टीम डायरी, 6/6/2021
एक छोटी सी कविता। बड़ा सा विचार। ये बताता है कि ख़ुशी की तलाश में भटकते हम दरअसल उसे अपने नज़दीक देख नहीं पाते। महसूस नहीं कर पाते।
बड़ी-बड़ी चीजों में उसे ढूँढ़ते रहते हैं। पूरी ज़िन्दगी इस तलाश में खपा देते हैं। लेकिन जब भी कभी मिलती है तो बेहद छोटी-छोटी सी चीजों में। कम वक़्त के लिए।
जब भी मिलती है तो छोड़ने का मन नहीं होता। लेकिन बड़ी चीजों में तलाशने का हमारा भ्रम, दुविधा और मृगतृष्णा हमेशा उसे हमेशा हमसे दूर ले जाता है।
और हम… बस, तलाशते रह जाते हैं। सहेज नहीं पाते।
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(भोपाल, मध्य प्रदेश की वैष्णवी द्विवेदी को यह कविता कहीं से हाथ लगी। उन्हें अच्छी लगी, तो उन्होंने पढ़ दी। रिकॉर्ड कर दी और वॉट्सएप सन्देश के मार्फ़त #अपनीडिजिटलडायरी को भेज दी। ताकि डायरी के बाकी सदस्य भी इस ‘खुशी’ से दो-चार हो सकें। )
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