वह हमारी स्मृतियों में राेज ही जीवन्त हो जाया करती थी, जैसे आज फिर हो आई है!

नीलिमा पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 24/ 8/2020

आज यकायक माई की याद आ गई। इसीलिए उसकी स्मृति को डायरी में दर्ज कर रही हूँ। यही कोई 38 साल पहले की बात है। तब मैं बहुत छोटी थी। पाँच-छह साल की। स्कूल में नया दाखिला मिला था। बाबा के तबादले के साथ ही हम एक नए शहर में आए थे। बुलढाणा, जो महाराष्ट्र के पहाड़ों में बसा है। हमारा बड़ा कुनबा था। दादा, दादी, दो चाचा, हम तीन बच्चे। बाबा घर भी बनवा रहे थे। सो, माँ पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया था। तब वह बूढ़ी माई हमारे घर पहली बार आई थी। घरेलू कामकाज के लिए। कमर कुछ झुकी हुई। बाल काले, घुँघराले। उनका छोटा सा जूड़ा बना होता था। वह भील जाति से थी।

हमारे यहाँ वह बर्तन माँजती थी। रोज घर आते ही वह पहले दादी के पास बैठती। अपने सुख-दु:ख साझा करती। फिर घर के बाहर चौके में बर्तन माँजती। कभी-कभी जंगल से लकड़ी भी ला दिया करती। बदले में कुछ अनाज या जरूरत होने पर एक-दो रुपए ले जाती। वह माई एक ब्राह्मण परिवार के घर भी काम किया करती थी। वहाँ के बूढ़े पंडित जी से उसने एक शब्द सीख लिया था, ‘अन्नदाता सुखी भव:’। वो जमाना अलग था। पारम्परिक लोग भले ही अपने शुचिता के नियमों का निष्ठा से पालन करते थे लेकिन में समाज में आपसी प्रेम, लगाव और संवेदना भी पर्याप्त होती थी।

मानवीय सम्बन्ध तब ‘एक हाथ दे, दूजे हाथ ले’ वाले नहीं हुए थे। जब फसल अच्छी होती तो गृहपति से लेकर काम करने वालों तक सभी को उसका भाग मिलता। अकाल के समय सभी को एक-साथ संघर्ष करना होता था। घर-खेतों में काम करने वाले लोग घरेलू सदस्यों की तरह ही होते थे। घर के सुख-दु:ख की हर घटना के सहभागी होते थे। उनके घर का सुख-दु:ख उनके गृहपति के लिए भी अपने जैसा ही मामला होता था। माई का भी सब लोगों के साथ ऐसा ही सम्बन्ध था। वह अपना लोटा और थाली अपने साथ रखती और उसे दिया जाने वाला नाश्ता, खाना उसी में खाती।

श्राद्ध या त्यौहार के दिन माई को पहले बता दिया जाता तो वह भी सारे नियमों का पालन करती आती। ऐसे मौकों पर वह अपना सब काम समेट कर दोपहर दो बजे तक घर आती। माँ उसके लिए फिर कढ़ाई-तवा चढ़ाकर गरम-गरम बड़े, खीर या पूरणपोली खिलाती। दादी जो रोज माई को रोज आधा पान लगाकर देती थी, आज खाने के बाद पूरा पान देती। पान खाकर वह दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहती, ‘अन्नदाता सुखी भव:’। माई का परिवार हमारे घर के विस्तार की तरह ही था। खेतों से आने वाली वस्तुओं में उनका भी भाग होता था।

रविवार को बाबा बाजार जाते तो माई के लिए भी सब्जी, मसाला, धान्य आदि ले आते। इस तरह कई साल बीत गए। माई अब बीमार रहने लगी थी। इसलिए कभी-कभी काम पर नहीं आ पाती थी। जब माई नहीं आती तो उसकी बेटी आ जाती। वह विधवा थी और अपने बच्चों के साथ माई के साथ रहती। वह हमेशा माँ से कहती थी, “माई ने मुझे कहा है कि चाहे मुझे कुछ भी पैसा न मिले मैं तुम्हारा घर कभी न छोड़ूँ।” लेकिन तभी अचानक वह कुछ दिनों की छुट्‌टी पर चली गई। फिर जब लौटी तो उसने बताया, “माई चली गई। वह बीमार चल रही थी। एकादशी की सुबह वह नहाकर आई। झोपड़ी के बाहर आकर रोज की तरह सूर्य भगवान को पानी चढ़ाया और बैठ गई। बोली– अब मेरे चाय-पानी का खर्च बचेगा। मैंने कहा – क्या मुझे तुम्हारा चाय-पानी का पैसा भारी पड़ता है? तो माई बोली- अरे तुम्हें क्या लगता है, तुम मेरा खर्चा उठाती हो। (आकाश की ओर हाथ उठाकर बोली) मेरा खर्च ताे वो उठाता है। अब तुम अपना ध्यान रखना। फिर वह एक बल्ली के सहारे टिक कर बैठ गई और राम-राम करने लगी। मुझे आसार कुछ ठीक नहीं लगे तो मैं वैद्य काे बुलाने दौड़ी। लेकिन जब तक लाैटी, माई जा चुकी थी। किसी योगी की तरह भगवान का नाम लेते हुए। इस दुनिया से दूर।”

यह सूचना हमारे लिए भी बड़े धक्के की तरह थी। मुझे याद है, माई के इस दुनिया से जाने के बाद भी कई दिनों, महीनों, सालों तक वह हमारी स्मृतियों में करीब-करीब राेज ही जीवन्त हो जाया करती थी। जैसे- आज एक बार फिर हो आई है। उसके साथ ही पुराने दौर की कुछ स्मृतियाँ भी।
———

(नीलिमा गृहिणी हैं। मूल रूप से मध्य प्रदेश के उज्जैन की रहने वाली हैं। फिलहाल भोपाल में रह रही हैं। उन्होंने व्हाट्स ऐप सन्देश के जरिए अपना यह किस्सा #अपनीडिजिटलडायरी को भेजा है।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Apni Digital Diary

Share
Published by
Apni Digital Diary

Recent Posts

सरल नैसर्गिक जीवन मतलब अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी!

मानव एक समग्र घटक है। विकास क्रम में हम आज जिस पायदान पर हैं, उसमें… Read More

18 hours ago

कुछ और सोचिए नेताजी, भाषा-क्षेत्र-जाति की सियासत 21वीं सदी में चलेगी नहीं!

देश की राजनीति में इन दिनों काफ़ी-कुछ दिलचस्प चल रहा है। जागरूक नागरिकों के लिए… Read More

2 days ago

सवाल है कि 21वीं सदी में भारत को भारतीय मूल्यों के साथ कौन लेकर जाएगा?

विश्व-व्यवस्था एक अमूर्त संकल्पना है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम ठोस जमीनी वास्तविकता… Read More

3 days ago

महिला दिवस : ये ‘दिवस’ मनाने की परम्परा क्यों अविकसित मानसिकता की परिचायक है?

अपनी जड़ों से कटा समाज असंगत और अविकसित होता है। भारतीय समाज इसी तरह का… Read More

5 days ago

रिमोट, मोबाइल, सब हमारे हाथ में…, ख़राब कन्टेन्ट पर ख़ुद प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाते?

अभी गुरुवार, 6 मार्च को जाने-माने अभिनेता पंकज कपूर भोपाल आए। यहाँ शुक्रवार, 7 मार्च… Read More

6 days ago

ध्यान दीजिए और समझिए.., कर्नाटक में कलाकारों के नट-बोल्ट कसेगी सरकार अब!

कला, साहित्य, संगीत, आदि के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को समाज में सम्मान की निग़ाह… Read More

1 week ago