अपरिग्रह : जो मिले, सब ईश्वर को समर्पित कर दो

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 8/2/2022

भगवान महावीर के पांच महाव्रतों में अंतिम महाव्रत है अपरिग्रह। बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और साथ ही कठिन। सम्भवत: इसी बात को ध्यान में रखकर सबसे अन्त में इसका उल्लेख किया है। सत्य बोलना, ब्रह्मचर्य का पालन करना किसी वस्तु का त्याग कर देना आसान है, अपरिग्रह के मुकाबले। तो चलिए! पहले अपरिग्रह को समझ लेते हैं कि ये है क्या?

भगवान महावीर कहते हैं कि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं। अपितु, वस्तु में निहित ममत्व-मूर्च्छा के त्याग को अपरिग्रह कहा है। मम अर्थात मेरा, त्व का अर्थ है भाव। मन में किसी के प्रति “यह मेरा है” ऐसा भाव होना ममत्व है। 

“सर्व भावेषु मूर्च्छायास्त्याग: स्यादपरिग्रह” अर्थात् सभी वस्तुओं के प्रति इच्छा का त्याग कर देना अपरिग्रह है।

किसी भी प्रकार की चीज के प्रति ममत्व भाव हो सकता है। जब तक जड़-चेतन, दृष्ट-अदृष्ट किसी भी वस्तु के प्रति मोह, लगाव, लालसा, तृष्णा, ममता, कामना बनी ही रहती है। तब तक मात्र बाह्य त्याग वस्तुतः त्याग नहीं कहा जा सकता। परिस्थितिवश विवश होकर भी किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति मन में रहने वाले ममत्व का त्याग नहीं हो पाता। यही ममत्व त्रास का, संत्रास का, दुःख का कारण है। यही ममत्व छोड़ना सबसे कठिन है। वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु के प्रति निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा और ऐसा किए बिना अपरिग्रह का पालन नहीं हो पाएग। इसी कारण भगवान महावीर ने संयमी साधकों के लिए परिग्रह का सर्वथा त्याग एवं गृहस्थ साधकों (श्रावकों) के लिए परिग्रह परिमाण व्रत बताया है।

इसी ममत्व के भाव का त्याग समत्त्व हो जाता है। निष्काम कर्म की भावना पैदा हो जाती है। जुड़ते रहकर भी अलग होना कितना सहज बना देता है। मात्र कर्त्तव्य भाव का होना हमें सरल बना देता है। इतना ही किसी से जुड़ना, जितने में अलगाव का कष्ट न हो। यही समत्त्व है। जब व्यक्ति लालसाओं को छोड़ देता है, तब सन्त हो जाता है। 

इसी को भगवान श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं – 

“प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।”

अर्थात्- ”जब व्यक्ति समस्त मनोगत लालसाओं या इच्छाओं को त्याग देता है तथा अपने भीतर ही अपने द्वारा तुष्ट वा तृप्त रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।”

इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि 

“रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।”

अर्थात्- ”जो इन्द्रियाँ रागद्वेष से मुक्त हैं तथा अपने ही निग्रह अथवा नियंत्रण में हैं, उनसे विषयभोग करते हुए (भी) ऐसा व्यक्ति जो कि (सत् एवं असत् के बीच विवेक करके) सही कार्य करता है, सहज प्रसन्नता को प्राप्त करता है।” 

भगवान ने प्रसन्न रहने का कितना सरल सूत्र दे दिया। फिर भी हम अपने हृदय में पीड़ाएँ लेकर घूमते रहते हैं। जैसे ही सम्यक ज्ञान हुआ पीड़ाएँ समाप्त हो जाती हैं। 

पातंजल योगदर्शन के साधनपाद में कहा है – “अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः”॥39॥ अर्थात् अपरिग्रह के स्थिर होने पर (भूत, वर्तमान, भविष्य) जन्मों तथा उनके प्रकारों का सही ज्ञान होता है। 

जब हम चीजें इकट्ठा नहीं करते, तब हमें पिछले जन्मों का और अलग अलग प्रजातियों का भी ज्ञान मिलने लगता है। हमारे भीतर के संवाद में स्पष्टता आती है। हम अपने यथार्थ रूप को जानने समझने लगते हैं।

सम्भवत: हमारे ऋषि इस विज्ञान को भलीभांति समझते थे। इसीलिए दान प्रतिदान की परम्परा का नियम बनाया होगा। जो मिले, वह बाँट दो। सब ईश्वर को समर्पित कर दो। यह समर्पण हमें ममत्व के भाव से मुक्त कर देता है। इसलिए दान स्वीकार करने वाले के प्रति देने वाला कृतज्ञ रहता था। 

हम धन्य हुए कि आपने दान स्वीकार किया। आपने मुझे ऋणमुक्त किया। दान देने से पूर्व संचित संस्कार से भी मुक्त हो जाते हैं। हमारा ममत्व भाव भी तिरोहित हो, हमें जितेन्द्रिय होने में सहायक होता है। हम अपरिग्रह के पथ पर अग्रसर हो उठते हैं। 

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 45वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
44. महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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