देखिए, कैसे अंग्रेजी ने मेरी तरक़्क़ी की रफ्तार धीमी कर दी !

निकेश जैन, इन्दौर मध्य प्रदेश

मैंने एक हिन्दी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई की और इसका मुझे गर्व है।

साल 1979 की बात है। तब मेरे माता-पिता के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वे किसी कॉन्वेन्ट स्कूल की फीस ज़मा कर सकें। वहाँ हर महीने 300 रुपए फीस लगती थी तब। इसलिए उन्होंने मेरा दाख़िला इन्दौर के एक सरकारी स्कूल में करा दिया। वहाँ फीस कितनी थी? कोई अनुमान? सालभर में सिर्फ़ 42.25 रुपए। इतने में स्कूल में दो बार खाना भी दिया जाता था। बड़ा अच्छा और जाना-माना स्कूल था हमारा। शिक्षक भी बहुत अच्छे थे। मैं पढ़ने-लिखने में ठीक था, इसलिए मेरी नींव बहुत बढ़िया तरीक़े से तैयार हो गई।

लेकिन पढ़ाई के दौरान एक समय ऐसा आया, जब मुझे लगा (शायद छठवीं या सातवीं की बात होगी) कि ज़िन्दगी में आगे बढ़ना है, तो अंग्रेजी सीखना बहुत ज़रूरी है। हमारे देश से अंग्रेज चले गए, लेकिन वे अपनी भाषा यहीं छोड़ गए। और कुछ इस तरह छोड़ गए कि अब उनकी भाषा हमारे देश में, हमारी ही तरक़्क़ी के लिए ‘अतिआवश्यक’ मान ली गई है। ‘अभिजात्य’ वर्ग की भाषा, रुतबे का प्रतीक हो गई है। 

ख़ैर, इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तभी हमारे स्कूल में ‘हायर इंग्लिश’ के नाम से नया विषय पढ़ाया जाने लगा। मैंने बिना देर किए वह विषय ले लिया। बस, यहीं से मेरा संघर्ष शुरू हो गया। मेरी पढ़ाई अब तक पाँचवें गियर में चल रही थी। लेकिन इस नए विषय के साथ आते ही वह पाँचवें से दूसरे गियर में आ गई। इतना ही नहीं, पहली बार मैं किसी इम्तिहान में फेल तक हो गया। 

यह मेरे लिए बड़ा झटका था। वह तो मेरी ख़ुशक़िस्मती रही कि जिस परीक्षा में मैं फेल हुआ, वह छमाही थी। इस वज़ह से मुझे वार्षिक परीक्षा में अपना परिणाम सुधारने का मौक़ा मिल गया। लेकिन उस झटके ने ही मेरी आँखें खोल दीं। मुझे समझ आ गया कि अपनी अंग्रेजी ठीक करने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी होगी। वह मैंने की भी। पूरे चार साल तक इसके लिए मैंने क्या-क्या पापड़ बेले, मैं बता नहीं सकता। जो बन पड़ा, सब किया। वह भाषा, जो मेरी अपनी नहीं थी, उसे अपनाने के लिए मैंने जो कष्ट झेला उसे मैं भूल नहीं सकता। 

हालाँकि, अच्छे नम्बरों से 12वीं पास करने बाद मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा भी निकाल ली। यहाँ मुझे लगा कि ज़िन्दगी में अब सब ठीक है। लेकिन मेरा सोचना ग़लत साबित हुआ। इंजीनियरिंग के तीसरे साल में मुझे पता चला कि आगे अभी ‘इन्टरव्यू’ जैसी भी कोई चीज़ होती है। उसमें कम्पनियों के नुमाइन्दे सिर्फ़ अंग्रेजी ही बोलते-सुनते हैं। अब इस समय तक मैं अंग्रेजी बोलने तो लगा था, लेकिन टूटी-फूटी। सो, अब मैंने ‘स्पोकन इंग्लिश’ की कक्षा में अलग से जाना शुरू किया। सुबह-सुबह जाया करता था। एक नया संघर्ष शुरू हो गया अब।  

किसी तरह बोल-चाल वाली अंग्रेजी सीखी। कॉलेज में कम्पनियों के नुमाइन्दे इन्टरव्यू लेने आए। मैंने भी दिया। हालाँकि वहाँ मैंने थोड़ी सूझ-बूझ दिखाई और अंग्रेजी के बज़ाय ‘सी’ लैंग्वेज अधिक बोली, जो कंप्यूटर की दुनिया की एक अलग भाषा होती है। अंग्रेजी के साथ अब तक भी मैं बहुत सहज नहीं हो पाया था। बहरहाल, मेरा चयन हो गया। और नौकरी के लिए मैं अमेरिका चला गया। पर वहाँ पहुँचकर मुझे पता चला कि अब ‘अमेरिका वाली अंग्रेजी’ सीखनी पड़ेगी। क्या करता? वह भी सीखी। इस तरह, भाषा से मेरा संधर्ष जारी रहा। 

इसीलिए मुझे कई बार यह अनुभव हुआ, और मैं मानता भी हूँ कि अंग्रेजी ने मेरी तरक़्क़ी की रफ़्तार को निश्चित रूप से धीमा किया। क्योंकि स्कूल के समय से लेकर अमेरिका पहुँचने तक, जितना समय मैंने इस ‘विदेशी भाषा’ को सीखने में लगाया, उसी वक़्त का कहीं मैं कुछ और बेहतर इस्तेमाल कर सकता था। ख़ैर, जो हुआ, सो हुआ। लेकिन जब मैं ख़ुद विभिन्न कम्पनियों में काम करते हुए वरिष्ठ पदों पर पहुँचा, तो नए लोगों का साक्षात्कार लेते समय मैंने भाषा को एहमियत नहीं दी। ख़ास तौर पर अंग्रेजी बोलने को तो बिल्कुल भी नहीं। 

मैंने विषय, जो हमारे लिए सॉफ़्टवेयर रहा, की जानकारी रखने वालों को तरज़ीह दी। उन्हें ही चुना। साक्षात्कार के दौरान जब भी मैंने देखा कि कोई हिन्दीभाषी युवक अंग्रेजी बोलने में अटक रहा है, मगर उसे अपने विषय की अच्छी जानकारी है, तो मैं तुरन्त उससे हिन्दी में बात करना शुरू कर देता था। मेरा यह नुस्ख़ा सफल रहा और मुझे अपनी टीम के लिए कई अच्छे प्रतिभाशाली लोग मिले, जो अंग्रेजी कम जानने की वज़ह से शायद हाथ से छिटक भी सकते थे। इसीलिए मेरा अन्य कम्पनियों में ऊँचे पदों पर बैठे लोगों को एक सुझाव भी है। 

सुझाव ये कि साक्षात्कार और बैठकों के दौरान लोगों को उनकी अपनी भाषा में बात रखने का मौक़ा दें। उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करें। यही वह तरीक़ा है, जिससे हम प्रतिभाओं के साथ सही न्याय कर सकेंगे। उनका सही आकलन और उपयोग कर सकेंगे। और आजकल तो तमाम ऐसी एप्लीकेशंस और टूल्स भी हैं, जिनकी मदद से किसी भी भाषा में बोली गई बात को, वहीं मौके़ पर अपनी सुविधा की भाषा में सुना जा सकता है। जैसे- भारत सरकार का ‘भाषिणी एप’, जो विभिन्न भाषाओं का ‘रियलटाइम अनुवाद’ कर के सुना देता है।

तो फिर अब संकोच कैसा? याद रखिए, हम भारत के लोगों में प्रतिभा की कमी नहीं है। इसे हम सिर्फ़ एक भाषा के प्रति अपने मोह की वज़ह से अनदेखा नहीं कर सकते। मानते हैं कि नहीं?

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निकेश का मूल लेख 

मैं एक हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ा हूँ – And I take pride in that! 😎

Year 1979 – My parents didn’t have money to admit me to a convent school which would cost them around Rs. 300 per month that time so I was admitted to a government school in Indore.

What was the fee? Rs. 42.25 per year!! Including two meals 😊

It was a well known school with amazing teachers and because of that my subject knowledge foundation was getting built in a nice way.

But at one point in time (I think around 6th or 7th grade), I started realizing that this language called ‘English,’ which the British forgot to take with them, is really important for us to progress in society!

It was considered a language of elite; a language of status 🤔

Luckily or unluckily, in 9th grade my humble Hindi medium school was also offering a “higher English” stream and I opted for it.

And my struggle started – my learning which was in 5th gear suddenly dropped to 2nd gear. So much so that – first time in my life I flunked an exam!😞

It was a rude shocker. Luckily it was a half yearly exam so I had time to recover. But that turned out to be an eye opener and after that I did everything possible to work on my English. I can never forget that painstaking effort of 4 years to catch up on a skill which was not natural to me.

Anyways, passed 12th and cleared the engineering entrance exam as well. I thought life is set now….

But soon in 3rd year of engineering I realized there is something called “interview” and companies only speak English! My spoken English was okay but not fluent!

Another struggle started – this time for “spoken” English. Joined some early morning spoken English classes and caught up on “communication” skills..

The campus interview was fine. Fortunately, I spoke more “C” language than English language in the interview and got selected.

I moved to US and now I had to learn American lingo like “No Ice” or “No meat” or “brown bread” so my learning continued 😂

English language definitely slowed down my progress for few years and I ended up putting a lot of extra effort which could have been used for more useful things.

During my corporate days when I interviewed people, I would not pay a lot of attention to their English skills. I would give a lot of importance to subject knowledge which was software. Many a times if I saw candidates struggling in English, I would turn the conversation in Hindi – in a subtle way.

If you are in a decision making position then please encourage people to express themselves in a language of their choice during interviews or in meetings. That’s the only way you can check their real potential.

Indian talent has so much potential and we must not ignore it just because of language!

Agree? 

——- 

(निकेश जैन, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख अपेक्षित संशोधनों और भाषायी बदलावों के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने इसे लिंक्डइन पर लिखा है।)

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30 – हिंडेनबर्ग रिपोर्ट क्यों भारत के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा हो सकती है?
29 – ‘देसी’ जियोसिनेमा क्या नेटफ्लिक्स, अमेजॉन, यूट्यूब, जैसे ‘विदेशी’ खिलाड़ियों पर भारी है?
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