टीम डायरी, 15/9/2020
अभी 14 सितम्बर को पूरे देश में ‘हिन्दी दिवस’ मनाया गया। कहने के लिए तो यह ‘दिवस’ अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने और उसका प्रसार बढ़ाने और उसके प्रति अधिक जागरुकता लाने जैसे उद्देश्यों के साथ मनाया जाता है। लेकिन असल में हुआ क्या? देश के बड़े ‘हिन्दीभाषी’ कहे और समझे जाने वाले अख़बार ने अपने पहले पन्ने पर हिन्दी के कुछ बड़े साहित्यकारों की तस्वीरें छापीं। उन्हें स्मरण करते हुए स्वयं का गौरवगान किया और अपने भाषायी कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। दिलचस्प बात ये है कि यही अख़बार ‘जल दिवस’, ‘पर्यावरण दिवस’, ‘पृथ्वी दिवस’ जैसे मौकों पर विशेष पन्ने छापता है। यहाँ तक कि ऐसे अवसरों पर विभिन्न पन्नों की प्रमुख ख़बरों के शीर्षक तक नीले-हरे कर लेता है। लेकिन ‘हिन्दी दिवस’ पर विशेष पन्ना आदि प्रकाशित करने की बात तो दूर अख़बार में सिर्फ़ एक दिन के लिए ही सही, भाषायी शुद्धता तक का ख़्याल नहीं रखा गया।
उदाहरण के लिए बगल के पन्ने पर ही एक ख़बर राजभाषा विभाग की थी। इसके शीर्षक में ही वाक्य उल्टा और हिन्दी से आधा ‘न’ गायब। जबकि पहले पन्ने पर प्रतिनिधि चेहरों के साथ ‘हिन्दी’ को उसके शुद्ध रूप यानि आधे ‘न’ के साथ लिखा गया था। यहाँ याद दिलाते चलें कि उल्टे-पुल्टे वाक्यों वाले शीर्षक और लेखन से आधे अक्षरों को लुप्तप्राय करने में इस अख़बार का बड़ा योगदान रहा है। सरलता और सहजता की दलील के साथ जानबूझकर यह सब किया गया है। इसी तर्क के आधार पर अंग्रेजी के ग़ैरजरूरी, अनुपयुक्त शब्दों को भी जबरन समाचार लेखन में इस्तेमाल करने का चलन शुरू किया गया। इसका श्रेय भी इस अख़बार को बहुत जाता है। और कमाल की बात ये कि मत्थे के ऊपर ‘गर्व से, हिन्दी हैं हम’ लिखने वाले इस अख़बार ने ‘हिन्दी दिवस’ के मौके पर भी यही सब किया। अकारण अंग्रेजी के शब्दों से लदा हुआ समाचार लेखन और उल्टे-पुल्टे वाक्यों वाले शीर्षक।
वैसे यह सब सिर्फ़ इसी एक अख़बार ने किया हो, ऐसा नहीं है। ये तो सिर्फ़ उदाहरण मात्र है। लगभग सभी अख़बारों, समाचार चैनलों, हिन्दी की वेबसाइटों आदि ने यही किया। सबकी दलील वही कि हम ‘सरल, सहज, बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करते हैं’। ठीक है, इसमें कोई परेशानी भी नहीं। लेकिन अपने इस स्वरूप के साथ फिर ‘गर्व से, हिन्दी हैं हम’ जैसा कोई दावा भी तो न करें। क्योंकि इस चलताऊ लेखन में हिन्दी, चिन्दी-चिन्दी होकर कहीं पड़ी होती है। बमुश्किल ही ढूँढने से मिलती है। ऐसे में जबरन के ‘एकदिवसीय पाखंड’ का आख़िर क्या अर्थ है?
मीडिया का यही पाखंड एक बड़ा कारण था सम्भवत:, जिसके चलते विभिन्न सामाजिक मंचों (सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म) पर ‘हिन्दी दिवस’ को लेकर तीखी, व्यंग्य भरी और ‘बोलचाली लेखन के चलन’ की खिल्ली उड़ाती प्रतिक्रियाएँ देखी गईं। फेसबुक पर किसी ने अपने छोटे से सटीक लेख का शीर्षक दिया, ‘हैप्पी हिन्दी डे टु ऑल माय डियर एंड नियर’। किसी ने व्यंग्यात्मक कविता लिखी। तो किसी ने जाने-माने व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईं की एक विख्यात उक्ति के जरिए याद दिलाया कि हिन्दी के हालात बीते कई दशकों से लेकर अब तक कोई ख़ास नहीं बदले हैं। परसाईं जी ने कभी कहा था, “हिन्दी दिवस के दिन, हिन्दी बोलने वाले, हिन्दी बोलने वालों से कहते हैं- हिन्दी में बोलना चाहिए।” हालाँकि राष्ट्रभाषा से जुड़ी यह अपमानजनक विडम्बना अभी कुछ कम थी शायद। सो, बची कसर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने पूरी कर दी। उन्होंने ‘हिन्दी दिवस’ के दिन ट्विटर पर 10 सन्देश डाले। अपनी मातृभाषा कन्नड़ में। इनमें से एक में उन्होंने लिखा, “हिन्दी कभी राष्ट्रीय भाषा नहीं थी, कभी होगी भी नहीं… ‘हिन्दी दिवस’ मनाने का विचार कुछ और नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने का नरम तरीका है।” तिस पर सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये कि हर साल 14 सितम्बर को यही होता है।
इसीलिए भाषायी सरोकार से जुड़े लोगों को अब इस पर विशेष रूप से विचार करना चाहिए कि ‘हिन्दी दिवस’ का आयोजन हमारी राष्ट्रभाषा की गरिमा, उसका मान बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहा है? या फिर उसके अपमान, उसकी अवमानना का कारण बन रहा है? विमर्श में अगर दूसरे सवाल का उत्तर ‘हाँ’ में मिले तो अगला विचारणीय पहलू यह होना चाहिए कि क्यों न ‘हिन्दी दिवस’ का आयोजन बन्द ही कर दिया जाए। भाषा का जो होना है, वह तो वैसे भी हो ही रहा है। आगे भी होता रहेगा। पर समर्पित दिवस विशेष में कम से कम ऐसी अवमानना तो नहीं होगी!
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