मृच्छकटिकम्-15 : जो शरणागत का परित्याग करता है, उसका विजयलक्ष्मी परित्याग कर देती है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

चारुदत्त के साथ स्नेहिल मिलन से वसंतसेना अत्यधिक प्रसन्न है। दोनों रात्रि में साथ विश्राम करते हैं। सुबह जब वसंतसेना जगती है, तब तक चारुदत्त बगीचे में जा चुका होता है।

वसंतसेना देखती है कि रत्नावली उसी के पास रखी है। चारुदत्त ने वह आभूषण नहीं लिए, तो उन्हें वह अपनी सेविका को धूता को देने के लिए भेज देती है। धूता वे आभूषण लेने से मना कर देती है। यह कहते हुए, “ये आर्य ने प्रसन्न होकर वसंतसेना को दिए हैं। इसलिए इन्हें वापस नहीं लूँगी”।

तभी वहाँ चारुदत्त पुत्र रोहसेन के साथ रदनिका आती है। वह पुत्र से गाड़ी से खेलने के लिए कहती है।

बालक (दुखी होकर) : रदनिके! मुझे इस मिट्टी की गाड़ी से क्या मतलब, मुझे वह सोने की गाड़ी दो।

रदनिका (दुख के साथ) : तुम्हारे पिता के फिर से धनी होने पर सोने की गाड़ी से खेलने देंगे।

वसंतसेना : रदनिका! यह किसका बालक है? इस बालक का मुख देखकर मुझे आनंद हो रहा है।

रदनिका : आर्य चारुदत्त का पुत्र है।

वसंतसेना : आओ मेरे पुत्र! मेरा आलिंगन करो। अरे रो क्यों रहा है?

रदनिका : पड़ोस के घर-मालिक का पुत्र सोने की गाड़ी से खेल रहा था, और वह उस गाड़ी को ले गया। इसके बाद इसके फिर से माँगने पर मैंने मिट्टी की गाड़ी दे दी। लेकिन यह सोने की गाड़ी ही माँग रहा है।

वसंतसेना : ओह! दूसरे की सम्पत्ति से दुखी हो रहा है। हे भगवन्! आप भी कमल के पत्ते पर गिरी हुई जल बूंदों की तरह तुम मनुष्य के भाग्य से खिलवाड़ करते हो। पुत्र! रो मत, तुम सोने की गाड़ी से खेलोगे।

रोहसेन : यह कौन है?

वसंतसेना : यह तुम्हारे पिता जी के गुणों द्वारा वश में की गई दासी है।

बालक : रदनिके! तुम झूठ बोलती हो। अगर ये मेरी माता होती तो गहने नहीं पहने होती।

वसंतसेना : (दुःख से रोने लगती है और गहने उतार देती है) लो ये गहने उतार दिए, अब तो तुम्हारी माता हो गई। लो ये गहने इनकी गाड़ी बनवाओ।

बालक : दूर हटो, नहीं लूॅंगा, तुम रोती हो।

वसंतसेना : (आँसू पोछती हुई) पुत्र! नहीं रोऊँगीी, जाओ, खेलो। (आभूषणों को मिट्टी की गाड़ी में भर कर) लो पुत्र! अब सोने की गाड़ी बनवा लो।

सेवक : रदनिके! मान्या से कहो, गाड़ी द्वार पर खड़ी है।

रदनिका : मान्ये! गाड़ी द्वार पर खड़ी है।

वसंतसेना : क्षण भर रुको, तैयार होकर आती हूँ।

रदनिका : (सेवक से) मान्या आ रही हैं।

सेवक: रदनिके! मैं गाड़ी में नीचे बिछाने वाला कपड़ा भूल आया हूँ, तब तक जाकर ले आता हूँ।( गाड़ी लेकर निकल जाता है)

इस घटनाक्रम के दौरान ही, एक सेवक(स्थावरक) राजा के साले संस्थानक की आज्ञा से गाड़ी लेकर जा रहा होता है। रास्ते में कुछ देखने के लिए अपनी गाड़ी चारुदत्त के द्वार के पास खड़ी कर देता है। जिस गाड़ी को वसंतसेना अपनी गाड़ी समझ कर, उसमें बैठ जाती है। स्थावरक फिर से गाड़ी लेकर चल देता है।

वहीं आर्यक शर्विलक की सहायता से पहरेदारों को धोखा देकर जेल से भाग जाता है। चारुदत्त के घर का द्वार खुला देख, वहीं छुपने की कोशिश में है। तभी सेवक आकर रदनिका से गाड़ी बाहर खड़ी है, वसंतसेना को आकर बैठने का अनुरोध करता है। आर्यक गाड़ी को द्वार पर देख उसमें बैठ जाता है। सेवक यह सोच कर कि वसंतसेना गाड़ी में बैठ गई है, गाड़ी लेकर चल देता है।

वीरक चंदनक से अहीर पुत्र आर्यक को ढूँढ़ कर, पकड़कर लाने को कहता है। चंदनक को ढँकी हुई गाड़ी दिखाई दे जाती है। इसमें आर्यक छुपा बैठा है। चंदनक उस गाड़ी को देखकर सन्देह करता है, वीरक गाड़ी की तलाशी लेना चाहता है। यह चारुदत्त की गाड़ी है और वसंतसेना इसमें बैठी है, गाड़ीवान के ऐसा कहने पर चंदनक गाड़ी को बिना देखे जाने देता है।

“किसके विश्वास पर तुम यह गाड़ी बिना देखे जाने दे रहे हो”, वीरक के ऐसा सन्देह करने पर –

चंदनक : गुणों से युक्त, चंद्र तुल्य स्वभाव वाले, शरण में आए हुए के दुखों को दूर करने वाले चारुदत्त को नहीं जानते हो? इस नगरी में दो ही लोग श्रेष्ठ हैं – एक मान्या वसंतसेना और दूसरे धर्मात्मा आर्य चारुदत्त।

वीरक : चारुदत्त को भी जानता हूँ, वसंतसेना को भी जानता हूँ। लेकिन राज-काज के समय, मैं अपने पिता को भी नहीं जानता।

आर्यक (मन में सोचते हुए) : यह वीरक मेरा पूर्व शत्रु रहा है और चंदनक पूर्व मित्र रहा है। लेकिन एक ही कार्य में लगे रहने पर भी दोनों का स्वभाव एक जैसा नहीं है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विवाह की अग्नि और श्मशान की अग्नि एक जैसी नहीं होती। (एककार्य नियोगेऽपि नानयोस्तुल्यशीलता। विवाहे च चितायाश्च यथा हुतभुजोर्द्वयो )

वीरक और चंदनक गाड़ी देखने के लिए तैयार हो जाते हैं।

आर्यक (मन में सोचते हुए) : क्या ये सैनिक मुझे देख लेंगे? इस समय निहत्था हूँ। अथवा मुझे लड़ना चाहिए, जेल जाना उचित नहीं है।

चंदनक गाड़ी में चढ़कर निरीक्षण करता है, आर्यक “शरण में हूँ” ऐसा कहकर शरण माँगता है।

चंदनक : शरणागत को अभयदान है।

आर्यक : जो शरणागत का परित्याग करता है, उसका विजयलक्ष्मी परित्याग कर देती है। बंधु और मित्र उसको छोड़ देते हैं और हमेशा उसकी निन्दा होती है। (त्यजति किल तं जयश्रीर्जहति च मित्राणि बन्धुवर्गश्च च। भवति सदोपहास्यो यः खलु शरणागतं त्यजति ।)

चंदनक : यह मेरी शरण में है, निर्दोष है, आर्य चारुदत्त की गाड़ी में सवार है, मेरे मित्र का मित्र भी है।

दूसरी ओर राजा की आज्ञा है। इस समय क्या उचित है? जो भी हो, अभी अभयदान उचित है। भयभीत को अभयदान देने वाले परोपकारी व्यक्ति का विनाश भी होवे, तो होवे। क्योंकि विनाश के बाद भी संसार में ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा ही होती है। (भीताभयप्रदानं ददतः परोपकाररसिकस्य। यदि भवति भवतु नाशस्तथापि च लोके गुण एव।)

चंदनक गाड़ी से बाहर आकर वीरक से कहता है, मैंने निरीक्षण कर लिया है, आर्या वसंतसेना हैं। इसे जाने दो। वीरक को चंदनक पर सन्देह है। वह स्वयं गाड़ी देखना चाहता है। चंदनक वीरक से व्यर्थ कलह शुरू कर देता है। जिससे कि चारुदत्त की गाड़ी में राजा के शत्रु के छिपे होने के कारण चारुदत्त के चरित्र पर सन्देह न हो और मित्र आर्यक भी बच जाए। कलह के कारण वीरक न्यायालय में वाद प्रस्तुत करने की कहकर वहाँ से निकल जाता है।

चंदनक : गाड़ीवान! कोई पूछे तो कहना चंदनक और वीरक ने गाड़ी देख ली है। और आर्ये वसन्तसेने! यह चिह्न तुम्हें देता हूँ। (ऐसा कहकर आर्यक को अपनी तलवार दे देता है, जिससे आवश्यकता होने पर अपनी रक्षा कर सके)

आर्यक : चंद्रमा के समान मृदुल स्वभाव वाले चंदनक तुम्हें याद रखूँगा। अगर सिद्ध पुरुष की वाणी सिद्ध हुई, तो मित्र तुम्हें अवश्य याद रखूँगा।

चंदनक अपनी शरण में आए हुए अपने मित्र शर्विलक के मित्र और भावी राजा आर्यक की सहायता कर आर्यक की विजय की कामना करता हुआ चला जाता है। 
जारी….
—-
(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

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