सरोकार
भारत के लिए चीन की चुनौती ‘राष्ट्रीय सरोकार’ से जुड़ा मसला है। कैसे? यह हाल की दो ख़बरों से अन्दाज़ा लग सकता है। ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका की ख़बर के मुताबिक चीन ने भारत के लेह-लद्दाख से लगभग 250 किलोमीटर दूर ज़मीन के नीचे 14 सुरंगें बनाईं हैं। यहाँ उसने करीब दो दर्जन मिसाइलों को रखने का इन्तज़ाम किया है। यही नहीं तिब्बत में उसने लड़ाकू विमानों के लिए भी ऐसा ही अड्डा तैयार किया है।
दूसरी ख़बर ‘द यूरेशियन टाइम्स’ के हवाले से। इसमें बताया गया है कि चीन ने ईरान के चाबहार बन्दरगाह से ज़हेदन शहर तक बिछाई जाने वाली रेल लाइन का ठेका भारत से छीन लिया है। चाबहार बन्दरगाह के विकास का जिम्मा भारत के पास है। भारत-ईरान-अफ़गानिस्तान त्रिपक्षीय मित्रता समझौते के तहत इसे विकसित किया जा रहा है। बन्दरगाह की अहमियत ये है कि पाकिस्तान काे पूरी तरह दरकिनार कर भारत यहाँ से होते हुए अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच सकता है। अपना सामान पहुँचा सकता है। लेकिन अब चीन उसकी राह में बाधा है।
चीन इस समय नेपाल में भारत-विरोधी भावनाएँ भड़काने में लगा है। उसने पाकिस्तान पर पूरा प्रभाव स्थापित कर लिया है। बाँग्लादेश और श्रीलंका पर असर बढ़ाने की उसकी पूरी तैयारी है। भारत के लद्दाख़, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम आदि में भारतीय ज़मीन हड़पने की कोशिश वह करता ही रहता है। लद्दाख़ में अभी जाे हुआ, वह पूरी दुनिया के सामने है। माहौल वहाँ अब तक पूरी तरह ठंडा नहीं पड़ा है।
इस तरह चीन सिर्फ़ भौगोलिक तौर पर ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामरिक रूप से भी भारत को चौतरफ़ा घेर रहा है। नुकसान पहुँचा रहा है। और चिन्ता की बात है कि द्विपक्षीय व्यापार के नाम पर अपनी कम्पनियों के जरिए भारत के भीतर भी घुसकर हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा रहा है। कारण स्पष्ट है कि चीन इस समय अमेरिका से कहीं अधिक पड़ोस में बैठे भारत की बढ़ती ताकत से चिन्तित है।
ऐसे में ज़ाहिर तौर पर भारतीय सत्ता शक्ति केन्द्रों से भी अपेक्षा की जाती है कि वे चीन की चुनौती को गम्भीरता से लें। चीन के सनकी शासक वर्ग की विस्तारवादी महात्त्वाकाँक्षाओं पर लगाम कसने की जुगत करें। और वे ऐसा कुछ करने की तरफ़ आगे बढ़ते हैं तो उन्हें चीनी शासकों की लगाम की कई डोरियाँ चीन के भीतर ही मिल सकती हैं।
कहते हैं, समझदार के लिए इशारा काफ़ी होता है। कुछ खबरिया इशारे हैं। “द इकॉनॉमिक टाइम्स’ ने अमेरिका ख़ुफ़िया एजेन्सी के आकलन के हवाले से अभी ही ख़बर दी है। इसमें बताया है कि गलवाँ घाटी में भारत के साथ हुई झड़प में चीन के लगभग 35 सैनिक मारे गए थे। लेकिन इन सैनिकों की शहादत को न वहाँ की सरकार ने स्वीकार किया, न ही उन्हें सम्मान दिया। यहाँ तक कि उनका अन्तिम संस्कार भी खुले तौर पर, परम्परागत रूप से करने की इजाज़त सरकार ने नहीं दी है।
सैनिकों के साथ इस अनादरपूर्ण व्यवहार से चीनी सेना में ख़ासा असन्तोष है। विशेष रूप से पूर्व सैनिक तो सरकार के ख़िलाफ़ खड़े होने को तैयार दिखते हैं। ‘द हिन्दु’ अख़बार की नौ जुलाई की ख़बर के अनुसार चीनी सेना के करीब 144 पूर्व सैनिकों ने सरकार को पत्र लिखा है। इसमें माँग है कि चीन की सेना द्वारा सीमा पर अतिक्रमण, हमले, घुसपैठ आदि के मामलों की जाँच कराई जाए। ताकि स्थिति स्पष्ट हो।
चीनी सेना के पूर्व अधिकारी जियानली यॉन्ग ने दो हफ़्ते पहले अमेरिकी अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ में लेख लिखा। इसके मुताबिक सैनिकों के प्रति असम्मानजनक व्यवहार से नाराज़ चीन के पूर्व सैनिक तो सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह भी कर सकते हैं।
यही नहीं, हाँगकाँग जैसे अपने प्रभाव वाले इलाकों में चीनी शासकों के अत्याचार से जुड़ी ख़बरें भी आई हैं। मसलन- कुछ समय पहले ही चीन की सरकार ने ‘हाँगकाँग सुरक्षा कानून’ मंज़ूर किया है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक यह कानून अपराधियों पर कम, चीन सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर ज़्यादा आजमाया जाने वाला है। वहाँ लोकतान्त्रिक प्रणाली के समर्थन में अक्सर आवाज़ें उठती रहती हैं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ की 11 जुलाई की एक ख़बर के अनुसार हाँगकाँग की एक विषाणुविज्ञान विशेषज्ञ ली-मेंग यान देश छोड़कर भाग गई हैं। उन्हें डर था कि चीन की सरकार उनकी हत्या करा सकती है। यान ‘हाँगकाँग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ में काम करती थीं। इस वक्त उन्होंने अमेरिका में शरण ली है। उनके मुताबिक कोरोना महामारी के बारे में चीन ने दुनिया को धोख़े में रखा। उनके पास इसके प्रमाण हैं।
याद करते चलें कि चीन में कोरोना संक्रमण की पहली सार्वजनिक चेतावनी देने वाले चिकित्सक ली वेन लियाँग की फरवरी में मौत हो चुकी है। उनकी मौत से पहले सरकार ने उन पर अफ़वाह फ़ैलाने के आरोप में कार्रवाई की थी। जबकि वे ख़ुद कोरोना से संक्रमित हो चुके थे। इस तरह की कार्रवाईयाँ भी वहाँ बड़े असन्तोष को जन्म दे रही हैं।
इसके अलावा चीन में उइगर मुस्लिमों पर अत्याचार तो अन्तर्राष्ट्रीय मसला है। इस पर कई देश चीन को अक्सर निशाने पर लेते रहते हैं। यानि चीन में भीतर ही भीतर ऐसे तमाम इन्तज़ामात हैं, जिनका इस्तेमाल कर के वहाँ की सनकी सत्ता को सबक सिखाया जा सकता है। ऐसा अतीत में एक बार नहीं कई मर्तबा तमाम देशों में हो चुका है।
यहाँ तक कि 1971 में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए हिन्दुस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने भी यही किया था। पाकिस्तान की सत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष के बारूद को ‘बाँग्लादेश मुक्ति वाहिनी’ के माध्यम से आग दिखाई और फिर जाे हुआ, वह तो जगजाहिर है। इस सन्दर्भ के साथ उल्लेखनीय यह भी कि भारत के मौज़ूदा प्रधानमंत्री की कार्यशैली में काफ़ी-कुछ इन्दिरा गाँधी की छाप दिखती है।
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