समीर शिवाजी राव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
शृंखला के पूर्व भागों में हमने सनातन के नाम पर प्रचलित भ्रांतियों को देखा। इन भ्रांतियों के प्रचलित और प्रभावशाली होने के कारण यानी वैदिक श्रौत यज्ञ परंपरा का अनादर के असर को समझा। इसके परिणाम स्वरूप पनपें नास्तिक और अवांतर आस्तिक मतों से सनातन धर्म, संस्कृति और सभ्यता को हो रही हानि का जायजा लिया। प्रस्तुत भाग में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि इन सबके के चलते किस प्रकार हमारा राष्ट्र आत्मघाती और विघटनकारक नीति मूल्यों पर चल पड़ा है।
तो शुरू करते हैं सनातन धर्म में विद्यमान आत्मबोध और स्वत्वबोध की अवधारणा से। जब हम स्वयं का स्वयं में बोध करते हैं तो सभी उपाधियों से विरहित अस्तित्व का वह विशुद्ध अनुभव आत्मबोध होता है। यह पारलौकिक, अव्यवहार्य अवस्था है, किंतु इसकी शुद्धता में जो सत्य सार्वलौकिकता और सार्वकालिकता से विद्यमान रहता है वह अध्यात्म का मूल है। किंतु यह भाव पिण्ड-ब्रह्माण्ड के स्वत्व के बोध से उपजा है, उसमें विकसित हुआ है, वह स्वत्व बोध सनातन धर्म है।
अब वर्तमान में जब हम सनातन धर्म के स्वरूप विश्लेषण करना चाहें तो हमें भारत के समाज, उसकी संस्थाएं-संगठन, परंपराएं, राजनीति तंत्र, न्याय व्यवस्था, गणतंत्र द्वारा अपनाए गए विधान पर चिंतन करना आवश्यक होता है। और यह निश्चित ही कोई सुखकारक विषय नहीं। बेशक यह उन वैश्विक परिस्थितियों और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी परिचायक है जिनमें हमने स्वतंत्रता हासिल की, किंतु उसके बाद की स्थिति तो हमें अकर्मण्यता, पलायन वृत्ति और भोगवादी चिंतन के सामने हमारे पूर्वजों के आत्मसमर्पण का दर्शन कराती है।
स्वतंत्र भारत के स्वत्वबोधरहित भारतीयों ने अपने पारंपरिक ज्ञान तंत्र का सफाया कर डाला। औपनिवेशिकता की देन सोच और संस्थानों के प्रभाव में हमने वन-प्रकृति संवर्धन आधारित जीवन शैली, कृषि, दस्तकारी, कला-वांग्मय को निर्ममता से खत्म किया जो हजारों वर्षों से हमें पोस रही थी। औपनिवेशिकता से उपजी आधुनिकता के चलते आज हमारे देश में भी वह अजीब स्थिति है जो गुलाम देशों का चरित्रों में पाई जाती है। शिक्षा, भाषा, कला, धर्म-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, न्याय, शासन सहित तकरीबन हर क्षेत्र में नेतृत्व के लिए बौद्धिक रूप से ऐसे लिजलिजे चरित्र और हर कार्य के लिए पश्चिमी देश की ओर उन्मुखता एक पूर्वशर्त हो गई है।
आज राष्ट्र के विकास के नाम पर वन, जीव-जंतु और वहां रहने वाले लोगों के जनजीवन बिना किसी दु:ख के तहस नहस कर दिया जाता है। बड़े व्यावसायिक कारपोरेशन्स के हितों के अनुरूप नीति-नियम बनाकर पारंपरिक कृषि, लघु घरेलु वंशानुगत उद्योगों का खात्मा किया जा रहा है। राजनीतिक नेतृत्व अपने मतदाताओं को भोगवाद के झुनझुने पकड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने में व्यस्त हैं तो अफसरशाह ऐसी संस्थाओं के संबंधों से अपने और बच्चों के लिए कॅरियर बनाने में।
न्याय व्यवस्था का आम लोगों के जीवन, न्याय की आशा और उसके प्रभाव से कोई सरोकार नहीं बचा। यह सुविधासंपन्न, सुरक्षा, ताकत और आत्ममुग्धता के चरमबिंदु पर जीने वाला ऐसा वर्ग बन कर रह गया है। जो अपने सिवा किसी के प्रति जवाबदेह ही नहीं। इतना ही नहीं, उनकी त्रृटियों की आलोचना भी अपराध मान लिया जाता है। ऊपरी अदालतों की बात निराली है, यहां न्याय की लड़ाई एक विदेशी भाषा में पेशकारों की मदद से, आयातित नियम-कानून और प्रक्रिया के तहत होती है। मजे की बात यह है कि यहां न्याय और अदालती प्रक्रियाएं और कारिंदे एक बहुत सीमित प्रभावशाली परिवारों के गिरफ्त में है। ये बेहद ताकतवर लोग सरकार, मीडिया संगठन, नौकरशाह, राजनेता तक को भी अपने प्रभाव में रखते हैं। इसके निचले स्तर की बात करें तो वहां घूसखोरी, दबंगाई, लेटलतीफी, लालफीताशाही के चलते आम आदमी के लिए न्याय की आस मृगमरीचिका ही है।
निजी क्षेत्र के व्यावसायिक संगठनों में कितने नीति धर्म आधारित धनार्जन में विश्वास कर उस पर चलते हैं, यह हम सब जानते ही है। शिक्षा, मीडिया, स्वास्थ्य व बैंक व अन्य क्षेत्र में कार्यरत लोग यह कार्य कितनी प्रामाणिकता से करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं।
हमारे समाज का सफल वर्ग धर्म-संस्कृति परंपरा में विश्वास न करने वालों से बना है। यह स्वत्वबोधरहित और वह धर्म का प्रयोग अपने भोगवादी लक्ष्यों के लिए करता है। ऐसा न करने के लिए उस के लिए उसे कोई प्रोत्साहन नहीं, और गलत करने की कोई वर्जना नहीं क्योंकि राजदण्ड ही धर्मनिरपेक्ष अर्थात् अधर्मसापेक्ष है। यह धर्मनिरपेक्ष तंत्र अपराधी, भ्रष्ट और लोक-नीति-पर्यावरण विरोधी तत्वों का सबसे बड़ा संबल है। यही कारण है कि सनातन धर्म और सनातनधर्मी का मुकाबला किसी दूसरे महजब से पूर्व अपने भीतर छिपे क्षुद्र तत्वों से है जो दीमक की तरह उसे चाट रहा है। वैदिक आचार-विचार, श्रौत परंपरा के क्षरण के साथ नास्तिक और अवांतर मत ही प्रबल नहीं हुए हैं। इस वातावरण में मलेच्छादि औपनिवेशिक विचारधारा और परंपराएं जड़ कर गई।
पुण्यभूमि भारत के समाज के पतनशीलता का कारण है – स्वत्वबोध की कमी। यह संभव है सनातन के पुनर्जागरण से। और सनातन परंपरा का पुनर्जागरण वैदिक श्रौत यज्ञ परंपरा के बिना संभव नहीं। संकीर्ण नास्तिक मत न लौकिक अभ्युदय के कारक है न सार्वलौकिक नि:श्रेयस के। हमें भारतीय सभ्यता के वास्तविक और सबल रूप को प्राप्त करना है तो वैदिक प्रवृत्ति मूल्यों को स्थापित करना ही होगा।
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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। सात कड़ियों वाली इस श्रृंखला की यह आख़िरी कड़ी है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)
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इस श्रृंखला की पिछड़ी कड़ियाँ
6 – क्या वेद और यज्ञ-विज्ञान का अभाव ही वर्तमान में धर्म की सोचनीय दशा का कारण है?
5 – नास्तिक मत आखिर कितने सनातनी?
4 – वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु यज्ञ का वास्तविक स्वरूप कैसा है?
3 – सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यों है?
2 – सनातन धर्म क्या है?
1 – सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है?
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