माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 16/8/2021
अकबर के समय तक हर स्तर पर हिंदु जीवन पद्धति और तौर-तरीकों को स्वीकार करने की मंशा दिखती थी। यही कारण था कि अकबर ने प्रशासन में हिंदुओं को बराबरी से सहभागी बनाया। कई हिंदु अधिकारियों को बड़े पदों पर नियुक्त किया। फिर चाहे वह सैन्य प्रशासन हो या नागरिक। हिंदुओं के प्रभाव में उसने गौहत्या पर प्रतिबंध लगाया। इस अपराध के लिए मौत की सज़ा तक का प्रावधान किया। मगर अकबर के बाद हालात तेजी से बदले। मसलन, 1632 में शाह जहाँ ने एक आदेश जारी कर नए हिंदु मंदिरों के निर्माण पर रोक लगा दी। साथ ही निर्माणाधीन मंदिरों को गिराने का फ़रमान सुना दिया।
शाह जहाँ के बाद उसका पुत्र औरंगज़ेब (1659-1707) गद्दी पर बैठा। वह इसलामिक नियम-क़ायदों के मुताबिक सल्तनत चलाने के लिए कटिबद्ध था। उसका मानना था कि अकबर के समय हिंदु-मुसलमानों के बीच बने कामकाज़ी रिश्तों ने मुग़लिया सल्तनत को काफ़ी नुकसान पहुँचाया है। लिहाज़ा उसने व्यवस्था में अपने हिसाब से तब्दीलियाँ कीं। जैसे- समाज के आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज़ पर नज़र, नियंत्रण रखने के लिए गुण-दोष विवेचक (सेंसर) नियुक्त कर दिया। इसका काम उन मुसलमानों पर ख़ासकर निगरानी रखने और उन्हें दंडित करने का था, जो दूसरे धर्मों से सहानुभूति रखते थे। औरंगज़ेब ने राजाओं को सोने से तौलने (तुलादान) जैसी हिंदु परंपराओं पर रोक लगा दी। उसने पहले-पहल कुछ ही हिंदु मंदिरों को ध्वस्त किया। मगर 1669 में तो बाक़ायदा एक आदेश जारी कर दिया कि काफ़िरों (ग़ैर-मुसलिम) के सभी पूजा-स्थलों को ढहा दिया जाए। इसके बाद सैकड़ों ग़ैर-इसलामिक पूजा स्थल तोड़े गए। उसने 1679 में ही हिंदुओं पर जज़िया (कर) फिर थोप दिया। अन्य भेदभावपूर्ण कर भी लाद दिए। बादशाह के दरबार में पदस्थ सभी हिंदु पदाधिकारियों को हटा दिया। हालाँकि इससे अव्यवस्था पैदा हो गई, जिसके बाद कुछ हिंदु पदाधिकारियों को उनके पदों पर वापस लेना पड़ा। लेकिन उन पर लगातार दबाव बनाया कि वे इसलाम अपना लें। यही नहीं, औरंगज़ेब ने हिंदु समुदाय की आस्था से जुड़े मेलों आदि पर भी प्रतिबंध लगा दिया। जबकि ये मेले सिर्फ़ धार्मिक आयोजन नहीं थे, व्यापार और मनोरंजन के भी लोकप्रिय साधन थे।
स्वाभाविक तौर पर इस माहौल ने जनविद्रोह की भूमिका तैयार की और कई भारतीय राजाओं ने औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ खुली बग़ावत कर दी। वैसे, इस संबंध में कुछ भारतीय और ब्रिटिश इतिहासकारों का भी, मानना है कि ये विद्रोह असल में हिंदु संस्कृति के पुनरोत्थान के मक़सद से किए गए। लेकिन सच ये था कि हिंदु राजाओं की बग़ावत उनके अपने हितों के इर्द-ग़िर्द केंद्रित थी। बाग़ी हिंदु राजा वास्तव में, जब तक हो, मुग़लिया सल्तनत के मुनाफ़ों में हिस्सेदारी क़ायम रखना चाहते थे। शायद इसीलिए हिंदु पुनर्जागरण के ‘तथाकथित नायक’ कहलाने वाले राजा मुग़ल बादशाह के ख़िलाफ़ बग़ावत में मुसलिम शाहज़ादों की मदद लेने-देने से भी नहीं हिचके। यही नहीं, उनका व्यवहार भी हिंदु कृषक वर्ग के साथ मुसलिमों जैसा ही था। हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि बाग़ी राजे-रजवाड़े हिंदु परंपरावादी थे। लिहाज़ा इसी आधार पर उन्होंने दूसरे राजाओं को भी विद्रोह के लिए उकासाया। कवियों और लोकगायकों को हिंदु पुनरोत्थान-पुनर्जागरण के काव्य लिखने तथा गाने के लिए प्रोत्साहित किया। मगर सच फिर भी यही था कि उनकी बग़ावत सिर्फ़ उनके अपने हितों के लिए थी। क्योंकि एक बार अगर मान भी लें कि उनकी बग़ावत हिंदु प्रभुत्व की स्थापना के लिए थी, तो इसके लिए उन्हें मिल-जुलकर प्रयास करने चाहिए थे। लेकिन असल में ऐसा कुछ हुआ नहीं।
फिर औरंगज़ेब भी प्रशासकीय और सैन्य दोनों मामले में सक्षम शासक था। इसलिए वह तमाम विद्रोहों के बावज़ूद अपनी सल्तनत बरक़रार रख पाया। हालाँकि उसकी मौत के बाद मुग़ल सल्तनत का पतन शुरू हो गया। उसके उत्तराधिकारी बेहद अक्षम साबित हुए। इससे केंद्रीय सत्ता कमज़ोर हुई और सूबेदार बेलगाम। जाग़ीरदार, छोटे रियासतदार और बाग़ी भी बेख़ौफ़ हो गए। औरंगज़ेब का उत्तराधिकारी था, बहादुर शाह प्रथम। उसने किसी तरह अपने प्रमुख हिंदु शत्रुओं- राजपूतों, मराठों के साथ मुकाबले को टाला। जैसे-तैसे सल्तनत में शांति कायम रखी। लेकिन उसकी मौत के बाद तो जैसे मुग़ल सल्तनत को ढहने के लिए बस एक बड़े धक्के का इंतज़ार था। और उसे वह धक्का दिया, फारस की खाड़ी से आए शासक नादिर शाह ने। साल 1739 का था। वह जब आया तो उसे यहाँ किसी बड़े प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि कोई मुग़ल सूबेदार भी, दिल्ली के सुल्तान की मदद को तैयार नहीं था।
नादिर शाह ने मुग़लिया सल्तनत के केंद्र दिल्ली को तहस-नहस कर दिया। कहते हैं, उसे इस काम में महज़ नौ घंटे लगे। उस सूरत-ए-हाल को आँखों से देखने वाले बताते हैं, “पूरी दिल्ली लाशों के ढेर से पट गई थी। तमाम इमारतें आग के हवाले कर दी गईं थीं। लगता था जैसे दिल्ली कोई शहर न होकर जले खंडहरों का बड़ा सा मैदान हो।” पर चूँकि नादिर शाह को हिंदुस्तान में टिकना नहीं था। लूट-पाट ही करनी थी। सो, वह भारी मात्रा में लूट के माल के साथ अपने मुल्क (फारस) लौट गया। हिंदुस्तान की शान कोहिनूर और सुल्तान का तख़्ते-ताउस (मयूर सिंहासन) भी ले गया। जाते-जाते मुग़ल सल्तनत के ताबूत में आख़िरी कील भी ठोक गया।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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