संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 7/8/2021
मेरे कमरे में जब सुबह धूप आती है, तो बहुत गुनगुनी होती है। दोपहर तक परवान चढ़ती है और शाम फिर ठंडी पड़ने लगती है। लगता है जीवन में दुःख यूँ ही आते हैं।
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शाम का तापमान कभी एक समान नहीं देखा मैंने अपने जीवन में। जबकि सुख और दुःख हर दिन समान थे। एकदम किसी अटल पहाड़ के समान। सुरंगें अक्सर उजालों भरी ही होती हैं। असल में हमें उस पार उजाला देखने के भ्रम सिखा दिए गए हैं।
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ज़िन्दगी लम्बी या बड़ी नहीं होनी चाहिए। बस, अभी जो है, वैसी ही होनी चाहिए। अपने पूरे आकार और स्वरूप में। ताकि जो साँस अन्दर जा रही है, उसके साथ ही इसे आत्मसात कर सकें। पता नहीं हम अगली साँस में हों न हों।
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मैं कुछ और हूँ, पर होना कुछ और चाहता था। ‘कुछ और होने’ और ‘हूँ’ के बीच की लड़ाई जारी है।
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नदियों, तालाब, समुद्र और बादलों का वही रिश्ता है, जो हमारी इन्द्रियों का आपस में है। बस, निर्भर करता है कि कौन पानी को मीठा, कड़वा या खारा बना कर संचित रख पाता है या कलकल बहने देता है। उद्दाम वेग से या प्रचंड गर्जना के साथ लहरों में बदल देता है।
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मुझे फिल्में बहुत पसन्द हैं कि वहाँ गम्भीरता नहीं है। और जो गम्भीर है, वह समानान्तर है। इतिहास के एक कोने में अलग संरक्षित कर दिया गया है उन्हें। अपना जीवन क्यों अलग रखना। अलग-थलग सा। यह सीखा जाना चाहिए।
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मौत, जीवन; मौत, जीवन; मौत, जीवन और इस सबके बीच की लड़ाईयाँ, द्वंद्वों का समुच्चय और फिर एक कोष्ठक में सबको झोंककर किसी ऐसी सँख्या से गुणा कर दो या भाग लगा दो कि प्रतिफल शून्य ही आए।
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कहने से डरो। बात करने से डरो। चुप रहने से डरो। इसलिए इतना बोलो, इतना कि तुम्हारी आवाज़ हर जगह दर्ज़ हो जाए और कोई सुने तो उसे दहशत के मारे नींद न आए और वह मौत की कल्पना करने लगे।
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सब कुछ कह देने से सब कुछ साफ़ और स्पष्ट नहीं हो जाता। बल्कि कुछ न कहने से ही जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है।
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अपनी कामनाओं और हवस को इतने कौतुक से मत देखो। ये अनन्तिम हैं। शाश्वत और सनातन भी और जिसने भी यहाँ जन्म लिया है, वह इनके पार होकर ही पार पहुँचा है। इसलिए औचक बनो और इन्हें प्यार से निहारो। इनके लिए प्राणों की बाज़ी लगा दो कि जीवन फिर न होगा।
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मनुष्य होना बड़ी बात नहीं। बड़ी बात है, कुछ होकर मनुष्य के रूप में एक दिन मर जाना। जाओ तुम्हें मैं आज अभयदान देता हूँ कि मनुष्य होने के बजाय कुछ होने में जीवन लगा दो।
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अपने आप में हम सब अकेले हैं। इतने कि कभी-कभी ही नहीं, बहुधा हम अपने आप से ही डर जाते हैं। पर यही डर हमें आगे बढ़ाता है और उन अभेद्य किलों पर जीत दिलवाता है, जिन्हें संसार सुख या सफलता कहता है। इसलिए डरो इतना कि एक बिल्ली की आँख देखकर तुम्हें हृदयाघात हो जाए।
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एक चींटी भी सम्पूर्ण आयु में लालच से आमुख होकर अथक चलती है। बतियाती है और हमेशा एक शक्कर के दाने के लिए बेचैन रहती है। हम तो मनुष्य हैं। हमारा प्रारब्ध भव्य और विराट है। इसलिए यदि कोई कपट, लालच या संग्रह करता है तो उसे आदर्श मानो और अनुसरण करो।
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देने को मेरे पास श्राप है। सुनाने को कहानियाँ और बाँटने को सस्ते किस्म के अनमोल दुःख। यदि तुम्हें चाहिए तो मेरी कुटी में उग रहे इन सबके नवांकुर ले जा सकते हो। ले जाओ और उन्हें बो दो जहान में हर जगह, ताकि वे वटवृक्ष बनें। सुन लो मित्र! फूलों का जीवन एक दिन ही होता है और सुवास भी क्षणिक ही अच्छी लगती है।
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मरना सबको है। जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, वह मर जाएगा।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 22वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
मेरे प्यारे बाशिन्दे, मैं तुम्हें यह पत्र लिखते हुए थोड़ा सा भी खुश नहीं हो… Read More
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