कृतज्ञता हमें वास्तव में मानवीय बना देती है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

पिता जी के जब पैर छूता हूँ, तो वे कहते हैं ‘खुश रहो’।

वैसे कभी नहीं पूछा कि ‘आप ‘खुश रहो’ क्यों कहते हो? ‘आयुष्मान भव’ ‘विजयी भव’ का आशीष ही बड़ों के मुख से सुना था। प्राय: पढ़ने में भी यही आशीर्वचन आते हैं। लेकिन ‘खुश रहो’ बड़ा दुर्लभ-सा आशीर्वचन है। हालाँकि अब इस आयु में आकर सोचता हूँ, तो पाता हूँ कि खुश रहना ही सबसे कठिन है। आप ‘विजयी भव’ का आशीष पाकर विजयी हो सकते हैं। लेकिन विजय पाने के बाद जरूरी तो नहीं कि आप खुश ही हों। महाभारत में युधिष्ठिर सभी आचार्यों से विजय का आशीष पाकर विजयश्री पा लेते हैं। फिर भी पश्चाताप की पीड़ा से पीड़ित रहे।

ऐसे ही जहाँ तक लम्बी आयु के आशीर्वाद भी बात करें तो केवल लम्बी आयु भर हो और खुशी न हो तो उसका क्या ही लाभ? वैसे, कोई यहाँ यह भी सोच सकता है कि ये सब कहाँ की पुराने ज़माने की आशीर्वाद की बात लेकर बैठ गया। आज कौन किसे आशीर्वाद दे और ले रहा है।

वैसे भी एक श्लोक में आशीर्वाद से आयु, विद्या, यश और बल कामना सम्बद्ध मानी गई है (अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मो यशो बलम्)। और आज हम धन तथा सफलता के अलावा इन सब चीज़ों को चाहते ही कहाँ हैं। और इसी तरह की कामना के वशीभूत मैंने अपने अग्रज से भी अभी कुछ दिन पहले ऐसी ही कुछ अपेक्षा की। क्योंकि वे वैष्णोदेवी की यात्रा पर जा रहे थे।

मैंने कहा, “माता से मेरे लिए आशीर्वाद की कामना कर देना।” इस कामना में अपने लिए माँगा तो आशीर्वाद ही था। लेकिन ज़वाब में जानते हैं, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा “भाई! मैं कुछ नहीं माँगूंगा। मैं तो बस ‘कृतज्ञता ज्ञापन’ की वार्षिक यात्रा पर जा रहा हूँ। जो प्राप्त है, पर्याप्त है।” और मैं निरुत्तर हो गया। दरअसल, मुझे भी यह ‘कृतज्ञता’ बड़ा ही सुन्दर शब्द लगता है। जैसे ही हम किसी के प्रति कृतज्ञ हुए, अहम् से मुक्त हुए। यह कृतज्ञता हमें वास्तव में मानवीय बना देती है।

भारतीय संस्कृति में यही कृतज्ञता प्रत्येक कार्य में दिखाई देती थी। जब भी हम प्रकृति से कुछ लेते हैं, तब प्रकृति के प्रति कृतज्ञता भाव से उसके संरक्षण की कामना के साथ साथ प्रयास भी करते हैं। इसी भाव को समेटते हुए विविध वनस्पतियों को माता के रूप पूजना अर्थात् संरक्षण की व्यवस्था बनाई गई थी। यही कृतज्ञता आशीर्वाद देने वाले के प्रति भी होना, आशीर्वाद को फलीभूत करता है।

दुर्योधन श्रीकृष्ण से युद्ध में सहायता अहम् भाव से माँगता है। उसे सिर्फ सेना मिलती है, विजय नहीं। अर्जुन कृतज्ञभाव से आशीर्वाद माँगते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण मिलते। जहाँ श्रीकृष्ण, वहाँ विजय/सफलता/कल्याण सुनिश्चित है। कारण आशीर्वाद के प्रति कृतज्ञता के कारण आशीर्वाद निश्चित फलीभूत हुआ। वस्तुत: आशीर्वाद में आशीर्वाद पाने वाले मन में कृतज्ञता का भाव होना आवश्यक है। बिना कृतज्ञता के प्रार्थना आशीर्वाद दोनोें ही निष्फल हैं।

इसीलिए मैं आज अपने अग्रज और आप सभी के प्रति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ, जो मुझे कृतज्ञ होने के महत्त्व को सहज रूप से आत्मसात कराने में सहायक हुए।

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Neelesh Dwivedi

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