ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
“हाँ! तुम्हारी बहन ने मुझे यह भेंट दी थीं,” फिर कुछ ठहर कर बोली, “और ये चाँदी की पायल भी। मुझे हमेशा पता होता है कि वह कहाँ है। अंबा को मेरी चिंता रहती है। क्योंकि उसने मुझे देखा है कि कैसे मैं थोड़े से दूध और पनीर के लिए रोज लंबी-लंबी लाइन में लगती हूँ। पेट से होने के बावजूद। वह सब जानती है।”
यह सुनकर उसे जोर का झटका लगा। अभी तक जैसे वह खाली हाथ थी। लेकिन अब यकायक चाकू लहराने लगी हो।
“क्या…, क्या कहा तुमने? तुम पेट से हो?,” गुस्से से नकुल की आवाज काँप उठी।
“हाँ, होरी माता का आशीर्वाद है! मैं आज रात तुम्हें यह खुशखबरी देकर चौंकाना चाहती थी!”, कहते हुए उसने मुँह फुला लिया।
“तुमने उस शापित औरत को बता दिया कि तुम्हारे पेट में बच्चा है? और मुझे, अपने पति को नहीं बताया!”
“कहा न, मैं तुम्हें चौंकाना चाहती थी। और अंबा कोई शापित औरत नहीं है।”
“तुम मुझसे बातें छिपाना सीख रही हो, क्या तुम्हें ये सब भी मेरी वही शापित बहन सिखा रही है?”
“तुमसे झूठ बोलना? नहीं! वह सिर्फ मेरा ख्याल रखती है।”
“तुम्हारा ख्याल रखने के लिए तुम्हारा पति है! फिर तुम्हें उसकी जरूरत क्यों पड़ गई? और तुम्हें उससे ये उपहार वगैरा भी नहीं लेने चाहिए। कल सुबह पहली फुरसत में तुम उसे यह सब लौटाओ।”
“मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली।”
“तुम उस शापित महिला के दिए उपहार वापस करोगी। उससे मिली किसी चीज से अच्छा फल नहीं मिलने वाला। सिर्फ बर्बादी ही नसीब होगी। हमें उसकी मदद की जरूरत नहीं है। क्या मैं तुम्हारा ध्यान रखने के लिए काफी नहीं हूँ? आखिर तुम्हें कितने लोग चाहिए?”
“मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी। ईर्ष्या के कारण तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है अभी।”
“क्या मतलब है तुम्हारा? मैं अपनी बहन से जलता हूँ?”
“मैं बस इतना कह रही हूँ कि दिमाग में इतनी नफरत पाल कर मत रखो। इससे पहले कि यह नासूर बन जाए, छोड़ दो इसे। दूर हो जाओ इससे।”
“तेरा दिमाग खराब हो गया है, बेवकूफ औरत।”
“चिल्लाओ मत! मेरे पेट में पल रहे बच्चे को डरा रहे हो तुम। और चलो अगर मान भी लें कि उसमें ऐसा कुछ है, जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं, तब भी उसने हमारा कभी बुरा नहीं किया है। वह तुम्हारी बहन है। हमारे बच्चे में भी वही खून है, वही माँस है, जो उसमें है।”
“ये सब नहीं जानता मैं! तुम बस ये कान खोलकर सुन लो, मेरे लौटने से पहले ये बछड़ी यहाँ दिखनी नहीं चाहिए। नहीं तो मैं खुद इसे कसाई के पास छोड़कर आऊँगा,” उसने चेतावनी दी और बाहर की तरफ जाने लगा। उसकी आवाज अब भी गुस्से से काँप रही थी। उसमें यह आशंका भी साफ झलक रही थी कि तारा उसकी बात न मानने पर उतारू हो सकती है।
“वापस लौटो… तुम अभी के अभी वापस आओ! अजीब आदमी हो तुम! अपनी बदनसीबी को भी इतनी जोर से पकड़ कर रखे हुए हो तुम। तुम्हें नजर नहीं आता कि किसी पिशाच की तरह ये सोच तुम्हारी ताकत और हमारी खुशियों को छीन रही है….”
बाहर जाते-जाते नकुल ठिठक गया। गुस्से से ऐसे घूरकर उसने तारा की तरफ देखा कि उसने अपनी बात बीच में छोड़ दी। उसके ऊपर के होंठ सिकुड़ गए। उसके चेहरे के भावों से ऐसा लगा, जैसे तारा ने उसके जख्मों को कुरेद दिया हो।
“क्या ये सब कभी खत्म नहीं होगा? ये लड़ाई-झगड़ा?”
“कुछ भी कर लूँगा, कैसे भी रह लूँगा, पर मुझे उससे रहम की भीख नहीं चाहिए। मुझे अपना ख्याल रखने के लिए किसी ‘डायन’ की जरूरत नहीं है। तुम मेरी बीवी हो। तुम्हें मेरे मन मुताबिक चलना होगा। मेरी इच्छा का मान रखना होगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे पर उस कलंकिनी की छाया भी पड़े। दूर हो जाओ उससे।”
झगड़े के घंटों बाद भी नकुल गुस्से और ईर्ष्या से थरथरा रहा था। हालाँकि उसने इस बात को कभी माना नहीं। फिर भी इन भावनाओं ने उसे शर्म और आक्रोश से लाल-पीला कर दिया था। वह सबसे ज्यादा नफरत तभी महसूस करता था, जब उसे याद दिलाया जाता कि वह उसका भाई है। बचपन से ही उसके आस-पास अजीब सा माहौल तारी रहता था। गाँव में वह इकलौती ऐसी लड़की थी, जो उन लोगों को अपना माता-पिता और भाई कहती थी, जो न उसकी तरह दिखते थे और न उसके जैसे काम ही करते थे। उसके जैसी लड़की इन लोगों के यहाँ इसलिए पैदा नहीं हुई थी कि भगवान ने उनके परिवार पर कोई ज्यादा दया दिखाई थी।
कितनी अजीब बात है न? कुछ चीजें यादों के पटल पर बिलकुल सोने की तरह साफ-साफ चमकती रहती हैं। लोग उन लोगों को मुड़-मुड़ कर देखा करते थे। उनकी तरफ इशारे करते। कानाफूसी किया करते थे। हमेशा ही फब्तियाँ कसते थे। आस-पड़ोस की लड़कियाँ, लंबे-चौड़े लड़के मजाक उड़ाते हुए कहते, देखो-देखो, वो उस अजीब लड़की का भाई। बहुत यातना भरे थे वे दिन। बुखार में अक्सर आने वाले बुरे सपनों की तरह बड़ी मुश्किल से गुजरे थे। उसके बारे में तमाम बातें होती थीं। वह सबसे अलग थी। असाधारण पहचान थी उसकी। सभी से बड़ा होने का एहसास था उसमें। जबकि वह (नकुल) उसके मुकाबले खुद को साधारण और महत्त्वहीन सा महसूस करता था। उसे हमेशा लगता था कि जब तक वह जिंदा रहेगी, वह ऐसा ही रहेगा। महत्त्वहीन। जब तक कि वह कुछ करता नहीं।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ
8- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह उस दिशा में बढ़ रहा है, जहाँ मौत निश्चित है!
7- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुअरों की तरह हम मार दिए जाने वाले हैं!
6- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बुढ़िया, तूने उस कलंकिनी का नाम लेने की हिम्मत कैसे की!
5. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : “मर जाने दो इसे”, ये पहले शब्द थे, जो उसके लिए निकाले गए
4. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मौत को जिंदगी से कहीं ज्यादा जगह चाहिए होती है!
3 मायावी अंबा और शैतान : “अरे ये लाशें हैं, लाशें… इन्हें कुछ महसूस नहीं होगा”
2. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वे लोग नहीं जानते थे कि प्रतिशोध उनका पीछा कर रहा है!
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