प्रतीकात्मक तस्वीर
ज़ीनत ज़ैदी, शाहदरा, दिल्ली से
क्या इंसान का वजूद महज़ एक पुतले जितना है? जो दुनिया के बनाए कानून और रस्मों का आँखें बन्द कर पालन करे, बस? आखिर क्यों हमने समाज को इतनी ताकत दी कि वो निश्चय करे हमारे लिए कि क्या सही है और क्या गलत?
इंसान क्या पहने, इस बात से लेकर किस क्षेत्र में नौकरी करे तक, हमें यह समाज बताता है। ये हमें मजबूर करता है उन पुराने तौर-तरीकों का पालन करने के लिए जो 100-200 साल पहले भी वही थे। अगर आप बदकिस्मती से महिला हैं, तो इसका कानून आपके लिए अंगारों पर चलने जितना मुश्किल है। कहाँ जाना है, से लेकर केसे चलना है, क्या पहनना है, किससे बात करनी है, क्या पढ़ना है, जैसे काम भी आपको सिखाने की जिम्मेदारी है समाज के रूढ़िवादी लोगों की। हमारा खोखला समाज अपने बदसूरत और घिनौने रंग में सबको ढालना चाहता है।
हमारी अच्छाई भले ही किसी को नज़र आए न आए लेकिन बुराई ‘odd one out’ की तरह निकालने में माहिर है ये समाज। इसने सिर्फ उनको स्वीकार किया है, जो इनके हिसाब से चले। बाकी को खरपतवार की तरह निकाल कर फेंक दिया है इसने। यहाँ हमारी कमियाँ अक्सर वही लोग पेश करते हैं, जो अस्ल में खुद नाकामयाब होते हैं। धर्म, रंग, जाति, और अमीर-गरीब आदि को लेकर लड़ाई-झगड़े इन्हीं नियमों की देन है।
अब तक 75 साल हो गए भारत की आजादी को। लेकिन आज भी हम गुलाम हैं। ‘लोग क्या कहेंगे’ के गुलाम। आखिर कब तक यंगस्टर्स नियमों को नजरंदाज करे? कब ये दुनिया हमें हमारे हिसाब से चलने देगी? कब तक हम यूँ ही उसूलों का बिना सोचे-समझे पालन करेंगे।
बाबासाहेब अम्बेडकर जैसी महान हस्तियाँ, अब्दुल कलाम, बबीता फोगाट ये लोग हैं, जिन्होंने समाज को अनसुना और अनदेखा किया। अपने सपनों को पूरा किया। वह वक्त आ गया है, जब हम अपने देश को फिर से आज़ाद करें। अबकी बार अंग्रेजों से नहीं, बल्कि उन रीति-रिवाज़ों से जिनका कोई वास्तविक अस्तित्त्व है ही नहीं।
अब हमें निकलना होगा समाज की हथकड़ियाँ तोड़कर। उड़ान भरने का वक्त आ गया है। एक नई सुबह के सूरज का आगाज़ करीब है।
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(ज़ीनत #अपनीडिजिटलडायरी के सजग पाठकों में से एक हैं। दिल्ली के आरपीवीवी, सूरजमलविहार स्कूल में 10वीं कक्षा में पढ़ती हैं। उन्होंने यह आर्टिकल सीधे #अपनीडिजिटलडायरी के ‘अपनी डायरी लिखिए’ सेक्शन पर पोस्ट किया है।)
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