“अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 8/6/2021

भगवन बुद्ध ने दु:ख को पहला सत्य बताया। बड़े अद्भुत हैं बुद्ध। बहुत लम्बी-चौड़ी बात नहीं करते। एक शब्द में बता दिया कि समस्या क्या है। 

ये दुःख क्या है? इसके उत्तर से पहले केन्द्र की बात करते हैं। केन्द्र क्या है? केन्द्र है मन, जिसे बुद्ध “चित्त” कहते हैं। मन दुःखी जग दुःखी। मन खुश, जग खुश। जन्म लेते ही ये मन अपना काम शुरू कर देता है। जन्म लिया और रोना शुरू। रोना क्यों? क्योंकि परिस्थितियाँ बदलीं। तो, इस तरह एक एक वाक्य में कहा जाए तो ‘मन के प्रतिकूल जो हो, वह दुःख है’। और प्रतिकूलताएँ तो जीवन के पग-पग पर हैं। इसीलिए बुद्ध जन्म को ही दु:ख कहते हैं। क्योंकि व्यक्ति जन्म लेते ही परिस्थितियों को प्रतिकूल पाता है और दुःखी होना प्रारम्भ कर देता है। यही प्रतिकूलता दुःख है।

प्रतिकूलताओं के बीच जीवन के उदाहरण अभी ताज़ा हैं। जैसे कि आज कोरोना ने न जाने कितने अपने अपनों से छीन लिए। अकाल ही कालकवलित हो गए। यही नहीं जो जीवित हैं, उनमें से बहुतों के रोजगार छिन गए। बहुतों का घर उजड़ गया। या और तमाम परेशानियों, प्रतिकूलताओं से दो-चार हुए। अनेक जनों ने तो लोगों की सेवा-सुश्रुषा करते हुए अपने जीवन की आहुति दे दी। ऐसे तमाम लोग, उनके परिवार, सम्बन्धीजन सब दु:खी हैं। स्वाभाविक भी है। 

 

हम आप सभी ने कालान्तर में अपने अपनों को, सम्बन्धियों को कभी न कभी ऐसे कष्टों में देखा है। उनके साथ हमने कष्ट बाँटने का प्रयास किया होगा। जब हम उनके दुःख से एकाकार हो सके, तो उस परिस्थिति में भी कुछ सुखद अनुभिति हुई होगी। उनकी प्रतिकूलताओं में उनके अनुकूल हो पाने, साथ खड़े हो पाने की। पर वहीं जब कष्ट में अपनों के साथ नहीं रह पाते, सहयोग नहीं कर पाते तो वह दोहरी प्रतिकूलता दुःख में घनीभूत हो उठती है। 

सो, अब सवाल ये उठता है कि ऐसी तमाम प्रतिकूलताओं का, दु:खों का निवारण क्या? क्योंकि शान्ति, अनूकूलन तो सब को चाहिए। तो उत्तर ये हो सकता है कि प्रतिकूलताओं को शान्तिपूर्वक सह लेने की अपने में सामर्थ्य पैदा कर लेना ही मुक्ति है। अनूकूलन है। शान्ति है।

एक प्रसंग है। कोई सेठ जी सन्त के पास आते हैं। कहते हैं कि मेरे पास नगर में सबसे ज्यादा धन, सम्पत्ति, वैभव है। लेकिन मैं इसी चिन्ता में रहता हूँ कि इसे कैसे और बढ़ाया जाए। मेरी इस चिन्ता का उपाय बताइए। इस पर सन्त बोले, “एक शर्त पर बताऊँगा।” सेठ जी कहते हैं कि क्या शर्त है? सन्त सेठ जी को पाँच दिन अपने आश्रम में मौन रहने को कहते हैं। वे पाँच दिन मौन के सेठ जी के जीवन मे क्रान्ति ला देते हैं। अब सेठ जी को उत्तर खुद मिल जाता है। 

कहते हैं, व्यक्ति जब मौन हो जाता है तो वह अपने अन्दर खुद को देख पाता है। वहाँ, उन सभी प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं, जो दिमाग में चल रहे होते हैं। उत्तर मिलते ही मन शान्त। मन शान्त, चिन्ता शान्त। और दुःख भी शान्त।

इसीलिए बुद्ध कहते हैं “अपने प्रकाशक खुद बनो”। इसका अर्थ क्या है? इतना ही कि अपने अन्दर झाँको। झाँककर देखो। मौन होकर, शान्त रहकर। ऐसा कर पाए तो दुःख, दुःख के कारण और निदान के उपाय दिख जाते हैं।

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 14वीं कड़ी है।)

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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?

12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन

11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?

10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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