहिंसा सिद्ध हो जाती है।

वैदिक परम्परा में ही हिंसा का अर्थ सिर्फ जीव हिंसा न होकर किसी भी प्रकार किसी जीव-जन्तु को होने वाले कष्ट से होता है। यज्ञकर्म में अत्यन्त सूक्ष्मतापूर्वक अहिंसा से बचा जाता है। याज्ञिकों को अग्नियों के स्थान, समिधा में, हविषान्न आदि में भी कीट, जीव-जन्तुओं की रक्षा का विचार करना होता है।

श्रौत कर्म के जानकार अधिकतर ब्राह्मण निरामिषभोजी होते हैं। वे अत्यन्त दक्षता से किसी भी हिंसा कर्म से बचते हैं। इसके अलावा यज्ञादि कर्म ही नहीं, समग्र वैदिक संस्कृति में हिंसा के लिए स्थान नहीं है। अधिकतर वैदिक लोग आहार-विहार की दृष्टि से शाकाहारी, किन्तु बलशाली होते हैं। वे अनावश्यक सांसारिक कर्म के चक्र से भी विरत रहते हैं, जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा होती है। पशुओं का होने वाला आलभन भोगवृत्ति से न किया जाने के कारण एवं वैदिक आज्ञा का भाग होने से दिव्य और पूर्णत: निर्दोष है, क्योंकि धर्म-अधर्म का निर्णय वेद करता है। वेद प्रमाण की पूर्ण स्वीकृति ही आस्तिकता है।

तर्क की दृष्टि से इसे ऐसा समझ सकते हैं – हर धर्म-मत दर्शन की कुछ मूलभूत स्थापनाएँ होती हैं, जो श्रद्धा या विश्वास का भाग मानी जाती है, जिन्हें प्रश्नांकित नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए यदि आप कोई भाषा सीखते हैं तो उसके शब्द, ध्वनि, अर्थ को यथारूप स्वीकार करते हैं। उन्हें प्रश्नांकित नहीं करते। ठीक इसी तरह श्रौत परम्परा में यज्ञ द्वारा परमात्मा से सम्बन्ध जुड़ना एक ऐसी मूल संकल्पना है, जिस पर विश्वास किए बगैर आप सनातन धर्म में प्रवेश नहीं कर सकते।

जैसा कि शृंखला के पूर्व भागों में हमने देखा कि सनातन धर्म के नाम से कही जाने वाली मूलभूत स्थापनाएँ जैसे आत्मतत्त्व की दिव्यता, सार्वभौमिकता और सार्वलौकिकता, कर्म का सिद्धांत, जीवात्मा का पुनर्जन्म, पुरुषार्थ चातुष्ट्य, वर्णाश्रम व्यवस्था का मूल यज्ञ है। और दार्शनिक दृष्टि से बात करें तो सनातन धर्म में आध्यात्मिक अनुभूति का सर्वोच्च सोपान जो सर्वत्र परमात्म दृष्टि है, वह पुरुष सूक्त में स्वयंसिद्ध है ही। यज्ञ को छोड़ देने पर संकीर्ण सीमित विचारों के मत-सम्प्रदाय आदि बन जाते हैं। जैसा कि नास्तिक और उनसे प्रभावित अवान्तर सम्प्रदायों में हुआ। इसलिए विश्वासपूर्वक यज्ञ की पुनर्स्थापना और नास्तिकता का परित्याग सनातन धर्म के पुनर्जागरण का प्रधान साधन है।

इसके बाद इस श्रृंखला के अगले भाग में हम देखेंगे, भारतीय लोकजीवन से सनातन धर्म के ह्रास में श्रौत यज्ञ परम्परा की अवमानना और निरादर है। एवं किस प्रकार नास्तिक, वेदनिन्दक और वेद का कुभाष्य करने वाले अवान्तर आस्तिक मतों ने हमारे चरित्र और नैतिकता को हानि पहुँचाई है। 

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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। पाँच कड़ियों की यह श्रृंखला है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।) 

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इस श्रृंखला की पिछड़ी कड़ियाँ 

3 – सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यों है?
2 – सनातन धर्म क्या है?
1 – सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है? 

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