अनुज राज पाठक, दिल्ली
भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान है। वैदिक ऋषि ने व्यक्ति के लक्ष्यों की अवधारणा प्रस्तुत की, तब उसने धर्म के बाद अर्थ की अवधारणा को दूसरे स्थान पर महत्त्व दिया। यह अर्थ, कार्य की या कहें कर्म की संस्कृति की ही अवधारणा है। अर्थ का अर्जन बिना कर्म के तो सम्भव ही नहीं है। वैदिक ऋषि इसी अर्थ=धन को एक-दो से नहीं, 100 हाथों से कमाने और 1000 हाथों से दान करने की बात करता है।
(‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर’ -अथर्व वेद।
अर्थात् : सौ हाथों से धन अर्जित करो और हजार हाथों से उसका दान करो।)
इस कथन के दो भाव स्पष्ट हैं। पहला- खूब कमाइए। दूसरा- दान=त्याग भी खूब कीजिए। यद्यपि हम यहाँ पहले भाव पर चर्चा कर रहे हैं। धन कमाना व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकता है। उसे समाज में रहकर जीवनयापन हेतु अथवा वस्तु विनिमय हेतु इसकी अनिवार्य आवश्यकता है।
जबकि भावनाएँ, संवेदनाएँ और पारिवारिक सम्बन्धों को ध्यान में न रखकर धन कमाने के लिए धन कमाना व्यक्ति को मशीनीकृत कर देता है। ऐसे लोगों के लिए पारिवारिक मूल्य या व्यवस्था महत्त्व नहीं रखते। आजकल यही चल रहा है। धन को केन्द्र में रखकर अत्यधिक समय कार्यस्थल पर व्यतीत करने को बढ़ावा दिया जा रहा है।
इसी क्रम में अभी कुछ समय पहले दो प्रतिष्ठित उद्योगपतियों द्वारा काम के घंटे बढ़ाकर सप्ताह ने 70-90 तक करने की वकालत की गई। इनमें से एक ने तो बड़ा हास्यास्पद तर्क दे दिया, “घर में पत्नी का चेहरा पति कितनी देर देखेगा।” मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसा अमानवीय भाव रखने वाला व्यक्ति प्रतिष्ठितों की श्रेणी में कैसे है? इस उद्योगपति ने निश्चित ही अपनी पूरी सम्पत्ति ‘धनपिशाच’ बनकर अर्जित की है, न कि मानव-जीवन बेहतर बनाने के भाव से।
पैसा कमाने को प्रोत्साहन देना अनुचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन वह मानवीय मूल्यों की बलि देकर किया जाए, तो सर्वथा अनुचित है। हम परिवार को बेहतर जीवन दे सकें, समाज में सम्मानजनक स्थितियों में रह सकें, इसलिए व्यवसाय आदि करना श्रेयस्कर है। अन्यथा वह धन किस काम का।
व्यक्ति अपने परिवार के बेहतर जीवनयापन के लिए नौकरी पर जाता है। वह किसी कम्पनी के लिए नहीं जाता। वह अपने परिजनों और जीवनसाथी के जीवन को सुन्दर और सुखद बनाने के लिए नौकरी पर जाता है। लेकिन यदि कोई सिर्फ़ काम करने और धन कमाने के लिए नौकरी का विचार रखता है, तो वह ‘धनपिशाच’ ही हो सकता है। उसमें मानवीय भावनाएँ नष्ट हो चुकी हैं। वह घोर असामाजिक है।
ऐसे विचारों को, जो केवल धन कमाना ही उद्देश्य मानते हैं, उनकाे हतोत्साहित करने की ज़रूरत है।
—————
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
“वह किसी रिश्ता नहीं रखते। वह ऐसे शख़्स ही नहीं हैं, जो रिश्ते बनाते हों।… Read More
“गए, गायब हो गए! सब गायब हो गए!” एक आदमी खाली जगह की ओर इशारा… Read More
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अभी हाल ही में एक अनोखी घोषणा की है।… Read More
मध्य प्रदेश सरकार भोपाल के यूनियन कार्बाइड परिसर का जहरीला रासायनिक कचरा ठिकाने लगाने की… Read More
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में 13 जनवरी, पौष पूर्णिमा से जो महाकुम्भ शुरू हो रहा… Read More
शृंखला के पूर्व भागों में हमने सनातन के नाम पर प्रचलित भ्रांतियों को देखा। इन… Read More