अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 2/9/2021

भारत के बारे में जेम्स मिल जैसे उपयोगितावादी विचारकों का ध्यान भी मुख्य रूप से भू-राजस्व के मसले पर ही था। मिल इस भारतीय विचार को मान्यता देते थे कि ज़मीन की असल मालिक सरकार (राजा) है। लेकिन उन जैसों के सामने समस्या अभी ये थी कि सरकार को मिलने वाला लगान कैसे तय हो? लिहाज़ा उन्होंने इसके समाधान के लिए मज़बूत केंद्र सरकार की स्थापना को ज़रूरी माना। ऐसी, जिसके पास पूरे ब्रिटिश भारत के लिए विशिष्ट विधायी शक्ति हो। उन्होंने यह भी सुझाया कि सभी कानून एक वैज्ञानिक-संहिता में संग्रहीत हों। न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन और विस्तार हो। प्रशासनिक सेवा में आमूलचूल परिवर्तन हों। सर्वेक्षण के बाद तमाम ज़मींदारों, ज़मीन मालिकों का पंजीयन कराया जाए। 

भू-राजस्व का कृषि उत्पादन के विस्तृत आँकड़ों पर आधारित वैज्ञानिक आकलन कराने पर भी मिल ने जोर दिया। इसे वैधानिक रूप दिलाने की कोशिश भी की। उन्होंने 1831 में ब्रिटिश संसद की एक समिति के सामने पेश रिपोर्ट में भारत से संबंधित ‘लगान के सिद्धांत’ का उल्लेख किया। इसमें बताया कि भू-राजस्व का निर्धारण ‘शुद्ध उपज’ के हिसाब से हो। जबकि श्रमिकों को किए भुगतान और लागत पर निश्चित सीमा में स्वाभाविक मुनाफ़ा काटने के बाद जो बचे, उसे ‘शुद्ध उपज’ उपज जाए। इसे उस दौर में ‘लगान’ कहा गया। मिल ने भू-राजस्व वसूली इस तक सीमित रखने की वक़ालत की थी।  

हालाँकि मसला लगान के वैज्ञानिक मूल्यांकन पर आकर गड़बड़ा गया। कारण कि इसके लिए वैज्ञानिक पद्धति और विशेषज्ञ सरकारी अफ़सरों की ज़रूरत थी। उस वक़्त दोनों चीजें अंग्रेजों के पास भारत में उपलब्ध नहीं थीं। इससे राजस्व-प्रशासक ही ‘लगान के सिद्धांत’ को ठीक से समझ नहीं पा रहे थे। फिर नई प्रणाली का विरोध भी था। जैसे, पहला तो जॉन मैलकम जैसे विचारक-प्रशासक ही इसे बहुत सैद्धांतिक और जटिल मानते थे। दूसरा- मिल के विचारों में ज़मींदार-विरोधी पूर्वाग्रह निहित था। इससे भारतीय समाज में उथल-पुथल हो रही थी। ऐसी कि जिसने 1857 के सैन्य-विद्रोह को जनक्रांति बना दिया था। लिहाज़ा, अंग्रेजों ने थोड़ी सावधानी बरतते हुए 1833 के बाद से भू-राजस्व के मूल्यांकन के लिए अपेक्षाकृत ज़्यादा अनुभवजन्य तरीका अपनाने को प्राथमिकता दी। 

वैसे, ‘शुद्ध उपज’ के आधार पर लगान के मूल्यांकन का तरीका सैद्धांतिक रूप से कभी पूरी तरह छोड़ा नहीं गया। अलबत्ता इसमें बदलाव लगातार किए जाते रहे। जेम्स मिल के इस विचार से पहले बंगाल, बिहार, ओडिशा में ज़मींदारी व्यवस्था स्थापित थी। वहीं, दक्षिण के जिन इलाकों में अंग्रेजों ने बाद में कब्ज़ा किया, वहाँ रैयतवाड़ी व्यवस्था थी। इन व्यवस्थाओं को 1860-70 के दशक में मिला दिया गया। ताकि प्रशासनिक एकरूपता लाई जा सके। यहाँ इस मोड़ पर, मिल के मूल विचार को काफ़ी हद तक अपनाया जा सका। 

वैसे, भू-अधिकार और भू-राजस्व से जुड़ी जो प्रणाली अंग्रेज भारत के लिए सुझा रहे थे, वह कार्नवालिस की हो, मुनरो की या जेम्स मिल की, सब पश्चिमी सोच पर आधारित थी। ये प्रणालियाँ भारत की ग्रामीण सामुदायिक व्यवस्था को भंग करने वाली थीं। भारत में अब तक ज़मीन के कई मालिक मिलकर उसका इस्तेमाल करते थे। या फिर गाँव के मालिकाने वाली ज़मीन की सह-साझेदारी वाली परंपरा थी। इस परंपरा का भी कोई लिखित कानूनी रूप नहीं था। इसकी ज़रूरत ही नहीं थी। कारण कि सामुदायिक पारस्परिक निर्भरता थी। लेकिन अंग्रेज ज़मीन-जायदाद के निजी स्वामित्त्व और कर्ज़ आदि के लिए उसे गिरवी रखने जैसी पश्चिम की अवधारणा लेकर आए। बाध्यकारी कानूनों से उसे परिभाषित और लागू किया। इसके मुताबिक ज़मीन के निजी मालिकाना हक़ों के पंजीकरण का अभियान चलाया। इससे पारंपरिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई ही, पूरे भारत पर इसका मनोवैज्ञानिक असर भी हुआ।

हालाँकि खामियाँ नई व्यवस्था में भी थीं। जैसे- भू-राजस्व के मूल्यांकन की पद्धति में समरूपता नहीं थी। ऐसे ही संपत्ति के निजी स्वामित्त्व की परिभाषा में यह स्पष्ट नहीं था कि मालिकाना हक के लिए संबंधित ज़मीन-ज़ायदाद पूर्व में कितने समय से उससे जुड़े व्यक्ति या व्यक्तियों के पास होना ज़रूरी है। ऐसे मामलों में 1858 से पहले तक स्थानीय प्रशासन मुख्य रूप से कंपनी के वरिष्ठ अफ़सरों के निर्देशों पर निर्भर था। जबकि ये अफ़सर भारत को उस समय किसी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। 

बहरहाल, इस बीच विधि विभाग के निष्कर्षों और मैकॉले ने जिस संहिता का मसौदा तैयार किया, उससे मिल की प्रणाली के दूसरे अहम तत्व को मान्यता मिलने का रास्ता बना। यह तत्व था, कानून की संहिता बनाना। ऐसी, जिसकी प्रक्रिया सभी जगहों के लिए समान हो और उसे एकरूपता से हर जगह लागू किया जा सके। फिर इसके बाद बचा उनका सुझाया तीसरा सुधार- मज़बूत केंद्र सरकार। यह वृहद् प्रशासनिक सुधारों का मसला था, जिसके लिए 1828 तक इंतज़ार करना पड़ा, जब विलियम बेंटिंक का भारत आगमन हुआ। बेंटिंक चाहते थे कि भारत में कंपनी प्रशासन को पहले 1833 तक के लिए व्यवस्थित किया जाए। ताकि जब कंपनी का अधिकार पत्र कानून नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश संसद में आए, तो उसके पारित होने में दिक्क़त न हो। लिहाज़ा, उन्होंने उसी दिशा में प्रशासनिक-व्यवस्था को ढाला।

 बेंटिंक के पहले एक सुझाव आगे बढ़ाया गया कि भारत में कुछ नए अधिकारी नियुक्त किए जाएँ। इन्हें एक जिला क्षेत्र की पूरी ज़िम्मेदारी दी जाए। इन अफ़सरों को जिला आयुक्त (डीसी) कहा जाए। जिलों की हर गतिविधि के लिए यही उत्तरदायी हों। वे उच्च अधिकारियों से निर्देश लें और अपने अधिकार वाले क्षेत्र में मातहतों के जरिए उन पर सीधे अमल कराएँ। इस तरह क्षेत्र-विशेष में निरीक्षण-नियंत्रण के लिए जिला आयुक्त बिठाने का विचार उपयोगितावादी और अधिकारवादी दोनों की सोच से मेल खाता था। लिहाज़ा, इसे 1829 में बंगाल प्रांत में ही सबसे पहले अमली जामा पहनाया गया। राजस्व मंडलों को भंग कर दिया गया। उनकी जगह जिला आयुक्तों ने ले ली। पुलिस और न्यायिक दंडाधिकारी, दोनों के उत्तरदायित्व इन्हें सौंपे गए। जबकि इन पर नियंत्रण के लिए कलकत्ता में मुख्य राजस्व मंडल बना दिया गया। 

शुरू-शुरू में जिला आयुक्तों को सिर्फ भू-राजस्व के मामलों में ही न्यायिक शक्तियाँ दी गईं। लेकिन जैसे-जैसे जिला आयुक्तों की व्यवस्था अन्य क्षेत्रों में फैली, उनकी शक्ति बढ़ती गई। फिर धीरे-धीरे ब्रिटेन के पूरे औपनिवेशिक साम्राज्य में यह आयुक्त-व्यवस्था स्थापित हो गई। औपनिवेशक शासन का शास्त्रसम्मत स्वरूप बन गई।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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