दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 19/6/2021

शोर में बहुधा एकांत छिन जाने का खतरा रहता है। पर कुछ शोर मन को बहुत भाते हैं। मसलन- चिड़ियों की चहचहाट, टिटहरी की चीख, मुंडेर पर कौवों का क्रन्दन, नदियों में उद्दाम वेग से बहते पानी का कलकल भरा आलाप, समुद्र में चिंघाड़ भरती लहरों का शोर। किसी शंख को कान में लगाकर देर तक अनहद नाद को सुनना। जंगल में किसी सूनी पगडंडी से गुजरते हुए पत्तियों और झूमती मदमस्त शाखाओं का संगीत। मंडला (मध्य प्रदेश का शहर) में गोंड राजा के किले में असंख्य चमगादड़ों का शोर, जो उजालों से घबराकर सदियों से एक कमरे में भटक रहे हैं। पहाड़ों के उत्तुंग शिखर पर चढ़ते हुए पत्तों और घास की सरसराहट या अपने कमरे में टकटकी लगाई आँखों से छत पर लटके पंखे की ध्वनि। सालारजंग (हैदराबाद) संग्रहालय में निर्जीव पड़ी धरोहरों की फुसफुसाहटें और चींटियों की कतार में उनकी बातचीत के मद्धम स्वर भी। 

चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की नवमी है। बाहर रह-रहकर आवाज़ें गूँजती हैं। अँधेरे में प्रकाश दिखाई देता है और उसके बाद ध्वनि प्रस्फुटित होती है। उत्सवों की बेला है और कमोबेश हर छह माह में आकाश इसी तरह से भर जाता है। अपने मन की शान्ति, ध्यान और समर्पण को त्यागकर इस वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करता हूँ और पाता हूँ कि यह बाहरी शोर मेरे अन्दर के उस निर्वात तक नही पहुँच पाता, जहाँ सब कुछ थिर हो गया है। एकरस हो गया है- कोलाहल, शोर और पूर्ण शान्ति। 

एक भीतरी शोर है और एक बाहरी। बाहरी तो क्षणिक है, जो हर हाल में थम ही जाएगा और फिर यदा-कदा बजता रहेगा। पर जो भीतरी शोर है, उसे साधना बहुत कठिन है। वह प्रज्ज्वल अग्नि की तरह सदैव धधकता है। निरन्तर कुछ न कुछ समिधा (हवन की लकड़ियाँ) के रूप में माँगता रहता है। कभी दर्प जलाया, कभी अहंकार, कभी अनन्त इच्छाएँ। कभी वासनाएँ, कभी क्षुधा, कभी क्षोभ, कभी अवसाद, कभी परिग्रह। कभी धन-सम्पदा और कभी अपना चित्त भी। जब कुछ अर्पित करने नहीं मिला तो अपने सुख भी तिरोहित किए। आज जहाँ हूँ, वहाँ से पलटकर देखता हूँ तो जीवन अग्निखंडों मे बँटा दिखता है। हर कदम पर एक लाक्षागृह था और उसमें से निकलना था। इस सबके बीच ही ‘अपने एकांत को निर्वासन में बदलकर आनुषंगिक बनाना था’। एकालाप को चुप में बदलना कितना मुश्किल है, यह समझना सात जन्मों के बलिदान के बराबर है। 

एक लम्बे अभ्यास के बाद मोहमाया से मुक्त हुआ और सब छोड़ा। पहले संसार का मोह, जीवन की अनन्तिम इच्छाओं से मुक्ति मिली। फिर प्रेम और साहचर्य की डोर तोड़ी। भावनाओं के पुल पार करके इस ओर आया, पर यहाँ भी कड़े बन्धन और बड़े आकर्षण थे, जिन्हें अबाधित रूप से पार किया। कुछ पाने की, यश और कीर्ति पताकाएँ लहराने की प्रत्याशा अब भी मन के किसी कोने में शेष थी। लिहाज़ा, फिर मुड़ा पर जल्द ही विमुख भी हुआ। रंगों के प्रति आसक्ति शेष थी। 

जब माया और आसक्ति का सम्मिश्रण प्रारब्ध से ज्यादा आकर्षक लगने लगे तो मान लीजिए कि शोर अन्तस में कहीं गहरे समा गया है। इसे पाटने में माही, ताप्ती, रेवा, नर्मदा, कावेरी या गंगा का पानी भी कम पड़ेगा। अपने भीतर आवाज़ों और शोर का गोमुख होता है। इसकी दिशा हम ही तय करते हैं। हालाँकि यह देख-समझ पाने की स्थिति आने में उम्र का लम्बा हिस्सा चला जाता है। पर जिसने जितनी जल्दी समझकर आत्मसात कर लिया, समझो वह सारे शोर से दूर होकर व्योम में अदृश्यमान हो गया। 

यही है जो हमें पाना है। एक ब्रह्मनाद, जो लगातार बजता भी रहे और सुकून भी दे। अपने भीतर हम पहचान सकें कि आवाज़, शोर, शान्ति, सुकून, सरसराहट और झींगुरों के महीन संगीत का क्या फर्क है। शाम को डैनों पर लौटते कबूतरों की आवाज़ का अर्थ क्या है। अमावस को रंगीन बनाने के लिए पहले प्रकाश की लड़ियों और उनके पीछे की आवाजों की व्याकुलता क्या है।

कबीर कहते हैं…

“इस घट अंतर बाग बगीचे 
इसी में सिरजनहारा

इस घट अंतर सात समन्दर
इसी में नौ लख तारा

इस घट अंतर पारस मोती
इसी में परखनहारा

इस घट अंतर अनहद गरजै
इसी में उठत फुहारा

कहत कबीर सुनो भाई साधु
इसी में साई हमारा।”

अपने भीतर के शोर को सुनता हूँ। फिर सुनने-गुनने में लग जाता हूँ। दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..

और उठता हूँ…चलने की तैयारी करता हूँ …

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 15वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…

13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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