समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
घर के सामने रहने वाली पांडे ताईजी ने रोज की तरह सुबह उठकर घर के कोने पर आकर एक डलिया रख दी। कुछ देर बाद देखा तो एक कमजोर सी गाय डलिया मे रखे तरबूज के छिलके खाने लगी थी। यह देखकर महसूस हुआ कि कि मानवता कितनी सहज, सरल और आडम्बरहीन हो सकती है। कोई बड़ी दान की बोलियाँ नहीं, बड़े आयोजन नहीं। सिर्फ एक संवेदनशीलता जो हम सबके पास है, उसके अनुसार यथासम्भव देने का भाव और बस हो गया।
हालाँकि अब ऐसे दृश्य विरले होते जा रहे हैं। इसीलिए यह डायरी का हिस्सा बनना चाहते हैं। इन दिनों स्मार्ट सिटी को मिट्टी, रेत, धूल, बेतरतीब झड़ते पत्ते, सूखी उड़ती घास जैसी हर प्राकृतिक चीज से परहेज होता है। सीमेंटेड प्लेटफॉर्म, चटक रंगों में पुती इमारतें, फ्लाईओवर और उसके बीच बची जगह में मैनिक्योर्ड गार्डन। अजीबोगरीब विदेशी फूलों के पौधे, खम्भों पर करीने से लटकाए गमलों में आइवी लताएँ, कुछ पानी के फव्वारे और रंगबिरंगी रौशनी। आजकल यही सौन्दर्य के नए प्रतिमान कहे जाते हैं।
हमने देखते-देखते मानव-हितों और विकास के नाम पर नीलगाय, खरगोश, शूकर, गिलहरी, गिरगिट, बिल्ली, पक्षियों, आदि को नुकसान पहुँचाने वाले परोपजीवी सिद्ध कर दिया है। अब लोग गाय, भैंस, बकरी जैसे उपयोगिता वाले जीवों को शहरी घरों में नहीं पालते। इसलिए कि उन्हें पालने के नियम दिन-ब-दिन कठोर होते जा रहे हैं। पहले घरों में गाय के लिए पहली रोटी और श्वान के लिए आखिरी रोटी निकाल कर रखी जाती थी। उसे फल-सब्जियों की छीलन, बचे भोजन के साथ रोज सुबह बाकायदा गाय, कुत्तों को खिलाया जाता था। लेकिन अब?
पिछले दिनों का एक वाकया एक करीबी मित्र ने सुनाया। श्राद्ध पक्ष में उन्होंने गाय के लिए थाली निकाली थी। पर गाय ढूँढते-ढूँढते उन्हें दो ढाई घंटे लग गए। अन्त में कई किलोमीटर दूर एक मन्दिर में गाय को ग्रास खिला सके। सोचिए, जब सनातन परम्परा की परम आराध्य गौवंश की यह स्थिति है, तो शूकर, गधा, खच्चर जैसे जीवों को तो आधुनिकता ने सजा-ए-मौत ही मुकर्रर कर दी है, समझो। आज हम जिस तरह अपने शहर को डिजाइन कर रहे हैं उसमें इंसानों के सिवा दूसरें जीव-जन्तुओं के लिए जगह नहीं है। और यह तो पहली और उथली बात है। असल में इस तंत्र में दरिद्र, निर्बल मनुष्य के लिए भी कोई जगह नहीं। बस, ताकतवर धनी-मानी वर्ग पैसे के बल पर साफ हवा, पानी, शुद्ध प्राकृतिक फल-सब्जियाँ, दूध-अनाज सहित हर वस्तु पर अपना नैसर्गिक अधिकार मानता है।
वास्तव में इस सबके पीछे एक बेहद शातिर तंत्र है। इसमें नौकरशाह, सलाहकार, विशेषज्ञ, विश्वविद्यालय, न्यायतंत्र के निष्णात दिमाग और बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रमुख शामिल हैं। जैसे- स्मार्ट सिटी के ही बहाने स्वच्छता-सुन्दरता के यूरोपीय अमेरिकी भौगालिक प्रतिमान भारत में लागू किए जा रहे हैं। उससे लाभ उठाने वाला एक बिचौलिया वर्ग पनप चुका है। पह येनकेनप्रकारेण अफलातून योजनाओं और प्रकल्पों से धन की उगाही करने और उसे ठिकाने लगाने में सिद्धहस्त है। लोकतंत्र के तहत रहते हुए, भीतर से तंत्र को नियंत्रित करने का हुनर उसके पास है।
और इस सबके बीच हम? हम सवेरे देर तक सोते हैं। बेतकल्लुफी से अन्न को कूड़े दान में डालते है। घूरे के ढेर पर कचरे से पेट भरते गाय, कुत्ते, कौवे और शूकर जैसे जीवों को देख नाक-भौं सिकोड़ते हैं। हमें अन्न को कूड़े में फेंकने से कोई परेशानी महसूस नहीं होती। इसे व्यवस्थित करने के नाम पर हम सिर्फ कचरे का सूखा और गीला वर्गीकरण करते हैं। फिर भले ही इस तरह के वर्गीकरण से कोई खास नतीजा निकलता हो या नहीं। हमें इससे फर्क नहीं पड़ता कि इस कचरे को कैसे और कहाँ ठिकाने लगाया जाता है। कूड़े में आहार, प्लास्टिक और विविध पदार्थों के सम्मिश्रण से मीथेन जैसी नुकसानदेह गैस बनती है। या इन रसायनों से मिट्टी, पानी जहरीला होता है। शहर के बाहर कचरे के पहाड़ों से गाँववालों की जिन्दगी नरक बन जाती है। इन सब चीजों से हम बेफिक्र हैं।
ऐसे में सोचने वाली बात है कि हम अहिंसा को परम धर्म मानने वाले, सब जीव-जन्तु पादप को परमतत्त्व से व्याप्त मानने वाले, जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के पूजक कैसे इतने अधर्मी और असंवेदनशील बना दिए गए? हम संकीर्ण मनोरंजन, स्थूल धर्मरहित भोगवाद के प्रभाव में नई किस्म की काहिलियत की ओर कैसे धकेल दिए गए? इन सवालों के ज़वाब ढूँढ़ना चाहिए। समय की जरूरत है। हालाँकि मर्ज की जड़ तक कोई जाना नहीं चाहता।
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