माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 24/8/2021
भारत में शुरू के 50 साल तक अंग्रेज आश्वस्त ही नहीं थे कि यहाँ उनका शासन लंबा भी हो सकता है। वे ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते थे। इतने कि आलोचना करते समय भी सावधान रहते कि कहीं उनकी भावनाएँ किसी को आहत न कर दें। बेवज़ह उनके शासन के लिए नई मुसीबत न आन पड़े। उनमें तब भारतीय संस्कृति के प्रति थोड़ा सम्मान भी था। शायद इसीलिए कई अंग्रेज अफ़सर फारसी पढ़ने-बोलने लगे थे। वह उस समय शासन और साहित्य की भाषा थी। एक स्तर तक वे अपने को भारत के कुलीन वर्ग का हिस्सा समझने लगे थे। लेकिन सदी के अंत तक अंग्रेजों को लगने लगा कि वे नस्ली तौर पर हिंदुस्तानियों से श्रेष्ठ हैं। ज़ाहिर तौर पर इस अहसास ने भारतीयों से उनके संबंध ख़राब किए। हालाँकि इसमें भी पहले यह स्थिति कलकत्ता में ज़्यादा बनी क्योंकि वहाँ अंग्रेज भी अधिक थे।
मनोभाव में इस बदलाव की शुरुआत 1786 से हुई, जब लॉर्ड कॉर्नवालिस हिंदुस्तान के वायसराय बने। उनका मक़सद प्रशासन में सुधार करना था। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद दूर करना था। लिहाज़ा उन्होंने सबसे पहले उच्च सरकारी पदों से भारतीयों को दूर किया क्योंकि वह मानते थे कि ‘हर हिंदुस्तानी भ्रष्ट’ है। न्यायिक व्यवस्था से भी भारतीयों को हटाया। ब्रिटिश न्यायाधीश नियुक्त किए। कूटनीतिक संबंधों से जुड़े परंपरागत रिवाज़ों को भी लगभग छोड़ दिया। इस तरह वह भारतीय शासक वर्ग को अलग-थलग करने में सफल रहे। फिर लॉर्ड वेलेज़्ली के समय अंग्रेजों के इस मनोभाव का और विस्तार हुआ। वह नस्ली अहंकार से भरे थे और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को फैलाना, उसे मज़बूती देना उनका एकमात्र मक़सद था। ऐसे में शेष ब्रिटिश समुदाय का अपने वरिष्ठों से एक कदम आगे निकल जाना स्वाभाविक था। इस बारे में 1810 में कलकत्ता आए एक सैलानी ने लिखा था, “हर अंग्रेज ख़ुद को जॉन बुल की तरह मानने लगा है।” जॉन बुल अंग्रेजियत के गरिमामय प्रतीक माने जाते हैं।
अंग्रेजों और भारतीयों के बीच दूरी बढ़ाने में तब ब्रिटिश महिलाओं की बढ़ती तादाद भी ज़िम्मेदार रही। वे तमाम पूर्वाग्रहों की शिकार थीं। उनके हाव-भाव, बोल-चाल, सब ईसाइयत से लबरेज़ थे। गृहस्थ जीवन की उनकी अपनी समझ थी। उन्हें शासन-व्यवस्था से भी अधिक लेना-देना नहीं था। उन्होंने अपने घरों में काम करने वाली भारतीय महिलाओं की छुट् कर दी। जबकि वे उनकी दुनिया में थोड़ी-बहुत भारतीयता के समावेश का जरिया थीं। ब्रिटिश महिलाओं को भारतीयों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनके अलावा, भारतीयों और अंग्रेजों के बीच दुराव की एक वज़ह ईसाई मिशनरियाँ भी बनीं, जो भारतीयों में उनकी परंपराओं के प्रति भय और घृणा पैदा कर रहीं थीं। इससे अंग्रेजों में भी साथ-साथ यह मानस बना कि भारतीय असभ्य, अनगढ़, अशिक्षित हैं। उनके साथ नज़दीकी संबंध रखना फ़ायदेमंद नहीं है।
हालाँकि यह नस्ली भेदभाव बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई भारत में ब्रिटिश समुदाय के विस्तार ने। धीरे-धीरे यह समुदाय इतना बड़ा हो गया कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारतीयों पर निर्भर नहीं रहा। इससे भारतीयों के साथ उसके तमाम अपरिहार्य कार्य-संबंध ख़त्म होने लगे। फिर चाहे वे व्यावसायिक हों या शासन-प्रशासन संबंधी। इससे आपसी दूरी बढ़नी तय थी, जो बढ़ी। फिर लॉर्ड विलियम बेंटिंक के समय अंग्रेजों का ध्यान भारतीय समाज में व्याप्त कन्या भ्रूण हत्या, सती प्रथा और ठगी जैसी कुरीतिक समस्याओं की तरफ़ गया। इससे भी अंग्रेजों के मन में भारतीयों के प्रति वितृष्णा के भाव पैदा हुए। हालाँकि कुछ अंग्रेज भारत और भारतीय संस्थाओं-परंपराओं के प्रति सम्मान का भाव भी रखते थे। ये लोग अपवादस्वरूप अंग्रेजों और भारतीयों के बीच खाई चौड़ी होने से रोक रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे अंग्रेजों का साम्राज्य बढ़ा, ज़्यादा तादाद में अंग्रेज अधिकारी-कर्मचारी भारत आए, इस तरह के प्रयासों ग़ैर-अंग्रेजियत वाला समझा जाने लगा। उनकी निंदा की जाने लगी।
उस वक़्त भारत भेजे जाने वाले अधिकांश अंग्रेज अफ़सर, कर्मचारी मानते थे, जैसे उन्हें देश-निकाला दे दिया गया हो। भारत का मौसम उनके लिए कठोर था। यहाँ तेजी से बदलते हालात में उन पर हमेशा कफ़न-दफ़न की तलवार लटकती रहती थी। इस बारे में 1827 में ‘अमंग द यूरोपियंस इन इंडिया’ नामक पुस्तक में लिखा है, “अगर शहरों में आप किसी अच्छे कब्रिस्तान में जाएँ तो वहाँ कई कब्रें (ब्रिटिश) युवाओं की मिल जाएँगीं। यह वे लोग थे, जिन्होंने बीमारी, महामारी, युद्ध आदि में जान गवाँ दी। उन अधेड़ उम्र के लोगों की कब्रें भी मिलेंगी, जो जीवनभर की मेहनत का फल भोगने से पहले ही यहाँ आकर काल के गाल में समा गए। यह चीज भारतीय कब्रिस्तानों की निराशाजनक तस्वीर पेश करती है।” ज़ाहिर तौर पर ऐसे निष्कर्षों, उद्धरणों ने भी तमाम लोगों को प्रभावित किया। इससे उनमें भारत के प्रति नापसंदगी का भाव मज़बूत हुआ। यह कई बार उन्माद के रूप में सामने आया।
इस तरह 1857 आते-आते ज़्यादातर ब्रिटिश अधिकारी मानने लगे कि भारतीय समुदाय तमाम बुराईयों का ढेर है। उसे सभ्य और शिक्षित बनाना उनका कर्त्तव्य है। हालाँकि सामान्य अंग्रेज कर्मचारियों की चिंता अब सुशिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग से जुड़ चुकी थी। यह वर्ग अब ब्रिटिश शासन के सामने माँगें रखने लगा था। लिहाज़ा, सामान्य अंग्रेज कर्मचारियों को अपने हितों की सुरक्षा की चिंता थी। इसीलिए वे अंग्रेजों के प्रतिनिधित्व वाली विधायिका की अपेक्षा करने लगे थे। हालाँकि वे ऐसी किसी वैधानिक संस्था में भारतीयों के प्रतिनिधित्व की बात नहीं करते थे। क्योंकि इससे भी उन्हें उनकी अहमियत और प्रतिष्ठा कम हो जाने का डर था। अपनी इस सोच की वज़ह से उन्होंने प्रशासनिक सुधारों की प्रक्रिया तक रोकने की कोशिश की। इसमें कई बार सफल भी हुए। मसलन- ब्रिटिश सरकार ने 1837 में एक कानून बनाया। इसमें प्रावधान था कि कलकत्ता से बाहर रहने वाले अंग्रेजों के मुकदमें भी कंपनी की अदालतें सुनेंगी। इन अदालतों के प्रमुख भारतीय न्यायाधीश भी हो सकते हैं। लेकिन अंग्रेजों ने इसे ‘काले कानून’ की संज्ञा दी और ब्रिटिश संसद से इसको रुकवा दिया।
हालाँकि इस दौर में भी ब्रिटिश समुदाय के कुछ लोग लगातार अपने लोगों को मशविरा दे रहे थे कि भारतीयों और उनके अनुभवों से कुछ न कुछ सीखते रहना चाहिए। इससे हिंदुस्तान का शासन चलाने में मदद मिलेगी। लेकिन ऐसे लोग ‘अल्पसंख्यक’ ही रहे।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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