ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
बर्फीली ओस ने उसके चेहरे को जो ठंडक दी, वह किसी नए आतंक की आमद का ऐलान भी था। इसलिए कि इससे पहले किसी को याद तक नहीं होगा कि हवा में इतने असाधारण रूप से ठंडक कब घुली थी। यह क्षण एक बड़े बदलाव को चिह्नित करने वाला था। इसमें एक ही चीज निश्चित जान पड़ती थी कि ऐसा कुछ आरंभ होने वाला था, जिसे न कोई पूरी तरह समझ सकता था, न रोक सकता था और न ही उसे उलट सकता था।
महिलाओं और बच्चों के साथ पुरुष भी अब एक-दूसरे के करीब आ गए थे। सटकर बैठे थे। रैड-हाउंड्स ने किसी हमले की आशंका में पहले ही अपनी-अपनी जगह सँभाल ली थी। बंदूकें तान ली थीं। थोड़ी ही वे बंदूकें लहराकर जंगल की ओर गोलियाँ दागने लगे। उनकी हैरान निगाहें उन पेड़ों पर टिकी थीं, जो अजीब तरह से झुके हुए थे। उन्हें आशंका थी कि हमलावर उन्हीं पेड़ों पर छिपा हो सकता है। तभी जंगल के उस पार से एक हल्की सी सरसराहट, एक भन्नाहट की आवाज आने लगी।
“शैतान… शैतान है यहाँ.. शैतान —,”
“वे आ रहे हैं, आ रहे हैं वे—”
“राक्षस — शैतान…”
“डायन का अभिशाप है ये, हे भगवान हमें बचाओ —”
“बेवकूफो, अपनी बकवास बंद करो—!” मथेरा ने जोर से चिल्लाकर भयभीत ग्रामीणों को चुप कराने की कोशिश की। लेकिन सच तो यह था कि वह और उसके रैड-हाउंड्स के जवान भी घबराए हुए थे। जबकि उनके पास न तो आधुनिक बंदूकों की कमी थी और न ही गोला-बारूद की। जब से उन्हें पता चला था कि किसी दूसरी दुनिया की सैकड़ों आँखें उन पर टिक चुकी हैं, तभी से वे बुरी तरह भयग्रस्त थे।
शुरुआत हुई तो, पहले-पहल पत्तियाँ, टहनियाँ और छोटे कंकड़-पत्थर उड़कर आपस में चिपकने लगे। फिर बड़ी चट्टानें, रेतीले पत्थर भी उड़ना शुरू हो गए। झाड़ियाँ उखड़ गईं। हवाओं के तेज झोंकों ने इन तमाम चीजों के साथ मिलकर बवंडर का रूप ले लिया। जमीन फटने लगी। इससे लंबे समय से झाड़-झंखाड़ में दबी कब्रें खुलकर बाहर झाँकने लगीं।
देखते-देखते ही बवंडर में चिंगारियाँ उठने लगीं। उसे देखकर पहले तो ऐसा लगा जैसा सभी चिंगारियाँ नीचे की ओर कहीं जाकर शांत होने वाली होँ। लेकिन वे बवंडर में केंद्र में जाकर खत्म या शांत नहीं हुईं। बल्कि धीरे-धीरे इन सभी ने मिलकर एक औसत इंसान जैसा आकार ले लिया।
“बेवकूफ मत बनो। यह जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, जिसे देखकर तुम लोग चकरा रहे हो, यह और कुछ नहीं महज विद्युतीय संघटना है। ऐसा होता रहता है —,”
हालाँकि उसी वक्त अचानक वह सब ठहर गया। जहाँ का तहाँ धीरे-धीरे झूलने लगा।
“देखो मैंने नहीं कहा था कि यह कोई जादू-वादू नहीं है। किसी डायन की कोई जादूगरी नहीं है यह।”
“हमें अपना काम पूरा करके यहाँ से निकल लेना चाहिए—,”
“देखो — देखो — हे भगवान!
“वे यहीं हैं— यहीं हैं वे, यहीं…!”
“वे चारों ओर हैं— मैं उनकी आँखों, उनके दाँतों को महसूस कर सकता हूँ—”
“हे भगवान —!”
इसी बीच, बवंडर में जो आकृति उभरी, उसने गंदी बदबूदार नि:श्वास छोड़ी। वह नि:श्वास पलभर में ही धुंध में बदल गई और सबके सामने गोल-गोल चक्कर काटने लगी। घूमते हुए वह धुंध लगातार अपनी जगह बदल रही थी। उसे देखना भी डरावना था। अब तक हरेक शख्स को एहसास हो चुका था कि उनसे कहीं ज्यादा बड़ी और अधिक शक्तिशाली परछाइयाँ वहाँ मौजूद हैं। इससे वे सब डरे हुए थे और उनका डर बढ़ता ही जा रहा था। लगता था, जैसे उन इंसानों का डर ही उन परछाइयों की खुराक हो क्योंकि जैसे-जैसे लोगों का डर बढ़ रहा था, उनकी मौजूदगी अधिक सशक्त होती जाती थी। वह घूमने वाली ‘धुध’ अब सिकुड़कर घनी हो गई थी। ऐसा लगने लगा जैसे वह किसी भ्रूण का आकार ले रही हो। उसमें भ्रूण के सिर जैसा उभार, उसी के जैसी मुड़ी हुई रीढ़ और चार कलियाँ दिखाई देने लगी थीं। ऐसे कि मानो भ्रूण के हाथ-पैर निकल रहे होँ। वह आकृति लगातार बड़ी हो रही थी।
तभी अचानक वह आकृति पागल सी हो गई। बिना किसी रोक-टोक के किसी भी दिशा में फिर घूमने लगी। पलक झपकते ही उसने वहाँ मौजूद लोगों को अपने घेरे में ले लिया। उनके ऊपर ऐसे छा गई कि सौ गज की दूरी पर भी कुछ दिखाई नहीं देता था।
कुछ देर में वह धुंध जब छँटी तो पूरा इलाका खाली हो चुका था। एक भी इंसान वहाँ नजर नहीं आता था। सब खाली हो चुका था। गोल, गोल, गोल…. और सब गुल हो गए थे।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
74 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : किसी लड़ाई का फैसला एक पल में नहीं होता
73 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल दहाड़ा- बर्बर होरी घाटी में ‘सभ्यता’ घुसपैठ कर चुकी है
72 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: नकुल मर चुका है, वह मर चुका है अंबा!
71 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: डर गुस्से की तरह नहीं होता, यह अलग-अलग चरणों में आता है!
70 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: आखिरी अंजाम तक, क्या मतलब है तुम्हारा?
69 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: जंगल में महज किसी की मौत से कहानी खत्म नहीं होती!
68 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: मैं उसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकता, वह मुझसे प्यार करता था!
67 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उस वासना को तुम प्यार कहते हो? मुझे भी जानवर बना दिया तुमने!
66 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उस घिनौने रहस्य से परदा हटते ही उसकी आँखें फटी रह गईं
65 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : नकुल में बदलाव तब से आया, जब माँ के साथ दुष्कर्म हुआ
शृंखला के पूर्व भागों में हमने सनातन के नाम पर प्रचलित भ्रांतियों को देखा। इन… Read More
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