मृच्छकटिकम्-10 : मनुष्य अपने दोषों के कारण ही शंकित है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

‘वसंतसेना’ की माता वसंतसेना को बुलाने का सन्देश भिजवाती हैं। वसंतसेना इधर ‘चारुदत्त’ द्वारा बनाई पेंटिंग की सराहना करती हुई ‘मदनिका’ से पूछती पूछती है कि यह चित्र मनोहर है? ‘मदनिका’ अपनी स्वीकृति देती है तो ‘वसंतसेना’ फिर पूछती है, “तुम्हें कैसे पता यह चित्र सुन्दर है?” ज़वाब में ‘मदनिका‘ ऐसा कहती है, “आपकी प्रेम से भरी निगाह इस बात की चुगली कर रही है कि यह चित्र मनोहर है”। 

वसंतसेना : अच्छा तुम अब झूठ भी बोलने लगी हो?

मदनिका : जब आपकी आँखें और आपका मन इस चित्र में रम गया है, तो इसका कारण क्यों पूछती हो?

वसंतसेना : सखियाँ मेरी हँसी करेंगी, इससे बचना चाहती थी।

मदनिका : मान्ये! ऐसा नहीं है। स्त्रियाँ अपनी सखी के भावानुरूप व्यवहार करने वाली होती हैं
(सखीजनचित्तानुवर्त्ती अबलाजनो भवति)।

तभी एक चेटी ‘वसंतसेना’ को उसकी माँ का सन्देश देती है। बताती है कि कपड़ों से ढँकी गाड़ी दरवाज़े पर खड़ी है। तब ‘वसंतसेना’ जानना चाहती है कि क्या यह गाड़ी ‘चारुदत्त’ ने भेजी है?

चेटी : उसने गाड़ी के साथ दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ भी भेजी हैं।

वसंतसेना : वह कौन है?

चेटी : (दुःखी होकर) वही राजा का साला ‘संस्थानक’।

वसंतसेना : (क्रोधपूर्वक) दूर हटो, अब कभी ऐसा न कहना।

चेटी : मैं तो सन्देश लेकर भेजी गई हूँ। मैं माता को क्या उत्तर दूँ?

वसंतसेना : उनसे कहना कि यदि “तुम मुझे जीवित रहने देना चाहती हो तो ऐसा सन्देश कभी न भेजना”।

चेटी : जैसी आज्ञा (वहाँ से चली जाती है)

(मंच पर अब शर्विलक आता है)

शर्विलक : ( मन में) कोई ज़ल्दी-ज़ल्दी चलता हुआ आता है तो मुझे भयभीत करता है। क्योंकि मेरा अपराधी मन हर किसी को सशंकित होकर देखता है। क्योंकि मनुष्य अपने दोषों के कारण ही शंकित है। (सर्वं तुलयति दूषितोऽन्तरात्मा स्वैर्दोषर्भवति हि शङ्कितो मनुष्य:) निश्चय ही मैंने ‘मदनिका’ के लिए यह दुष्कर्म किया है।

‘शर्विलक’ ऐसा सोचते हुए ‘वसंतसेना’ के घर में प्रवेश करता है। वहाँ मदनिका को देखकर प्रसन्न होता है। ‘मदनिका’ भी ‘शर्विलक’ को देखकर खुश हो जाती है। दोनों बात करने के लिए एकान्त देखते हैं। इसे ‘वसंतसेना’ देख लेती है और छुपकर उनकी बातें सुनती है। ‘शर्विलक’ यहाँ ‘मदनिका’ से जानना चाहता है कि क्या ‘वसंतसेना’ धन के बदले उसे मुक्त कर देगी? अपनी चोरी की बात भी वह ‘मदनिका’ को बताता है। ‘वसंतसेना’ सुनकर प्रसन्न होती है। लेकिन चोरी की बात से थोड़ा खिन्न भी होती है।

मदनिका : तुमने स्त्री के लिए दोनों को संशय में डाल दिया।

शर्विलक : किन दोनों को?

मदनिका : देह और चरित्र को।

शर्विलक : मूर्ख! साहस में ही लक्ष्मी का निवास है। (साहसे श्री: प्रतिवसति)

मदनिका : तुम निर्दोष चरित्र वाले हो। इसलिए मेरे कारण तुमने विरुद्ध कार्य किया है।

शर्विलक : धन का लालची होकर मैंने आभूषण पहनी स्त्री का धन नहीं चुराया है, ब्राह्मण का धन और यज्ञ के लिए एकत्र धन नहीं चुराता हूँ, चोरी में भी मेरी बुद्धि उचित-अनुचित का विचार करती है।

इसलिए जाकर ‘वसंतसेना’ से कहो कि ये आभूषण तुम्हारे शरीर के नाप के बने हैं, इन्हें धारण करें।

मदनिका : दिखाओ तो ये आभूषण। ये कहाँ से चुराए हैं?

शर्विलक : सबेरे मैंने सुना ये आभूषण सेठों के मोहल्ले में रहने वाले सार्थवाह ‘चारुदत्त’ के हैं।

‘वसंतसेना’ और ‘मदनिका’ ऐसा सुनकर बेहोश होकर गिर जाती हैं। 

जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

पिछली कड़ियाँ
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मृच्छकटिकम्-8 : चोरी वीरता नहीं…
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परिचय : डायरी पर नई श्रृंखला- ‘मृच्छकटिकम्’… हर मंगलवार

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Neelesh Dwivedi

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