निकेश जैन, इंदौर, मध्य प्रदेश
मैं जब ‘याहू’ में काम करता था, तो दक्षिण कोरिया में चार सदस्यों की मेरी टीम थी। उन चार सदस्यों में से‘ सिर्फ एक को अंग्रेजी आती थी। इसलिए टीम की बैठकों के दौरान वही हम सबके लिए सभी तरह के अपडेट साझा करता था। यानी वह मेरी बात टीम के अन्य सदस्यों तक पहुँचाता था। और बाकी सदस्य जब अपने बीच चर्चा कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते, तो उनकी बात मुझे बताता था।
इस व्यवस्था में हमें किसी तरह की परेशानी नहीं हुई।
ऐसे ही, जब मैं ‘एसएपी’ में था, तो चीन में 10 लोगों की टीम थी मेरी।
वहाँ भी दक्षिण कोरिया जैसी व्यवस्था थी। हमारे बीच के कुछ सदस्य अच्छी अंग्रेजी जानते थे। वे लोग पूरी टीम के लिए बैठकों के दौरान दुभाषिए का काम किया करते थे।
वहाँ भी मुझे अपने पूरे कार्यकाल में कोई परेशानी नहीं हुई। हम अपेक्षानुरूप प्रदर्शन करते रहे।
लेकिन मुझे यह सोचकर आज अचरज ज़रूर होता है कि कोरिया और चीन में संचालित तमाम कम्पनियों के दफ़्तरों में ऐसे लोगों को ख़ारिज़ क्यों नहीं किया जाता, जिन्हें अंग्रेजी बोलना नहीं आती?
जबकि भारत में सिर्फ़ अच्छी अंग्रेजी न बोल पाने के आधार पर ही कम्पनियों का नेतृत्त्व युवाओं को ख़ारिज़ क्यों कर देता है? बावज़ूद इसके कि उनमें से अधिकांश कंप्यूटर और अपने काम से सम्बन्धित अन्य तमाम क्षेत्रों में बढ़िया स्तर तक दक्ष होते हैं?
भारतीय दफ़्तरों में दुभाषिए (अनुवादक) वाली व्यवस्था काम क्यों नहीं कर पाती?
अंग्रेजी के लिए हमारा मोह क्या ये नहीं बताता कि हम अब भी ग़ुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं आए हैं?
अंग्रेजी के प्रति अपने मोह के कारण हम बहुत ही बढ़िया स्तर की युवा प्रतिभाओं को लगातार खो रहे हैं। उन्हें ख़त्म कर रहे हैं!
हम अपने बच्चों को भी अंग्रेजी सीखने के लिए मज़बूर कर रहे हैं। इससे सीखने की उनकी क्षमता धीमी हो रही है। क्योंकि वे अपनी भाषा में नहीं, विदेशी भाषा में पढ़-लिख रहे हैं। इसलिए पहले उन्हें उसे सीखने-समझने पर जोर लगाना पड़ता है।
मेरा दावा है कि अगर हम बचपन से ही अंग्रेजी पर निर्भरता का अवरोध हटा दें, तो मात्र इस एक कदम से ही हमारी आर्थिक तरक़्क़ी की रफ़्तार बहुत-बहुत तेज हो जाएगी।
कारण कि बच्चे अपनी मातृभाषा (भारत के सन्दर्भ में हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ) में अधिक तेजी से सीखेंगे। वे आसानी से ज़्यादा नवाचार कर सकेंगे। इससे हमारी उत्पादकता कई गुणा बढ़ जाएगी।
लेकिन ऐसा हो पाए, इसके लिए ज़रूरी है कि हमारा समाज, हमारा उद्योग जगत अपनी मातृभाषा को संवाद की पहली भाषा के रूप में स्वीकार करे।
क्या हम तैयार हैं?
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निकेश का मूल लेख :
When I was at Yahoo!, I used to manage a 4 member team in South Korea. Out of 4, only one could speak English so during team meetings, that guy would provide updates. At times they would go on mute to discuss among themselves and one guy would provide translation.
It worked nicely.
When I was with SAP, I used to manage a 10 member team in China.
More or less same arrangement. Couple of guys spoke descent English so they would play translator for others.
This also worked well and we were delivering product as expected.
I wonder why Koreans and Chinese didn’t reject those guys who couldn’t speak English for poor communication?
Why only in India we reject candidates based on English language proficiency even if candidate is good at computer or other relevant skills?
Why in Indian offices the translator arrangement doesn’t work?
Is it our obsession with English language or it’s colonial hangover?
We are killing so much of young talent because of our love for English language!
We are slowing down learning of our kids by forcing them to learn a language which is not their native.
I am claiming that India’s GDP will go up by few points if we remove our dependence on English language from childhood!
Kids will learn much faster in their native language; there will be more innovation and our productivity will go up by many folds.
But for that to happen, our society, our industry need to accept native language as primary mode of communication.
Are we ready?
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(निकेश जैन, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने यह लेख लिंक्डइन पर लिखा है।)
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