महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 2/10/2021

हम सब स्तब्ध हैं। निशब्द हैं। दिमाग़ पंगु हो गया है। यदि कोई इस समय ज़रूरी मुद्दे या काम की बात कर ज्ञान-विज्ञान, समाज, संस्कृति, राजनैतिक बिन्दुओं आदि पर अपनी पारंगतता दर्शाता है, तो माफ़ कीजिए वह मनुष्यता की सीमा से परे हो चुका है।
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अभी-अभी हमने सड़कों पर छाले लिए चलती लाशों के हुज़ूम देखे हैं। गर्भवती, धात्री एवं सद्य प्रसूताओं के साथ नवजात शिशुओं को देखा है। वे किसी कारवाँ में चल रहे थे। हमारे देखते-देखते तड़प कर गिर पड़े। उनकी इहलीला समाप्त हो गई।
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करोड़ों हाथ ठंडे पड़े हैं, जिनके पास करने को कुछ नहीं है। करोड़ों स्वर घूँ-घूँ कर कराह रहे हैं। आँखों के सामने घटाटोप है। आवाज़ों का शोर बढ़ता जा रहा है। मुझे कलिंग के मैदान में फिर सम्राट अशोक के सामने करोड़ों सिर प्रार्थना के स्वरों में डूबे और खड़े दिख रहे हैं। बेबस और मज़बूर, पर उसके साथ असुरों की एक मजबूत फ़ौज भी है, जो अट्टहास कर लाशों का सौदा कर रही है। क्रन्दन का अब यहाँ कोई अर्थ शेष नहीं है। जितनी जोर से आवाज़ें आती हैं, उतनी ही जोर से प्रतिध्वनि होती है और लौट आते हैं आप्त स्वर।
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यह एक भू-भाग की कहानी नहीं, वरन् इस वसुन्धरा का भयानक किस्सा है। हो सकता है, नूह की नाव, डायनासौर के अस्तित्व के ख़त्म होने और सौ-सौ बार धरती के विनाश और विध्वंस की कथाएँ कभी सच रही हाेंगी। पर हमने तो गल्प ही माना। लेकिन आज हम अपने आपको डूबते देख रहे हैं। यह किसी नाटक का दृश्य नहीं है कि पर्दा गिरेगा और सब ठीक हो जाएगा।
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जीवन के मंच पर हम सब अभिनेता हैं। सबके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब हम हिम्मत ही नहीं, ज़िन्दगी भी हार जाते हैं। ठीक उसी समय मौत उकसाती है। पुचकारती है प्यार से, लालच देकर पुकारती है और यदि हम अकेले हों, अपनों से दुखी हों। कोई कन्धा न हो, जिस पर सिर टिकाकर अपनी बात कह सकें, अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकें या बिखरे अस्तित्व और पहचान को ख़ुद समेट न सकें तो मौत के अलावा कोई विकल्प है क्या?
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करोड़ों दिलों पर राज करने वाले हीरो कभी मरते नहीं हैं, अलबत्ता। वे अमर हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। अपना क़िरदार निभाकर यवनिका में चले जाते हैं। ‘ख़ुश रहो, दोस्त जहाँ भी हो’, अभिनय के मंच पर सदैव झाँकते रहना। अभी बहुत लोग पंक्तिबद्ध खड़े हैं। मैं मानकर चल रहा हूँ कि इतनी ही भूमिका थी, तुम्हारी इस संसार में। बहुत जानदार अभिनय करके विदा हुए हो। देखो, सब तुम्हारी बात कर रहे हैं। हर जगह उत्सव सा है। लोग उत्सुक हैं, सब जानने को।
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इस बीच एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन लोग याद आ रहे हैं, जिन्होंने इस बीच संसार से रुख़सत ली। एक उम्रदराज़ होकर मरा, एक कैंसर से ग्रस्त था और एक ने रास्ता चुन लिया फन्दे पर झूलने का। एक तरुणी भी याद आती है, यहीं पड़ोस के जिले की। नाट्य कला में दक्ष, प्रवीण। जब उसने भी यही मुक्ति का मार्ग चुना, तो लगा कि महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है। कागज़, शोर और सड़क पर चलते लोगों में। बल्कि महामारी युद्ध की विभीषिका से भारी है। इसकी जितनी तहें हैं, उनकी थाह लगा पाना सम्भव नहीं है।
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महानगरों में रहने वाले लोग व्यथित हैं। उन्हें नियमित ख़र्चों और काम के अवसाद ने तोड़ दिया है बुरी तरह। क्योंकि काम के नियम-क़ायदे वही लागू हैं, बल्कि ज़्यादा कड़े नियम हैं, जो सामान्य दिनों में पालन करना होते थे। मग़र इस समय तनाव के बीच काम करना है, इस पर बात ही नहीं हो रही कहीं। सब एक अज़ीब संजाल में कैद हैं। रिहाई की सम्भावना न्यून है और यक़ीन मानिए यह तोड़ रहा है, लोगों को।
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किसी अभिनेता की आत्महत्या से किसी को फ़र्क नहीं पड़ता। लेकिन सामने जो रंगीन संसार था और चमक-दमक थी, उसकी हक़ीक़त देखना हो, हिम्मत हो, तो उस अभिनेता की लाश की तस्वीरें देख लें। अपने ही मुहल्ले या घर के किसी बरमूडा पहने युवा की भाँति नजर आ रहा है। बिछौना भी वही साधारण, जिस पर हम-आप रोज सोते हैं- दस बाय दस के एक कमरे में।
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जीवन में अतीत की अच्छी स्मृतियाँ ही इस समय हमें हौसला दे रहीं हैं। वर्तमान से हम पूरी ताक़त लगाकर जूझ रहे हैं। भविष्य के बारे में किसी को सोचने का समय नहीं है। कोई महिमा मंडन नहीं मौत या आत्महत्या का, न ही किसी बात का समर्थन या खंडन। मग़र आँखों देखी, कानों सुनी बात तो सच के स्वरूप में कहना पड़ेगी न?
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कबीर कहते हैं, “क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना।” 

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 30वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 

29वीं कड़ी : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28वीं कड़ी : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27वीं कड़ी :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26वीं कड़ी : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

 

 

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