महाकवि शूद्रक के कालजयी नाटक पर विशेष श्रृंखला।
अनुज राज पाठक, दिल्ली से
चांडालों के साथ चलते हुए सैनिक चारुदत्त को बाँधकर श्मशान की तरफ ले जाते हैं। मार्ग में चांडाल चारुदत्त से जानना चाहते हैं कि उसे श्मशान क्यों ले जाया जा रहा है। चारुदत्त अपने भाग्य के गति-चक्र को कारण बताता है। साथ ही मनुष्य के भाग्य की परिवर्तनशीलता को कोसता हुआ, दुःखी होकर चल रहा है। सामने उसे देखने आई नगर की भीड़ को देखकर वह दुःखी होते हुए कहता है, “ये नगरवासी मुझे बचाने में असमर्थ हैं। लेकिन यह कहकर कि ‘वैकुंठ प्राप्त करो’ मुझे सांत्वना दे रहे हैं।”
चांडाल नगरवासियों को दुःखी देखकर कहता है, “मार्ग की धूल नगरवासियों के आँसुओं से गीली होने के कारण उड़ नहीं रही है।” ऐसा कहते हुए फिर नगर के बीच चारुदत्त को लाकर घोषणा करता है, “इस चारुदत्त ने तुच्छ धन के लालच में वसंतसेना को मार डाला। अब राजा पालक की आज्ञा से इसे शूली पर चढ़ाया जाएगा।”
घोषणा सुनकर चारुदत्त चारों तरफ देखता हुआ कहता है, “मेरे मित्रगण दूर भागे जा रहे हैं। सुखी व्यक्ति के शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वहीं दु:ख में मित्र भी शत्रु।” (अमी हि वस्त्रान्तनिरुद्धवस्त्राः प्रयान्ति मे दूरतरं वयस्याः। परोऽपि बन्धुः समसंस्थितस्य मित्रं न कश्विद्विषमस्थितस्य।) संसार में सुखी व्यक्तियों के सभी शुभचिंतक होते हैं, किंतु दु:ख में पड़े व्यक्ति का शुभचिंतक दुर्लभ होता है (सर्वः खलु भवति लोके लोकः सुखसंस्थितानां चिन्तायुक्तः।विनिपतिताना नराणां प्रियकारी दुर्लभो भवति।)
ऐसा कहता हुआ चारुदत्त चांडालों से अपने पुत्र रोहसेन को देखने की इच्छा व्यक्त करता है। फिर पुत्र को देखकर करुणा के साथ कहता है, ‘पुत्र तुम्हें क्या दूँ? मेरे पास तो आज कुछ भी शेष नहीं है।” इसके बाद अपने शरीर पर पड़े जनेऊ पर दृष्टि डालकर कहता है, “पुत्र यह जनेऊ बिना मोतियों का, बिना सोने का बनाया ब्राह्मणों का आभूषण है। इससे देवताओं और पितरों को भाग प्रदान किया जाता है। (अमौक्तिकमसौवर्णं ब्राह्मणानां विभूषणम् , देवतानां पितृणाञ्च भागो येन प्रदीयते।) इसे ले लो।”
एक चांडाल : चारुदत्त! चलो अब
दूसरा चांडाल : अरे! तुम बिना उपाधि के आर्य चारुदत्त का नाम ले रहे हो? देख रहा हूँ, बुरे समय में नियति अपनी गति से स्वच्छंद नवयुवति की तरह निश्चित रूप से मन चाहे के पास चली जाती है (अभ्युदयेऽवसाने तथैव रात्रिन्दिव महतमार्गा। उद्दामेव किशोरी नियतिः खलु प्रतीष्टं याति।)
इधर पिता को बँधा देखकर विलाप करते हुए रोहसेन से एक चांडाल कहता है, “हम चांडाल कुल में जन्म लेकर भी चांडाल नहीं हैं। जो अकारण सज्जनों को पीड़ित करते हैं, वे ही चांडाल हैं।”
रोहसेन : तो फिर मेरे पिता को कौन मार रहा है।
चांडाल : राजा की आज्ञा है। इसमें हमारा कोई दोष नहीं।
रोहसेन और विदूषक इसके बाद चांडाल से कहते हैं कि चारुदत्त की जगह उन्हें मार दिया जाए और फिर विलाप शुरू कर देते हैं।
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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