जन्माष्टमी, रक्षाबन्धन जैसे त्योहारों में अक्सर मुहूर्त-भेद क्यों होता है?

टीम डायरी, 17/8/2022

अभी पाँच दिन पहले रक्षाबन्धन निकला है। इसमें दुविधा की स्थिति बनी कि वह 11 अगस्त को है या 12 को। इसी तरह आने वाली 19 तारीख़ को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। दो-राय वहाँ भी है। कहीं-कहीं, जन्माष्टमी 18 अगस्त को भी मनाई जा रही है। और ये तो इन्टरनेट का दौर है। सूचनाओं के विस्फोट का समय। अख़बारों, चैनलों, सोशल मीडिया पर तरह-तरह की विरोधाभासी सूचनाएँ प्रसारित होती हैं। ऐसे मौकों पर अक़्सर। उनसे दुविधा बढ़ जाती है। 

अब ऐसे में आम लोग क्या करें? उनके सामने बड़ा प्रश्न। सो, इसका समाधान वे सुविधा में निकालते हैं। यानि जिसकी जैसी सुविधा, उसकी वैसी श्रद्धा। वैसा ही पूजा-विधान। भले सुविधा की स्थिति में विधान-भंग का जोख़िम हो। हालाँकि ऐसी दुविधा कोई करे भी तो क्या? और ये दुविधा आख़िर होती ही क्यों है? इन सवालों का ज़वाब यूँ तो जानकार ही बेहतर दे सकते हैं। लेकिन एक सामान्य कारण स्पष्ट दिखता है। वह है टाइम-ज़ोन की भिन्नता का। 

सभी लोग जानते हैं कि समय की गति हर जगह एक जैसी नहीं होती। भारत में जिस वक्त 12 बजे होते हैं। पाकिस्तान में लगभग 11.30 बज रहे होते हैं। इसी तरह अन्य देशों में भी स्थितियाँ हैं। यहाँ तक तो सबके लिए यह सामान्य ज्ञान है। लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि देश के भीतर भी समय की गति में भिन्नता ऐसी ही होती है। इसीलिए अरुणाचल प्रदेश में जिस वक़्त सूरज डूब जाता है, उसी वक्त अहमदाबाद में साँझ ढलने से कुछ पहले की ठीक-ठाक धूप होती है। इससे भी सूक्ष्म-स्तर पर शहरों के बीच भी समय की गति में भिन्नता का भेद बना रहता है।

यही वज़ह है कि पहले के लोग स्थानीय स्तर पर पंचाँग देख-दिखवाकर तिथि-मुहूर्त आदि का निर्धारण किया करते थे। लेकिन अब चूँकि ऐसा नहीं होता। इसलिए दक्षिण के पंचाँग के हिसाब से निकाले गए तिथि-मुहूर्त भी सूचनाओं के चक्र में घूमते रहते हैं और उत्तर, पश्चिम, पूरब या मध्य क्षेत्रों की काल-गणनाओं के आधार पर निकाले गए भी। यही तमाम दुविधा की मूल वज़ह है। जबकि यह सामान्य समझ की बात है कि दिल्ली की काल-गणना बस, वहीं या उसके आस-पास ही सटीक तौर पर मान्य होगी। इसी तरह मथुरा, अयोध्या आदि की वहाँ पर। मथुरा की काल-गणना से द्वारका या अयोध्या की काल-गणना से पूरब में जगन्नाथ भगवान के मंदिर में पूजा-मुहूर्त ठीक नहीं हो सकता।

इसीलिए इस क़िस्म की दुविधाओं से बाहर आने का सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है कि अख़बारों, चैनलों, सोशल मीडिया आदि पर चल रही सूचनाओं पर आँख बन्द कर भरोसा न किया जाए। इसकी जगह स्थानीय पंचाँग/कैलेंडर की मदद ली जाए। और थोड़ा अपने विवेक की भी। सुविधा की साधना से यह कहीं अच्छा विकल्प होगा।

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Neelesh Dwivedi

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