टीम डायरी
अहम मौक़ों पर अक़्सर हम ख़ुद को दोराहे पर खड़ा पाते हैं। क्या करें, क्या न करें? क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए? ऐसे तमाम सवाल हमारे ज़ेहन में होते हैं। लेकिन उन सवालों के सही-सही ज़वाब हमें ज़ेहन से नहीं मिलते। बल्कि ज़मीर से, अन्तरात्मा से मिलते हैं। हालाँकि इसके बावज़ूद बहुत से लोग अपने दिमाग़ के सुझाए रास्ते पर चलते हैं। इससे उन्हें ख़ुद के स्तर पर कुछ फ़ायदे ज़रूर हो जाते होंगे। लेकिन लम्बे दौर में एक आलातरीन इंसान के तौर पर उनके रुतबे, उनकी इज़्ज़त को यक़ीनी तौर पर चोट पहुँचती है। इससे ठीक उलट जो अपनी अन्तरात्मा की सुनकर उसके दिखाए रास्ते पर चलते हैं, तारीख़ के किसी न किसी कोने में उनकी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई भी पुख़्ता हो जाती है। वे अपने वक़्त के नायक हो जाते हैं।
अपनी डिजिटल डायरी (#ApniDigitalDiary) के पॉडकास्ट ‘डायरीवाणी’ (#DiaryWani) में इसी से जुड़ी दो मिसालों की कहानी बताई गई है। सुनिएगा।
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