शिवाजी ‘महाराज’ : परधर्मो भयावहः, स्वधर्मे निधनं श्रेयः…अपने धर्म में मृत्यु श्रेष्ठ है

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

बहादुरगढ़ में घुसकर मराठों ने औरंगजेब के दूधभाई, बहादुर खान के दाँत खट्टे किए। इस अचानक हमले में मराठों ने एक करोड़ रुपए जुटाए (सन् 1674, जुलाई मध्य)। बाद में महाराज ने खुद जाकर पोंडा का किला (आजकल गोवा में) जीत लिया (सन् 1674 मई का प्रारम्भ)। इसी महीने में महाराज अंकोला, शिवेश्वर, काद्रा और कारवार को स्वराज्य में ले आए। लेकिन महाराज के नौदल की जंजीरा जीतने की कोशिशों पर पानी फिर से फिर गया (दिसम्बर 1675)। इस बार सातारा के मुकाम में महाराज बहुत बीमार हुए (सन् 1676 जनवरी)। लेकिन जल्दी ही ठीक भी हुए। इसके बाद बेलगाँव को स्वराज्य में लाने की उनकी चेष्टा भी विफल ही हुई (सन् 1676 जून प्रारम्भ)।

इसी समय औरंगजेब भी बहुत परेशान था। उसकी सभी फौजों के, सरदारों के हौसले महाराज ने पस्त किए थे। उसके सामने बड़ा ही कठिन सवाल था कि आखिर भेजा किसे जाए। लिहाजा इस काम के लिए उसने मुहम्मद कुली खान को काबुल से दिल्ली बुला भेजा। जी, यह कुली खान धर्मान्तरित नेताजी पालकर थे। पिछले नौ सालों से औरंगजेब ने उन्हें पठानी इलाके में रख छोड़ा था। अब उसने उन्हें महाराज से टक्कर लेने के लिए भेजने की सोची। एक जमाने में महाराज के जानी सरसेनापति नेताजी, ‘कुली खान’ बनकर महाराज से लड़ने आ रहे थे (सन् 1676 अप्रैल)। खुद नेताजी इस विडम्बना से बहुत बेचैन थे, गमगीन थे। लेकिन यह तो भाग्य के फेर से हुआ था।

औरंगजेब ने नेताजी ‘कुली खान’ और ‘दिलेर खान’ दोनों को इस मुहिम पर तैनात किया था। नेताजी ने तो ठान ही लिया था कि जो भी हो, वह रायगढ़ पर महाराज के सामने जाकर रहेंगे। फौज धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़ रही थी। तभी, शायद खानदेश के डेरे से, नेताजी फरार हो गए (सन् 1676 मई)। उन्होंने सीधा रायगढ़ का रास्ता लिया। पिछले नौ सालों के दौरान उनमें और परिस्थितियों में जबर्दस्त फर्क आ गया था। वह खुद ‘कुली खान’ के तौर पर पहचान पा चुके थे। महाराज ‘छत्रपति’ हो गए थे। पर नेताजी रायगढ़ पहुँचे (सन् 1676 जून का प्रारम्भ)। रायगढ़ के लिए सुखद धक्का था यह। महाराज की एक रानी साहब, पुतलाबाई, पालकर घराने से थी। नेताजी इस नाते महाराज के रिश्तेदार थे।

नेताजी के धर्मान्तरण को नौ साल हो चुके थे। औरंगजेब को पूरा यकीन था कि नेताजी अब पूरी तरह मुसलमान हो चुके होंगे। लेकिन नेताजी के मन में हिन्दुत्त्व की लौ, उसी पुराने बल से जल रही थी। उन्होंने कभी अहिल्या उद्धार की कहानी सुनी थी। शिवाजी महाराज के पास वह इसी आस से गए थे कि महाराज उनका भी उद्धार करेंगे। प्रभु रामचन्द्र ही की तरह। नौ साल तक मुसलमान की तरह काबुल, कन्दहार के मुस्लिम प्रदेश में और मुगलो छावनी में काटकर नेताजी आज अचानक फिर से रायगढ़ पर दाखिल हो गए थे। और महाराज ने भी उन्हें दुत्कारा नहीं, न दूर ही किया।

महाराज की ममता ने नेताजी को अपना ही लिया। लेकिन इस मामले में एक क्रान्तिकारी कदम उठाने का उन्होंने निश्चय किया। अपने ही खून के इस आदमी को फिर से जातिगंगा के प्रवाह में शामिल करने के लिए महाराज ने उसे हिन्दू बना लेने का प्रण किया। सारा वातावरण कर्मठ था। परधर्मी का छुआ पानी भी जहाँ निषिद्ध समझा जाता था, वहाँ नौ साल मुसलमान बनकर जी आए आदमी को फिर से शुद्ध कर अपने समकक्ष बनाना था। जाहिर है कि यह काम बड़ा ही कठिन था। हमारी गंगा-भागीरथी, अति-पवित्र तीर्थ और सुरसरिता, लोगों के अन्धविश्वासी और आत्मघाती अविवेक के कारण सिर्फ श्राद्धपक्ष के पिंडदान, और हजामत किए हुए बाल लेकर उदास-सी बह रही थी।

इन गंगा-यमुनाओं की अशुद्धों को शुद्ध कराने वाली सामर्थ्य लोग भूल ही बैठे थे। मान भी लें कि खिचड़ी के एक गस्से में, डबलरोटी के टुकड़े में किसी को भ्रष्ट करने की ताकत है। तो क्या गंगा के अंजुरी भर पानी में, गायत्री मंत्र की एक पंक्ति में और तीर्थस्थान की चुटकीभर धूलि में धर्मान्तरितों को क्षणमात्र में शुद्ध करा लेने की क्षमता न होगी? गंगा-यमुना से डबलरोटी का एक कौर क्या ज्यादा ताकतवर था? इस गंगा की महत्ता का फिर से डंके की चोट पर उद्घोष करने वाले भगीरथ, गायत्री मंत्र का माहात्म्य फिर एक बार समंत्र समझाने वाले विश्वामित्र और तीर्थस्थान के धूलिकणों का माहात्म्य बतलाने वाले आदि शंकराचार्य पुनः इस भूमि में पैदा ही नहीं हुए।

आज रायगढ़ पर महाराज छत्रपति शिवाजी राजे वही माहात्म्य अपनी कृति से दुनिया को दिखाने वाले थे। इसीलिए यह क्रान्तिकारक प्रयोग था। महाराज ने यथासंस्कार नेताजी को शुद्ध कर फिर एक बार हिन्दू धर्म में ले लिया (दिनांक 19 जून 1676)। मुहम्मद कुली खान फिर से पहले जैसे नेताजी पालकर हो गए। नेताजी जातिगंगा में घुल-मिल गए। महाराज ने कभी किसी से धार्मिक कर नहीं लिया। हर एक को उसकी इच्छा के अनुसार धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त करवा दी थी। नेताजी को भी। महाराज हिन्दवी स्वराज्य में विचार स्वातंत्र्य और आचार स्वातंत्र्य की रक्षा कर रहे थे। नेताजी के बीवी-बच्चों को तथा चाचा कोंडाजी को भी औरंगजेब के लोग दिल्ली ले गए थे। उनका भी धर्मान्तरण कराया गया था। जुल्म जबर्दस्ती से कराए गए इस धर्मान्तरण का नेताजी ने इस तरह से बदला ले लिया। हालाँकि नेताजी के बीवी-बच्चों का आगे क्या हाल हुआ? इस बारे में इतिहास मौन है। 
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
53- शिवाजी ‘महाराज’ : तभी वह क्षण आया, घटिकापात्र डूब गया, जिजाऊ साहब चल बसीं
52- शिवाजी ‘महाराज’ : अग्नि को मुट्ठी में भींचा जा सकता है, तो ही शिवाजी को जीता जा सकता है
51- शिवाजी ‘महाराज’ : राजा भए शिव छत्रपति, झुक गई गर्वीली गर्दन
50- शिवाजी ‘महाराज’ : सिंहासनाधीश्वर, क्षत्रियकुलावतंस महाराज शिवछत्रपति
49- शिवाजी ‘महाराज’ : पहले की शादियाँ जनेऊ संस्कार से पहले की थीं, अतः वे नामंजूर हो गईं
48- शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए

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Neelesh Dwivedi

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