मैं अपने अँधेरों के संग बदस्तूर चल रहा हूँ

संदीप नाईक, देवास मध्य प्रदेश से, 7/5/2022

जीवन में मृत्यु एक शाश्वत और अनिवार्य सच्चाई है। इसकी अनिवार्यता अब तो इतनी हो चुकी है कि रोज ही इस किस्म की ख़बर सुनने के लिए कान मुस्तैद रहते हैं, जैसे। हाल ही में दो बेहद करीबी लोगों को खोया है और दुर्भाग्य, दोनों जगह अनुपस्थित रहा हूँ। एक भाई की देह दुबई में पड़ी रही 2-4 दिनों तक। प्रक्रियाओं में उलझ-सुलझकर जब हिन्दुस्तान लौटी, ताे हाल बयान करना मुश्किल जान पड़ा। ऐसे ही एक भाई धार में गुज़र गया और मैं 700 किमी दूर बैठा रहा, अपने घर। अन्तिम क्रिया के लिए भी जा नहीं पाया। अपने आप से पूछता रहा और पूछता हूँ कि दुख की परिभाषा क्या है? कैसी है? सच कहूँ, तो मृत्यु अब भय या संत्रास नहीं लगती। सखी की तरह लगती है जो गाहे-बगाहे ठिठोली कर के चली जाती है। और मैं उसकी हँसी ठिठोली का गवाह बनते हुए झक्क उजाले में अपने अँधेरों के संग बदस्तूर चल रहा हूँ।
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उस रोज पोस्ट ऑफिस में एक व्यक्ति मिला। बेहद दरिद्र सा। पर उसके खाते में करीब 35 लाख रुपए थे। बीवी कोरोना से मर गई। बेटा-बहू जर्मनी में। बीते 5 बरस से आए नहीं। और वह 20-22,00 की पेंशन में से 15,000 बेटे के बचत खाते में हर महीने डाल रहा था। इतना अमीर जीर्ण-शीर्ण आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा। मैंने बताया उसे, मन का भाव। ज़वाब में वह मुस्कुराया और आगे चला गया। यह कहते हुए कि वह आज इंडियन कॉफी हाउस में शाम को खाना खाएगा। डेज़र्ट के साथ। और अगले महीने से बेटे के खाते में रुपए नहीं डालेगा। ख़ुद हरिद्वार, ऋषिकेश जाएगा मार्च में। उसकी आँखोँ में मौत की आगत देखी थी मैंने। अपनी शेष बची उम्र के दो साल उसे देकर लौट आया मैं घर। कुछ ऐसे, जैसे एकदम खाली हो गया हूँ।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 54वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :
53. आओ, कोई इस तन के तम्बूरे में तार जोड़ दो! 
52. सब भूलकर अपनी गठरी खोलो और जी लो, बस 
51. भीड़ में अपना कोना खोजकर कुछ किस्से कहानियाँ सुनना, सुनाना… यही जीवन है
50. लड़ना न पड़े, ऐसी व्यवस्था आज तक हम किसी सभ्यता में बना नहीं पाए हैं
49. मार्च आ गया है, निश्चित ही ब्याज़ आएगा, देर-अबेर, उम्मीद है, फिर…
48. एक समय ऐसा आता है, जब हम ठहर जाते हैं, अपने आप में 
47. सब भूलना है, क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं
46. एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?
45. मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44. ‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38. जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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Neelesh Dwivedi

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