‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

जोतसोमा के घने जंगलों की अंतहीन टेढी-मेढ़ी राहों पर एक अजनबी आकृति उदास सी भटक रही थी। मानो वह जादू-टोने और भटकती आत्माओं की मायावी दुनिया से कहीं दूर दो पल आराम से बिताना चाहती हो। ऊर्जा और जुनून की इस डरावनी विधा ने उसे हर तरफ से घेर रखा था। घने आवरण की तरह हमेशा उसके ऊपर मँडराती रहती थी। उसके और उसकी इस विधा के बारे में अगर कभी कोई कुछ लिखे या उकेरे तो कागज पर एक भयावह किंतु सम्मोहक जादूगरनी का अड्‌डा उभरेगा। ऐसा आकर्षक और मंत्रमुग्ध करता हुआ कि देखने वाले के पास उसके मोहपाश में जकड़ जाने के अलावा कोई चारा न रहे। पटाला की मायावी दुनिया थी ही ऐसी।

उत्तर दिशा की गहरी वादियों में रोंगटे खड़े कर देने वाली खतरनाक बर्फीली सतह दूर तक फैली हुई थी। लेकिन पटाला के लिए वह कोई मायने नहीं रखती थी। वह घने कोहरे के बीच उस पर बड़ी आसानी से चलती जाती थी। मानो उसके पैरों में खुर लगे हों। हालाँकि बीच-बीच में ऊबड़-खाबड़ चट्‌टानों के नुकीले सिरे उसके तलवों में धँसे भी थे। इससे उस फिसलन भरी सतह पर आगे बढ़ना उसके लिए मुश्किल होता जाता था। उसके चारों ओर दूर-दूर तक जंगली इलाका था। उसमें चट्‌टानों, रेत, घास और पेड़ों ने अपने अद्भुत संसार की रचना की हुई थी। यह जगह अब भी इंसान की रिहायशी और व्यावसायिक गतिविधियों की पहुँच से दूर थी। पुरानी वनस्पति के विशाल गोभीनुमा फूल दूर-दूर तक नजर आते थे। उन पर बर्फ की सफेदी चढ़ी थी। पेड़ों से झड़े शाहबलूत को काई ने विभिन्न आकृतियों में सजा दिया था। झाड़ियों पर जहरीली झड़बेरियों के बड़े-बड़े गुच्छे लटकते थे। पेड़ों की टहनियाँ, लताएँ मानो आकाश को छूने की धुन में ऊपर ही ऊपर चढ़ती जाती थीं। इन सभी ने फैलकर ऐसी छतरीनुमा आकृति बना ली थी कि सूरज की रोशनी को नीचे धरती तक पहुँचने का रास्ता ही नहीं मिलता था। ये जगह इंसानों के लिए तो कतई माकूल नहीं थी।

पटाला पूरे दिन उस इलाके की खाक छानती रही। कई एकड़ में फैली पीली-हरी काई के बीच भटकती रही, जो हर हाल में अस्तित्त्व बचाए रखना जानती है। बुरे वक्त में वह मृतप्राय सी हो जाती है और हालात सुधरने की प्रतीक्षा करती है। पटाला ठूँठ जैसी जड़ों, चीड़ की सूखी पत्तियों, तरह-तरह के फूलों और वनस्पतियों के बीच कुछ खोजती रही। उस रोज पूर्णिमा थी। उसकी कौतूहल भरी निगाहों ने जंगल का कोना-कोना छान मारा। बर्फ से ढँके चकमक पत्थरों के बीच, ओस से ढँकी पेड़ों की टूटी टहनियों के दरमियान, घास-फूस, झाड़-झंखाड़ और काई के ढेरों में भी। कोई जगह नहीं छोड़ी उसने। पटुआ के नन्हे-नन्हे पौधे रिमझिम बारिश से धुल गए थे। संध्या मालती की पत्तियाँ भूरे लाल रंग की हो गईं थीं। इधर, रात भी होने वाली थी और अब तक वह केवल नींबू जैसी महक वाली कुछ जड़ें ही खोज पाई थी, जिनमें दो साल में एक बार फूल आते हैं। वह जो घोल तैयार कर रही थी, उसमें ये जड़ें अच्छे किस्म के नमक की तरह काम आने वाली थीं। इस तलाश के दौरान उसे अब तक भान ही नहीं हुआ था कि दिन बीत चुका है। वह तो घोंसलों में लौटते पक्षियों की चहचहाहट ने एहसास दिलाया कि अब उसके लिए भी वहाँ से वापसी का समय हो चुका है।

तभी अचानक कुहासा छँट गया। पहाड़ों में ऐसा अक्सर होता है। कुहासा छँटने से नीचे दूर पहाड़ की तलहटी में बसा शहर हल्की चाँदनी में चमक उठा। उसने ठहरकर उसे घूरकर देखा। उसकी आँखों में भारी नफरत थी। साथ में उत्सुकता भरी धर्मनिष्ठा भी। अभी पहाड़ पर वह सुरक्षित थी मगर नीचे शहर बेचैन था शायद। ऐसा लगा उसे। तभी तो वह चीख-चीखकर उसे कोसने लगी। चेतावनियाँ देने लगी। उसके जेहन में वे तमाम घटनाएँ कौंध गईं कि इस शहर ने कैसे उसके साथ विश्वासघात किया। किस तरह उसे बेइज्जत किया। उसी समय अचानक गहन अंधकार के बीच तेज आवाज के साथ बिजली कौंध गई। ऐसे, जैसे आसमान से किसी ने भाला फेंक मारा हो। बिजली की उस चमक से एक पल के लिए वह शहर भी रौशन हो गया। वह अभी यूँ सोया पड़ा था, जैसे किसी नशे की गिरफ्त में हो। अब तक बर्फीली हवाएँ तेज हो गईं थीं। इससे पटाला के चेहरे पर लिपटा कपड़ा एकदम कस गया था। उसे साँस ले पाने में भी मुश्किल होने लगी थी। हवा के साथ उड़कर आए बर्फ के छोटे-छोटे सफेद कतरे उसकी नाक और मुँह पर जमा हो गए थे। उनकी चुभन से उसे यूँ लगा जैसे रेगिस्तानी इलाके में चिलचिलाती रेत के कण उससे टकराए हों।

इसी वक्त उसकी परेशानी कुछ और बढ़ाने का काम हो गया। बादल फट पड़े। बर्फीला पानी किसी ज्वालामुखी से निकले लावे की तरह नीचे की ओर बह चला। बादलों से नीचे आती बूँदें ऐसी लगीं मानो कोई आसमान से पानी से भरे गुब्बारे फेंक रहा हो। इस मूसलधार बारिश से बचने के लिए उसने भागकर पहले एक जगह ऊँची घास के झुरमुट के नीचे शरण ली। फिर वहाँ से होते हुए अँधेरी, घनी झाड़ियों में घुस गई। अलबत्ता वहाँ कदम रखते ही उसकी आँखें चमक गईं। यह जगह रसदार झड़बेरियों और कंदमूल का खजाना थी। यहाँ उसे उसके काम की कुछ और चीजें हाथ लग सकती थीं। लिहाजा, उसने पुरानी सड़ी-गली पेड़ के शाखों को उलट-पलटकर खोजना शुरू कर दिया। वह खास किस्म के कीड़ों और फफूँद की तलाश में थी कि तभी एक अजनबी गंध ने उसे चौंका दिया। इसलिए, उसने खोजबीन रोक दी। अब वह सूँघ-सूँघकर उस जगह तक पहुँचने की कोशिश में लग गई जहाँ से अजीब गंध आ रही थी।

पटाला जल्दी ही अजनबी गंध के स्रोत तक पहुँच गई। एक बड़ी सी चट्‌टान के पीछे उसने भारी-भरकम भैंस का शव पड़ा देखा। उसे देखकर वह खुशी से फूली नहीं समाई। उस मरी भैंस के अलग-अलग हिस्सों के माँस की तस्वीरें उसके दिमाग में तैर गईं। मुँह में पानी आ गया। उसे एहसास हुआ कि भूख के कारण अब वह कुछ और सोचने-समझने के लायक ही नहीं रही। इतनी बड़ी भैंस का मतलब था कि उसे और उसके सभी पालतू पशुओं के लिए पूरे महीने के भोजन का इंतजाम होना। इससे पहले उसने एक छोटे पोखर से जो मछली पकड़ी थी, वह बेस्वाद थी। उसके कांटों बीच से जो थोड़ा-बहुत माँस उसने किसी तरह निकाला, वह चबाने में उसे रबर जैसा लगा था। लेकिन अब अपनी खुशकिस्मती का शुक्रिया कह रही थी।

पटाला को उम्मीद थी कि ठंड के कारण वह मरी हुई भैंस इतनी जमी नहीं होगी कि उसे काटना मुश्किल हो जाए। हालाँकि उसे इस एहसास ने थोड़ा निराश भी किया कि इतनी बड़ी भैंस को घसीट कर जंगल में ही स्थित अपनी रसोई तक ले जाना उसके बूते से बाहर था। मगर फिर भी अगर वह उसे टुकड़ों में काट ले तो पाँच-छह बार में ले जा सकती थी। लिहाजा, वह हाथ में बड़ा सा चाकू पकड़कर उस मरी हुई भैंस के ऊपर चढ़ बैठी। हालाँकि तभी उसे दाल में कुछ काला महसूस हुआ। क्या भैंस के पेट में बच्चा है? यह सोचते ही वह खुशी से झूम गई। भैंस के बच्चे का मुलायम माँस! वह तो उसका पसंदीदा था। हालाँकि उसकी यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकी क्योंकि भरसका कोशिश के बाद भी उसका चाकू भैंस के शरीर में एक इंच से ज्यादा भीतर धँस नहीं रहा था। लगता था जैसे किसी सतह पर अटक जाता हो। मगर यह कैसे संभव था? आखिर ये था क्या? और फिर उसने चंद पलों में अंदाज लगा लिया कि भैंस के शरीर के भीतर आखिर क्या है!

एक मानव शरीर! यह कैसे हो सकता है?

जल्द ही उसके दिमाग में साफ हो गया कि भैंस के पेट में जो भी है, पर वह निश्चित ही उसका बच्चा तो नहीं है। उसका दिल अब तेजी से धड़कने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। झाड़-फूँक करते समय भी नहीं। क्या इसलिए कि मरी हुई भैंस के शरीर में किसी इंसानी जिस्म के होने की कल्पना मात्र से वह सशंकित थी?

पटाला ने अब बड़ी सावधानी और सफाई के साथ चाकू से भैंस का पेट फाड़ा। वहाँ थोड़ी गुंजाइश अभी बनी ही थी कि तेज आवाज के साथ एक युवा आकृति बाहर आ गिरी। बर्फ सी ठोस, खून से लथपथ। एक लड़की।

एक लड़की – !

पटाला को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ कि उसने जो देखा, क्या वह सच है? सामान्य समझ की बात है कि भले एक बार सूरज पूरब से निकलना बंद कर दे मगर कोई भैंस किसी इंसान को जिंदा नहीं निगल सकती।

तो क्या ठंड और भयंकर जंगली जानवरों से बचने के लिए यह लड़की खुद इस भैंस के भीतर घुसी थी? लेकिन इसके लिए तो उसे भैंस को मारना पड़ता। और भैंस का भारी-भरकम शरीर देखकर तो यही लगता था कि अगर लड़की ने इसे मारा है, तो जरूर वह बहुत ताकतवर रही होगी।

मगर उसे मिला क्या? कुछ नहीं। अंत में खुद खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह। यह सोचकर ही पटाला के मुँह का जायका खराब हो गया। भैंस के लजीज माँस की तलब अब जाती रही। उसने सब वैसे ही छोड़कर वहाँ से जाने की तैयारी कर ली। मान लिया कि जोतसोमा का घना जंगल इन दोनों का मामला निपटा ही देगा। यह सोचकर वह लौटने के लिए अभी मुड़ी ही थी कि उसे कुछ महसूस हुआ।

जैसे कोई साँस।

कोई फुसफुसाहट।

हवा की सरसराहट भी हो सकती थी वह।

लेकिन कुछ था, जिसने उसे रोक लिया। रुककर उसने बड़ी मुश्किल से उस लड़की को किसी तरह पीठ के बल लिटा दिया। उसकी आँखें खुली हुई थीं पर एक जगह पर टिकी नहीं थीं। लगता था, जैसे वह आसमान में किसी काल्पनिक बिंदु को खोज रही हो। उसकी काया लगभग बेजान थी कि तभी उसने अचानक पलकें झपका दीं। यह देख पटाला हैरान रह गई। उसे याद नहीं आया कि उसने ऐसा करिश्मा इससे पहले कब देखा था।

पटाला अभी कुछ समझती कि एक और विचित्र घटना हुई, जिसके लिए वह तैयार नहीं थी। उसके शरीर में कुछ करंट जैसा दौड़ गया। बुरी तरह काँप गई वह। उसने महसूस किया कि कई आवाजें उससे बात कर रही थीं। इन आवाजों का मिला-जुला शोर ऐसा था, जैसे तूफानी बारिश में किसी ने बंदूक से गोलियाँ दागी हों।

#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

39 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह कुछ और सोच पाता कि उसका भेजा उड़ गया
38- मायावी अम्बा और शैतान : वे तो मारने ही आए थे, बात करने नहीं
37 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम्हारे लोग मारे जाते हैं, तो उसके जिम्मेदार तुम होगे
36 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: ऐसा दूध-मक्खन रोज खाने मिले तो डॉक्टर की जरूरत नहीं
35- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : इत्तिफाक पर कमजोर सोच वाले लोग भरोसा करते हैं
34- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जो गैरजिम्मेदार, वह कमजोर कड़ी
33- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह वापस लौटेगी, डायनें बदला जरूर लेती हैं
32- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह अचरज में थी कि क्या उसकी मौत ऐसे होनी लिखी है?
31- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब वह खुद भैंस बन गई थी
30- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून और आस्था को कुरबानी चाहिए होती है

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Neelesh Dwivedi

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