‘मायावी अंबा और शैतान’ : मैडबुल को ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ से सख्त नफरत थी!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

वैसे, कुछ लोग कहा करते थे कि बैकाल जेल वास्तव में पूरी जेल-व्यवस्था का नियंत्रण तंत्र है। यहाँ दूसरी जगहों से भी तमाम खतरनाक कैदी भेजे जाते थे। कुछ बदकिस्मत कैदी जिन्हें वाकई इस जेल में समय बिताना पड़ा, अक्सर भीतर के बेहद खतरनाक माहौल के बारे में कानाफूसी किया करते थे। ऐसा माहौल, जिससे वे कभी छुटकारा नहीं पा सके।
असल में, मैडबुल की जेल से तो कोई शख्स बाहर आ सकता था लेकिन खुद उसके शिकंजे से आजाद होना मुमकिन नहीं था। अपराधी, विध्वंस, आगजनी करने वाले और हाल ही के सामाजिक कार्यकर्ताओं को खास तौर पर उसकी जेल में भेजा जाता था। ताकि उनके व्यवहार का वहाँ अध्ययन किया जा सके। इसी हिसाब से उन्हें दंड दिया जा सके या फिर उनका अन्य उपचार किया जा सके। और रोजी मैडबुल की निगरानी में ‘उपचार’ का मतलब ही ये होता था कि विरोध के किसी भी विचार को पूरी तरह खत्म कर देना। उसकी बर्बरता के किस्से चश्मदीदों के हवाले से खूब कहे-सुने जाते थे। अलबत्ता, किसी को इसकी ज्यादा परवा नहीं थी कि असामान्य, मानसिक विकृत और धरती पर बोझ बन चुके अपराधियों के साथ कैदखाने की दीवारों के पीछे किस तरह का बर्ताव किया जाता है।

यह सब चलता रहता। पर जल्द ही लोगों के एक अलग वर्ग – सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया। मैडबुल को इन ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ से सख्त नफरत थी। वह उन्हें ‘कृतघ्न परजीवी’, ‘कीड़े-मकोड़े’ कहा करता था। हालाँकि वे अधिकांश अच्छी नौकरियाँ करने वाले, उच्च शिक्षित सौम्य बुद्धिजीवी होते थे। ऐसे, जिन्होंने कोई प्रतिबंधित कविता पढ़ी हो या किसी धरना-प्रदर्शन में हिस्सा लिया हो या ऐसा कोई रेडियो भाषण पढ़ा हो, जिस पर रोक लगाई गई थी। पर उन्हें उनकी इस गुस्ताखी की कीमत चुकानी पड़ती थी। लगातार, भरपूर चुकानी पड़ रही थी।

अपने खास किस्म के उद्दंड बर्ताव के तहत वह (मैडबुल) ‘उनसे बातें किया करता’ था। परेशान करने वाले सवाल पूछने के लिए उन्हें उकसाता था। उनके दिल-दिमाग को पहले उम्मीद की किरण दिखाता था। निर्मम सरकार के विरुद्ध खुद को उनके सहयोगी के रूप में पेश करता था। यह तब तक चलता, जब तक कि वे लोग किस्मत को कोसने नहीं लग जाते। जेल की अपनी कोठरी की दीवारों के कोने-कोने पर अन्याय, अत्याचार के खिलाफ खुलकर मन की बातें न लिख डालते। सरकार को कोसने नहीं लग जाते। इसके बाद वह इन दीवारों पर उन लोगों के ऐसे कारनामों की तसवीरें खिंचवा लेता। इन तसवीरों को उन लोगों की ‘हिंसक’ मानसिकता के सबूत के रूप में सुरक्षित रखवा देता।

इस तरह वह उन लोगों के साथ खेल खेला करता था। वे लोग अपना ज्यादातर समय यातना की कोठरी में बिताया करते थे। परिजनों के फोन का इंतजार करते रहते। परिवार के किसी सदस्य या दोस्तों से मुलाकात की राह तकते। लेकिन उनकी प्रतीक्षा कभी खत्म नहीं होती। उम्मीद कभी पूरी नहीं होती। ऐसे में बहुत से कैदी अपनी कैद की अवधि पूरी नहीं कर पाते थे। वे या तो मानसिक तौर पर विक्षिप्त हो जाते या फिर आत्महत्या कर लेते। अथवा जेल से निकलकर भागते हुए मारे जाते। ऐसे एक मामले ने तब तूल पकड़ लिया, जब किसी कैदी ने जेल की दीवार फाँदकर भागने की कोशिश की। उस वक्त बिजली कटौती का समय था। इसलिए जेल की दीवारों के ऊपर लगी लोहे की बाड़ में करंट नहीं था। इसी का फायदा उठाकर उस कैदी ने सोचा कि वह जेल के पीछे कूदकर जंगल में भाग जाएगा। लेकिन वह अभी बमुश्किल 100 मीटर भी नहीं भाग पाया था कि जेल परिसर में पालकर रखे गए कुत्ते उस पर टूट पड़े। खूँख्वार भूखे कुत्तों ने पल भर में उसके शरीर की बोटी-बोटी नोंच डाली। उसकी चीखें घंटों तक जेल के आस-पास सुनाई देती रहीं।

कहा जाता है कि जेल के मुखिया (मैडबुल) ने जानकर उस कैदी को बचाने में तत्परता नहीं दिखाई। और बाद में जब सुरक्षा गार्ड उसे बचाने पहुँचे, तब तक उसके शरीर में सिर और दो-चार अँगुलियों के अलावा ज्यादा कुछ बचा नहीं था। इस घटना के बाद खूब हंगामा हुआ। जेल के मानवाधिकार अधिकारी नाथन रे की अगुवाई में जाँच समिति बैठी। नाथन रे को किसी तरह प्रभावित कर पाना या डराना-धमकाना संभव नहीं था। लिहाजा, उन्होंने अपनी जाँच रिपोर्ट में ऐसे कारनामों के लिए मैडबुल को दोषी करार दिया। इसके बाद उसे पाँच साल के लिए निलम्बित कर दिया गया। बाद में तैनाती मिली भी तो सूदूर होरी पर्वतीय अंचल की एक जेल में। इस तरह, नाथन और मैडबुल के बीच वह आख़िरी मुलाकात दुश्मनी पर खत्म हुई। क्योंकि आगे मैडबुल ने हमेशा के लिए नाथन रे से बैर बाँध लिया। उसने अपनी सजा और दंडित पदस्थापना के लिए नाथन को ही दोषी माना। और, महीनों तक यही साजिश रचता रहा कि कैसे नाथन उसे कमजोर हाल में मिले तो वह उससे हिसाब बराबर करे। 
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

13- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : देश को खतरा है तो हबीशियों से, ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं
12- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बेवकूफ इंसान ही दौलत देखकर अपने होश गँवा देते हैं
11- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : तुझे पता है वे लोग पीठ पीछे मुझे क्या कहते हैं…..‘मौत’
10- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : पुजारी ने उस लड़के में ‘उसे’ सूँघ लिया था और हमें भी!
9- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मुझे अपना ख्याल रखने के लिए किसी ‘डायन’ की जरूरत नहीं!
8- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह उस दिशा में बढ़ रहा है, जहाँ मौत निश्चित है!
7- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुअरों की तरह हम मार दिए जाने वाले हैं!
6- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बुढ़िया, तूने उस कलंकिनी का नाम लेने की हिम्मत कैसे की!
5. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : “मर जाने दो इसे”, ये पहले शब्द थे, जो उसके लिए निकाले गए
4. ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मौत को जिंदगी से कहीं ज्यादा जगह चाहिए होती है!

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