पंडित जसराज यहीं हैं, और अब तो हर कहीं हैं!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से; 17/8/2020

ख़बर आई है कि पंडित जसराज नहीं रहे। पर क्या ऐसा हो सकता है भला? ये सवाल ग़ैरवाज़िब नहीं, बल्कि सोचने लायक है। क्योंकि जो शख़्स अपने संगीत से पिता को भी जीवन्त करने का इरादा रखता हो। जिसने अपने संगीत से पिता के साथ-साथ ख़ुद को भी समयातीत-सा बना लिया हो। क्या वह यूँ दुनिया छोड़ सकता है? नहीं। हाँ, उनकी ‘देह का अन्त’ ज़रूर हुआ है अलबत्ता और ये सच्चाई है। लेकिन बस इतनी ही। पंडित जसराज ख़ुद भी देह-गेह की बस इतनी ही सच्चाई स्वीकार करते थे शायद। उनके जीवन से जुड़े किस्सों से ये बात साबित होती है।

साल 1960 का वाकया है. ख़ुद उनकी जुबानी, “उस समय उस्ताद बड़े गुलाम अली को दिल का दौरा पड़ा था। वे मुम्बई में थे। मेरा भी कार्यक्रम था मुम्बई में। वहाँ पहुँचा तो मेरा मन उस्ताद से मिलने को हुआ। सो चला गया उनके पास। जब उनके घर पहुँचा तो उन्हें अकेले लेटे पाया। मैं उनके पैरों के पास जाकर बैठ गया। मुझे देखकर उनके मन में प्यार उमड़ आया। उन्होंने मुझसे कहा, ‘जसराज, तू मेरा शागिर्द बन जा’। यह सुनकर मेरी तो बोलती बन्द हो गई। कुछ देर समझ ही नहीं आया, क्या जवाब दूँ। फिर मैंने सम्हलकर कहा, ‘चचा जान, मैं आपसे गाना नहीं सीख सकता’। उन्होंने पूछा, ‘क्यों’ तो मैंने कहा, ‘क्योंकि मैं मेरे पिता (पंडित मोतीराम) को (संगीत से) जीवन्त करना चाहता हूँ’। ये सुनकर उस्ताद की आंखों में आँसू आ गए। उन्होंने हाथ उठाकर कहा, ‘अल्लाह तेरे मन की मुराद पूरी करे’।”

ऐसा ही किस्सा पंडित जसराज अपने पिता और चाचा (पंडित जोतीराम) से जुड़ा भी बताते हैं। उनके मुताबिक, “मेरे पिता और चाचा को उनके मामा नत्थूलाल जी ने सात साल तक गाना सिखाया। फिर उनका देहान्त हो गया। लेकिन उसके तीन-चार दिन बाद उनकी वाणी मेरे पिता के कानों में गूँजी। उन्होंने कहा, ‘बेटा, मैंने तुझे सात साल तक सिखाया लेकिन रागों के नाम नहीं बताए कि फलां बंदिश का राग कौन सा है। ये मैं तुझे अब बताऊँगा’। इस तरह बिना शरीर के उन्होंने लगातार अगले सात बरस तक फिर मेरे पिता-चाचा को गाना सिखाया। ये अविश्वसनीय है, पर ऐसा हुआ है। तो ये गुरु-शिष्य परम्परा और अनन्य गुरु भक्ति का ये उदाहरण है।”

सिर्फ़ देह-गेह ही नहीं, संगीत की पारलौकिकता को भी पंडित जसराज बखूबी महसूस किया, ऐसा कहा जा सकता है। बल्कि ये भी कह सकते हैं कि उन्होंने सुरों को अपने आस-पास ‘सशरीर’ महसूस किया। वह भी पूर्णता के साथ। उदाहरण के लिए एक किस्सा उन्होंने अपनी गायकी के सन्दर्भ में साझा किया, “पुणे के एक सज्जन हैं, विद्याधर पंडित। उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि आप सुर को हिट (ज्यादा जोर देना) नहीं करते। आप सुर को ऐसे लगाते हैं, जैसे छोटे बच्चे को सहला रहे हों। उससे प्यार कर रहे हों। तब मेरा भी इस तरफ ध्यान गया कि हाँ, वाकई मैं सुरों को हिट नहीं करता। और ये बात मुझे किसी दूसरे से पता चली।”

इसी तरह सुरों के अलग-अलग दर्जे (भिन्न रागों में एक ही सुर का अलग-अलग प्लेसमेन्ट या स्तर) के बारे में वे कहते हैं, “हमारी तो पूरी रागदारी इसी पर निर्भर है। सूक्ष्म भाव से विचार करें तो यह सब पता चलता है कि यमन की ‘ऋषभ’ (सरगम का दूसरा सुर ‘रे’), शुद्ध नट की ‘ऋषभ’ और जौनपुरी की ‘ऋषभ’ की जगहें अलग-अलग हैं। तालीम होगी, चिन्तन होगा, डूबकर साधना करेंगे, तब साधक इस सूक्ष्मता को महसूस कर सकते हैं। उसे साकार कर सकते हैं। नहीं तो खेल ख़त्म।”

पंडित जसराज विपरीतताओं का अस्तित्व भी ऐसे ही स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, ‘हाँ, मुझे पता है कि कुछ लोग मुझे (बड़ा संगीतकार) नहीं मानते। वे असल रसिया, संगीत के समझदार श्रोता और मर्मज्ञ माने जाते हैं। वे लोग मुझे नहीं मानते। हालाँकि इसका कारण मुझे नहीं मालूम कि वे मुझे क्यों नहीं मानते। ये अगर मुझे पता होता, तो उसे (अपने संगीत की किसी कमी के प्रश्न पर) ठीक न कर लेता। लेकिन अगर मुझे कभी ये मालूम हो जाता है कि यह व्यक्ति मेरा गाना पसन्द नहीं करता तो उसे मैं समझाने की कोशिश नहीं करता। न बातों से, न गाने से और न व्यवहार से। बल्कि जरा दूर रहता हूँ। ये यदि मेरी साधना है तो वह भी मैं ख़ुद नहीं करता। वो (ईश्वर) करवाता है। मुझे तो पूरा यकीन है कि भाई, मैं, मैं नहीं हूँ। कोई और है। उसे कुछ भी कह लीजिए। कोई भी नाम दे दीजिए।”

कल्पना करें कि जो अपने अस्तित्व में पारलौकिक सत्ता का अनुभव करता हो। जो सुर-संगीत को साक्षात् महसूस करता हो। जिसे गुरु-शिष्य के भाव का अहसास देह-गेह के दायरे से इतर तक होता हो। जो विपरीतताओं के अस्तित्व को भी सहज स्वीकार कर लेता हो। ऐसा शख़्स हमें छोड़कर कभी जा सकता है क्या? नहीं जा सकता। इसलिए भरोसा होना चाहिए कि पंडित जसराज यहीं हैं। और अब तो देह के बन्धन से मुक्त हर कहीं हैं।
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(ख्यात ध्रुपद गायक गुंदेचा बंधुओं की एक पुस्तक है, ‘सुनता है गुरु ज्ञानी’। पंडित जसराज का एक विस्तृत साक्षात्कार इस पुस्तक में दर्ज है। ऊपर बताए गए किस्से उसी साक्षात्कार का अंश हैं।)

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