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अपने गाँव को गाँव के प्रेमी का जवाब : मेरे प्यारे गाँव तुम मेरी रूह में धंसी हुई कील हो…!!

दीपक गौतम, सतना मध्य प्रदेश

मेरे प्यारे गाँव

तुमने मुझे हाल ही में प्रेम में भीगी और आत्मा को झंकृत करने वाली पाती लिखी। मैं तुम्हारा इतना लाड़-प्यार पाकर अभिभूत हूँ। जिस शिद्दत से तुमने मुझे याद किया है, मेरा यक़ीन मानो मैं भी उतनी ही मोहब्बत से तुम्हें शहर के वीरानों में खोजता रहता हूँ। तुम्हारा प्रेम-पत्र पढ़कर मन बड़ा उदास हुआ। तुमने अपना जो हाल-समाचार मुझे लिखकर भेजा है, तुमसे दूर रहकर मेरा भी हाल वैसा ही है। मैं बिन तुम्हारे ‘जल बिन मछली’ की तरह तड़पता हूँ। मुझे शहर की भीड़ में सिवाय शोर के और कुछ नहीं सुनाई देता है। कोई अपनी सी पुकार नहीं सुनाई देती। तुम्हारी मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू मेरे ज़ेहन भी अब भी ताजा है। बारिशों में खुले आसमान के नीचे खड़े होकर ज़िन्दगी को जी भर पी लेने का हुनर तो तुमने ही सिखाया है। शहर आकर बस दिहाड़ी हाथ आई है, लेकिन यक़ीन मानो, बहुत कुछ छूट गया है।

आगे समाचार यह है कि मैं पूरी कोशिश में हूँ कि एक दिन तुम्हारे पास लौट आऊँगा। शायद तब सब कुछ पहले जैसा होगा। तुम्हारी थपकियों का दुलार मुझे फिर तुम्हारे स्पर्श से मीठी लोरियों सा महसूस होगा। अगली सुबह की धूप सर पे गिरते ही मैं फिर किसी रत्न की तरह दमक उठूँगा। मेरे प्यारे, मैं खुद पर मलूँगा वही सुनहरी धूप, जो तुम्हारी मुंडेरों पर इठलाती फिरती है। वो मंद-मंद बहती हवा के झोंके, जो तेरी हर गली की सौंधी ख़ुशबू मुझ तक पहुँचाते हैं, एक रोज़ फिर से मेरे नथुनों पर मेहरबानी करेंगे। मैं वो झोंके फिर से महसूस करना चाहता हूँ। चाँदनी में लिपटी वो रात जिसमें आसमान पर टिमटिमाते तारे अब भी महसूस होते हैं। मुझे तुम्हारी दुपहरी और रात दोनों की कमी यहाँ बहुत खलती है। क्योंकि शहर की गर्द में खुला आसमान कम ही नसीब होता है और हर दुपहरी ज़िन्दगी की चक्की में पिस जाती है। काश कि कुछ यूँ होता कि मैं बस तुम्हारी छाती पर सोना उगा सकता। मुझे यूँ शहरी चकाचौंध में खोना नहीं पड़ता। मैं तुमसे ही रौशनी पाता हूँ। मेरा यक़ीनन करो, मैं तुम्हारे आलिंगन के इन्तिज़ार में हूँ।

मेरे प्यारे, तुम मेरे अस्तित्त्व का भान हो। तुम्हारी गन्ध लपेटकर ही तो अब तक जीता रहा हूँ तुमसे यूँ दूर रहकर। मेरी आत्मा में तुम्हारी सौंधी मिट्टी की एक बारीक़ सी परत जम गई है। क्या कहूँ प्यारे, गजब की ठंडक है इसमें और एक अलहदा सुक़ून देने वाली तपिश। मेरा यक़ीन मानो, जब से इसे ओढ़ रखा है, कितने मौसम आए और गए मुझे किसी और लबादे की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। कभी-कभी तो लगता है कि इसी परत के नीचे सारा संसार है। एक दिन इसी में ख़ाक हो जाना है। यहीं से धूल का एक धुएँ से भरा गुबार सा उठेगा और फिर यहीं बैठ जाएगा। सब शान्त हो जाएगा। एकदम शान्त, वैसा ही जैसे उस पुराने शिवालय के कुण्ड का पानी शान्त है।

मैं जानता हूँ मेरे प्यारे कि उस पुराने शिवालय का वो कुण्ड अब भी मद्धम-मद्धम झरता रहता है, उसी के जल से तो शिव का जलाभिषेक होता है। मुझे अब तक याद है कि उसी शिवालय की छाँव में तो गुजरे हैं बचपन के सारे मेले। मेरे लिए तो तब बसन्त का मतलब ही गाँव का मेला होता था। प्यारे, तुमसे दूर निर्जन में तुम्हारे ही एक कोने में धूनी रमाए चौमुखनाथ शिवलिंग के स्वरूप में बैठे अवघड़ भोला-भंडारी (जो झिन्नन वाले बाबा कहलाते हैं), वहाँ बसन्त पंचमी को जल चढ़ाना तो सिर्फ इसलिए भाता था कि नीचे जाकर कुण्ड से पानी लेना है। वहीं उस कुण्ड से रिसते पानी के बहाव से आकार ले चुकी छोटी सी नदी को कौतुहल से देखना है।

मेरे प्यारे, मेरा विश्वास करो, मुझे बहुत अद्भुत लगता था वो दृश्य देखना। यक़ीन नहीं होता था कि उस छोटे से कुण्ड से निकली वो पतली जलधारा एक छोटी सी नदी का रूप ले लेती है। अब भले ही वो नदी कोई बरसाती नाला हो गई हो। लेकिन जब गाँव के सयाने कहते थे कि कभी यहाँ इतना गहरा पानी था कि तीन हाथी डूब जाते थे, तो यक़ीन करना मुश्किल नहीं था। क्योंकि हमारा तो सारा बचपन वहीं डूबते-उतराते हुए बीता है। अब की पीढ़ियाँ तो शायद यक़ीन ही न कर पाएँ कि आज दिखने वाला नाला अपनी जवानी में एक सुन्दर नदी था, जिसके घाटों के नाम क्रमशः खजुरहा, बन्धौआ, राजघाट, हाथीघाट, पितैइयाँ और रामघाट थे। बचपन की जलक्रीड़ाओं के लिए उस पुराने शिवालय के पास का वो खजुरहा घाट अब भी मुझे डराता है। जैसे फिर न कहीं पैर फिसल जाए और जिन्दा बचने की कहानी सुनाने पर अम्मा की वाज़िब चिन्ता से उपजी लताड़ और मार पड़े।

मेरे प्यारे, मेरा यक़ीन करो, अब उस सूख चुकी नदी के बरसाती नाले में बदल जाने के बाद भी उसके किनारे पर मेरी बचपन की यादें लगातार बहती रहती हैं। मैं वहीं बैठकर निहारता रहता हूँ वो याराने। मुझे रामघाट के दोनों ओर खड़े कहवे के वो दो विशाल वृक्ष और एक कोने पर खड़ा इमली का पेड़ अब भी याद है। गाँव में घुसते ही कच्ची सड़क के दोनों ओर खड़े वो विशाल पेड़ कुदरत का बनाया प्राकृतिक द्वार थे, जो अब बस मेरी स्मृतियों में ही शेष हैं।

मेरे प्यारे, मुझे बहुत अफ़सोस है कि विकास की आँधी में कांक्रीट का बड़ा पुल बनाने के लिए वर्षों पुराना तुम्हारा वैभव हर लिया गया है। मैं इसके लिए तुमसे क्षमा चाहता हूँ। कभी रामघाट पर खड़े कहवे के वो दो दरख़्त सपने में मुुुझे रोते-बिलखते हुए अब भी साफ-साफ नज़र आते हैं। मैं अक्सर रातों को सोते हुए जाग जाता हूँ। मेरे प्यारे, उसी घाट के दूसरे छोड़ पर खड़ा वो इमली का पेड़ अब भी मेरे दाँत खट्टे कर जाता है। राम-जानकी मन्दिर के पीछे की वो ख़ुफ़िया सुरंग का रहस्य अब भी रूह में सिहरन पैदा कर देता है। मैंने उसके अन्दर जाने के उस दुःसाहस को वहीं रामजी के चरणों में रख दिया है।

मेरे प्यारे, गाँव की पुरानी गढ़ी के अन्दर वाली बेरियों के बेरों का स्वाद अब भी मेरी ज़बान पर ताज़ा है। वहाँ उड़ते चमगादड़ों की दुर्गन्ध से मेरा मन अब तक सना हुआ है। मन्दिरों की भजन संध्या के बाद सयानों के होने वाले क़िस्से अभी तक कानों में घुले हैं। सच कहूँ तो मेरी स्मृतियों के संसार में इन सबका उजड़ना है ही नहीं, क्योंकि उसके पहले ही मैंने तुमसे विदा ले ली थी। दो दशक से ज़्यादा हो गया तुम्हारे बाग़-बग़ीचों की ख़ुशबू में जीभर तर हुए। अमराई के वो बौराये से दिन, जब गर्मियों की कड़ी धूप के थपेड़े भी रोम-रोम में जि़न्दगी का रोमांच भर देते थे।

मेरे प्यारे, वो तालाब के किनारे की मेड़, हरी घास से लबालब वो मैदान, लहलहाते खेत, कई पुराने मन्दिरों के बीच किसी नूर सी चमकती एक मस्जिद, उसके सामने का वो स्कूल और न जाने क्या-क्या…! उफ्फ़ ! सब जस का तस है, एकदम ताज़ा। यूँ लगता है कि मैं एक पुरानी खिड़की के इस पार खड़ा हूँ और दो किंवड़ियाँ खोलते ही तुम्हारे अन्दर दाख़िल हो जाता हूँ। मेरे प्यारे, बस इसीलिए लगता है कि गाँव इतना आसान नहीं है, तुझे फिर पा लेना…!!

मेरे प्यारे, तुम मेरी रूह में धँसी वो कील हो, जिससे रूहानियत का लहू टपकता रहता है। मैं बस इसी से तरबतर रहना चाहता हूँ। मेरे प्यारे, मुझ पर भरोसा रखना, मैं एक दिन तुम्हारे वैभव को लौटाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँगा। मैं तुम्हें सिर्फ़ स्मृतियों में नहीं, यथार्थ के धरातल पर जीना चाहता हूँ। मैं एक दिन ज़रूर लौटूॅगा, तुम मेरा इन्तिज़ार करना। मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारा ये इन्तिज़ार लम्बा नहीं होगा।

अब लिखना बन्द कर रहा हूँ। अपना ख़्याल रखना। मुझे तुमसे तुम्हारी जितनी ही मोहब्बत है।

– सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा प्रेमी 

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1- गाँव की प्रेम पाती…,गाँव के प्रेमियों के नाम : चले भी आओ कि मैं तुम्हारी छुअन चाहता हूँ! 

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(दीपक मध्यप्रदेश के सतना जिले के छोटे से गाँव जसो में जन्मे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से 2007-09 में ‘मास्टर ऑफ जर्नलिज्म’ (एमजे) में स्नातकोत्तर किया। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में लगभग डेढ़ दशक तक राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस और लोकमत जैसे संस्थानों में कार्यरत रहे। साथ में लगभग डेढ़ साल मध्यप्रदेश माध्यम के लिए रचनात्मक लेखन भी किया। इन दिनों स्वतंत्र लेखन करते हैं। बीते 15 सालों से शहर-दर-शहर भटकने के बाद फिलवक्त गाँव को जी रहे हैं। बस, वहीं अपनी अनुभितियों को शब्दों के सहारे उकेर दिया करते हैं। उन उकेरी हुई अनुभूतियों काे #अपनीडिजिटलडायरी के साथ साझा करते हैं, ताकि वे #डायरी के पाठकों तक भी पहुँचें। ये लेख उन्हीं प्रयासों का हिस्सा है।)

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