आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 16/10/2021

बहुत पुरानी बात है। बोलपुर (पश्चिम बंगाल) के स्टेशन पर आधी रात थी। छोटा सा स्टेशन और मुसाफ़िरख़ाने में सात-आठ यात्री इन्तज़ार कर रहे थे। झपकी ऐसी लगी कि मेरा सहयात्री मुझे जगाता रहा पर मैं नहीं जागा। वह चला गया, सदा के लिए। कुछ यात्राएँ कभी पूरी नहीं होतीं। वे भीतर ही भीतर चलती हैं। वे छोड़ती नहीं अपना दारुण्य और वैभव। 

सांगली (महाराष्ट्र) में भी ऐसी ही एक अधूरी कहानी छोड़कर आया। एक विदाई का दृश्य दिल दिमाग़ पर इतना हावी हुआ कि यंत्रवत सा स्टेशन आया और ग़लत ट्रेन में बैठ गया। ग़लती से पूना पहुँच गया। जीवन में गफ़लतें कभी पीछा नहीं छोड़तीं, इससे यह समझ बनी। ग़लतियाँ परेशान ज़रूर करती हैं पर ठोस और स्थाई सबक सिखाकर जाती हैं। 

एक बार गजपति से कालाहांडी (ओडिशा) जा रहा था। रास्ते में गाड़ी ख़राब हो गई। हम तीन लोग थे। मैंने पैदल चलना शुरू कर दिया। घने जंगल में ऊँचे पेड़ों को देखकर कौतुक हुआ। तब लगा कि ऊँचाई और सघनता को देखने से ज़्यादा महसूस करना महत्वपूर्ण है। कोई इतना ऊँचा और सघन कभी नहीं हो सकता कि हमें झीना कर दे, बौना बनाकर। नदियाँ क्यों बहाव के साथ बहती हैं, सोचने के बजाय उनके साथ खेलते हुए बहना ज़रूरी है। कोणार्क के पास चन्द्रभागा में समझा कि ऊँची लहरों से डरकर भागने के बजाय उन पर सवार होना ज़रूरी है। तभी हम निर्मलता, पारदर्शिता, संयम और हिम्मत क्या है, ये सीख सकेंगें। 

कोणार्क के मन्दिर पर गुम्बद नहीं रखा गया है। क़ायदे से वह सम्पूर्ण नहीं है पर आज भी कहते हैं कि सूरज की पहली किरण उस खंडित मन्दिर के भीतर पड़ती है। खजुराहो में राजा राम का भव्य मन्दिर सूनसान है। आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है। वह भी दर्शनीय हो सकती है। बशर्ते, इसमें कोई कहानी हो जो भीतर से भिगो दे। 

छत्तीसगढ़ के गरियाबन्द जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर एक विशाल पत्थर को शिवलिंग की विशालतम प्रतिमा कहते हैं। भोपाल के भोजपुर में भी यही सुनाा है। खजुराहो के मतंगेश्वर में भी यही देखा है। हो सकता है, सब सच हो। जनश्रुतियाँ हमें आस्था, सम्बल और भरोसा दिलाती हैं। यात्राएँ इस बात को पुख़्ता करती हैं कि मन के निर्जन में हम स्मृतियों का वृहद् संसार बुनते चलें। ताकि जब निविड़ एकांत में अवसाद से घिर जाएँ तो ये सब अपने भीतर झाँककर संचित सम्पदा को समझने का मौका दें। हम जीने को उन्मुख हो सकें। 

कोचीन (केरल) के समुद्र में एक बार स्टीमर डूबने को ही था। सबकी जान पर आफ़त आ गई थी। पर फिर लगा कि कुछ है, जो अभी शेष है। एर्नाकुलम के कोदमंगलम लौटकर आया तब लगा कि अपने हाथों कुछ घटित होना बाकी है। ख़त्म भी हो जाता तो कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। वे तीन माह जीवन के मुश्किल भरे थे। जैसे बहुत बाद में मराठवाड़ा के तुलजापुर में बीते। इतनी चुनौतियाँ थीं कि हर साँस में एक अनुभव होता और दर्जनों सीख मिलती। अन्त में यही सीखा कि जीवन को समझा नहीं जिया जाना चाहिए। 

पंढरपुर की नदी और किनारे बने विट्ठल और रखुमा बाई की मूर्तियों को देख समझा कि क्यों इतना बड़ा वारकरी समुदाय उनमें अपना सर्वस्व खोजता है। या फिर क्यों गोंदवलेकर महाराज के मन्दिर में लगे पेड़ पर आस्था ज़्यादा है, बनिस्बत उनकी मूर्ति के। 

अपने कर्मों की सज़ा और प्रायश्चित तब ख़त्म होंगे, जब हम सिर्फ़ जो हो रहा है, उसे होने दें। नदी को, हवा को, गति को बहाव के विरुद्ध न मोड़ें। एक नवांकुर जाहिर है, सूरज की ओर मुड़कर ही वृद्धि कर सकता है। हम बोन्साई बनाएँगे तो वह बढ़ेगा तो सही पर अपने सम्पूर्ण आकार को नहीं प्राप्त कर सकेगा। 

हम सब जीवन को जीने के बजाय समझना चाहते हैं। जबकि यह कभी भी सम्भव नहीं है। हम एकांत से उकताकर भागना चाहते हैं पर एकांत के आनन्द को महसूस करना नहीं चाहते। हम हर उस चीज को मोड़ना चाहते हैं, जो अपनी गति से एक निश्चित दिशा में बहाव के संग बह रही है, क्योंकि हम सच देखने के आदी नहीं हैं। हमें क्षणभर के भंगुरमय जीवन को ऐतिहासिक एवं अमर करने का, यशस्वी बनाने का गहरा और बड़ा लोभ है। अपने भीतर के ययाति को मारे बिना सभी प्रकार की वासनाओं से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इसके लिए जीवन को जीना होगा, समझने के बजाय। मैं यह बार-बार इसलिए कह रहा हूँ कि हम सब जीने का जतन करते हैं, दिखावा करते हैं, मग़र जीते नहीं हैं। 

तमाम तरह के दुख, अवसाद, चिन्ताएँ, तनाव, धन, यश, प्रतिष्ठा और वर्जनाओं का बोझ लिए हम हर रोज जीने के बज़ाय मरने का उपक्रम करते हैं। एक दिन जब सब कुछ छूटने लगता है तो निस्पृह होकर त्याग और समर्पण की बात करने लगते हैं। मुक्ति की कामना में नश्वरता नज़र आने लगती है। तब तक वस्तुतः हम अपने आपको खो चुके होते हैं। जीवन को आनन्द से न जी पाने का प्रायश्चित्त सालता है। इसलिए मुझे लगता है हमें जीने का अभ्यास करना होगा। जब यह सीख जाएँगे तो कौशल, ज्ञान और दक्षता अपने आप सध जाएगा, जिससे जीने की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो सकेंगी। अन्तत: हमें चाहिए ही क्या और कितना, यह हमने अभी सीख ही लिया है इस आपदा (कोरोना) में। 

मरने की कामना में ही जीने की कला समाहित है। जिसने यह समझ लिया वो भरपूर जी लिया। 

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 32वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :  
31वीं कड़ी : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30वीं कड़ी : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29वीं कड़ी : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28वीं कड़ी : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27वीं कड़ी :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26वीं कड़ी : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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