महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 7/9/2021

किन्हीं सेठ जी को अपने धन पर बहुत गर्व था। वे जब किसी को धन से मदद करते, तो सब जगह उसका बख़ान किया करते थे। अपना ही गौरवगान करते। एक दिन उन्हें पता चला कि नगर में महात्मा बुद्ध आए हैं। उन्होंने सोचा- क्यों न, महात्मा जी को कुछ भेंट दी जाए। थोड़ा पुण्य अर्जित कर लिया जाए। लिहाज़ा, वह हजार स्वर्ण मुद्राएँ लेकर बुद्ध के पास पहुँच गए। अभिवादन किया और पास ही बैठ गए। बुद्ध ने उनके आने का कारण पूछा, तो पहले उन्होंने अपनी दानशीलता की स्वयं प्रशंसा की। फिर बोले, “महात्मन्, आपके पास धन का अभाव रहता होगा। इसलिए मैं आपके लिए कुछ भेंट लाया हूँ। कृपया, इसे ग्रहण करें।” इसके बाद उन्होंने स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली निकाल कर महात्मा बुद्ध को दे दी। 

इस समय सेठ जी की आँखों में ‘अहंकार’ की चमक स्पष्ट दिखाई दे रही थी। लेकिन महात्मा ने स्वर्ण मुद्राएँ वापस कर दीं। यह देख सेठ जी को बहुत धक्का लगा। बुद्ध जैसा व्यवहार आज तक उनके साथ किसी ने नहीं किया था। इसलिए मन की खिन्नता उनके चेहरे पर दिख रही थी। महात्मा बुद्ध ने उनकी मनोदशा भाँप ली। उन्हें समझाते हुए उनसे कहा, “मुझे धन की आवश्यकता नहीं है। मुझे तुम्हारी आवश्यकता है।” यह सुनकर सेठ जी के चेहरे पर आश्चर्य का भाव आ गया। उन्होंने उसी भाव से महात्मा बुद्ध से पूछा, “मैं आपकी बात समझा नहीं?” तब बुद्ध उन्हें समझाते हुए बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं, “सेठ जी जिस दान के साथ, मैं दे रहा हूँ, देने वाला ऐसा सोचे, वह दान मिट्टी के समान है।”

इस कहानी में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है, ‘अहंकार’। महात्मा बुद्ध ने इस अहंकार की जड़ पर ही अपने उपदेश में  प्रहार किया है। इसीलिए अपने दर्शन में वे ‘आत्मा’ को ही नकार देते हैं। यही कारण है कि बुद्ध का दर्शन ‘अनात्मवाद’ का दर्शन कहलाता है। यानि व्यक्ति से आत्मा/अहम् के भाव को ही नष्ट कर दें, तो अहंकार स्वत: नष्ट होने लगेगा। 

किसी को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि महात्मा बुद्ध अपने कथनों में भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों को प्रतिध्वनित कर रहे हैं।

भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कहते हैं… 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।। 
अर्थात् : सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीनों गुणों की जो साम्यावस्था है उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के गुणों से अर्थात् कार्य-कारणरूप समस्त विकारों से सम्पूर्ण लौकिक और शास्त्रीय कर्म किए जाते हैं। परन्तु अहंकारविमूढात्मा कार्य और करण के संघातरूप शरीर में आत्मभाव कर लेता है। इस आत्मभाव की प्रतीति का नाम ही अहंकार है। उस अहंकार से जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकार से मोहित हो चुका है, ऐसा देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृति के कर्मों को अपने में मानता हुआ उन कर्मों का, मैं कर्ता हूँ, ऐसी मान्यता कर लेता है।

इसके आगे कहा गया है… 

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। 
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।17.5।। 
अर्थात् : जो मनुष्य शास्त्र में जिसका विधान नहीं है, ऐसा अशास्त्रविहित कर्म करता है। अन्य प्राणियों को और अपने शरीर को भी पीड़ा पहुँचाने वाला तप, दम्भ और अहंकार पालता है। कामना और आसक्तिजनित बल से युक्त होकर तप करता है, उसका ऐसा तप सात्विक नहीं कहा जाता। 

ग़ौर करने की बात है, अर्जुन जैसे प्रबुद्ध शिष्य को सामने पाकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें शास्त्रीय दृष्टि से तत्त्व की शिक्षा दी। लेकिन महात्मा बुद्ध के समक्ष आमजन थे। अत: उन्होंने ज़्यादा सूक्ष्म चीजों में न पड़कर सीधे आत्मा को ही नकार दिया। बुद्ध अपने दर्शन में आत्म को निषेध करते हैं। क्योंकि व्यक्ति अपने आप को महत्त्वपूर्ण मानते हुए कार्य करता है। 

व्यक्ति को ख़ुद से ज़्यादा प्रिय कुछ नहीं होता (आत्मनस्तु कामाय सर्वम् प्रियं भवति) जब आत्मा ही नहीं, तो व्यक्ति का अहम् भाव ख़त्म। आत्मा को सुख पहुँचाने के लिए ही तो मनुष्य शरीर को विविध सुख देता है। अपनी-अपनी प्रवृत्ति अनुसार सद् और पाप कर्म करता है। 

बौद्ध आचार्य नागार्जुन कहते हैं, “जो आत्मा को देखता है, उसी पुरुष का ‘अहम्’ सदा के लिए बना रहता है। समस्त दोषों का उत्पत्ति स्थान आत्मदृष्टि है। बिना इसे हटाए दोषों का निवारण सम्भव नहीं है। (य: पश्यत्यात्मानं… नागार्जुन, बोधिचर्यावतारपंजिका) 

महात्मा बुद्ध ने अपने समय के अनुकूल, तत्कालीन दशा और दिशा के अनुकूल, अपने सहज और सरल सिद्धान्त सामान्य जन के अनुकूल प्रस्तुत किए हैं। जिससे कि सभी बुद्ध हो सकें। 
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 27वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं…

26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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