यह वाल्मीकि रामायण का बालकाण्ड है या विश्वामित्र-काण्ड?

कमलाकांत त्रिपाठी, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश से

वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के मुद्दे पर विशेषज्ञ विद्वानों की शरण में जाने से पहले थोड़ा समय देकर इन काण्डों की विषय-वस्तु का हम स्वयं जाइज़ा ले सकते हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या! 

जैसा कि पहले आ चुका है, इन दोनों काण्डों में दो तरह की सामग्री है‌। एक, अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक की रामयात्रा की कथा में आ चुके कुछ प्रसंगों की पुनरावृत्ति, जिनमें इन प्रसंगों के भिन्न, असंगत और अयुक्तिपूर्ण पाठ जोड़ दिए गए हैं। दो, रामकथा से असम्बद्ध और परस्पर भी असम्बद्ध फुटकर पौराणिक आख्यान। बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड दोनों में उपलब्ध वाल्मीकि से जुड़े प्रसंग को केन्द्र में रखकर पहले बिन्दु का विवेचन पिछले भागों में हो चुका है। अब रामकथा से असम्बद्ध पौराणिक आख्यानों पर एक दृष्टि-निक्षेप।

बालकाण्ड

सर्ग-1 से सर्ग-4: (पहले विवेचित) वाल्मीकि आख्यान। सर्ग-8-14: दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प, काश्यप-पौत्र एवं विभांडक-पुत्र मुनि ऋष्यशृंग की पौराणिक कथा, राजा रोमपाद के राज्य अंगदेश में दुर्भिक्ष, उससे मुक्ति के लिए अंग-नरेश द्वारा दृढ़व्रती मुनिकुमार ऋष्यशृंग (जिन्होंने कभी किसी स्त्री का दर्शन नहीं किया था) को वेश्याओं की सहायता से अंगदेश लाया जाना। उनके साथ रोमपाद की पुत्री शान्ता का विवाह। सुमंत्र द्वारा दशरथ को एक भविष्यवाची पौराणिक कथा सुनाए जाने पर दशरथ का अपनी रानियों और मंत्रियों के साथ अंगदेश की यात्रा। रोमपाद से उनकी पुत्री शान्ता तथा उसके पति ऋष्यशृंग को अयोध्या भेजने का निवेदन। तदनुरूप ऋष्यशृंग का सपत्नीक अयोध्या आगमन। ऋष्यशृंग के निर्देशन में दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सम्पादन। [इसके बाद ही 15वें सर्ग में ऋष्यश्रंग की सलाह और उनके निर्देशन में पुत्र-प्राप्ति के लिए दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि अनुष्ठान के सम्पादन का प्रसंग आता है। इसके अग्निकुंड से प्रकट हुआ पुरुष वह खीर प्रदान करता है। उसे खाकर दशरथ की तीनों रानियाँ गर्भ धारण करती हैं, वह रामकथा का अंश ज़रूर है। किन्तु राम-यात्रा का नहीं।]

सर्ग-32: ब्रह्मापुत्र कुश के चार पुत्रों—कुशाम्ब (कौशाम्बी नगर के संस्थापक), कुशनाभ, असूर्तरजस और वसु–का आख्यान, कुशनाभ की असाधारण रूप-लावण्य-सम्पन्न सौ युवा पुत्रियों पर मोहित वायुदेव द्वारा उनसे पत्नी बनने का प्रस्ताव। उसे अस्वीकार करने पर कुपित वायुदेव द्वारा उनमें प्रवेशकर उन्हें कुब्जा (कुबड़ी) कर देना।

सर्ग-33: महातेजस्वी चूली महर्षि की सेवा में रत सोमदा नामक गन्धर्वकुमारी के याचना करने पर महर्षि द्वारा तपशक्ति (मानसिक संकल्प) से उसे पुत्र प्रदान करना। ब्रह्मदत्त नामक उस पुत्र से राजा कुशनाभ की सौ कुब्जा कन्याओं का विवाह होते ही उनके वायु-जन्य वातरोग (कुब्जत्त्व) का दूर हो जाना और पूर्व-सौन्दर्य लौट आना।

सर्ग-34: विश्वामित्र के पिता गाधि का आख्यान—ब्रह्मदत्त के साथ सौ पुत्रियों के विवाह के बाद उनके ससुराल चली जाने पर पुत्रहीन राजा कुशनाभ का पुत्रहेतु पुत्रेष्टि अनुष्ठान करना, जिससे धर्मात्मा गाधि का जन्म। राजा कुश (प्रपितामह) के कुल में उत्पन्न होने से गाधि-पुत्र विश्वामित्र का ‘कौशिक’ कहलाना। विश्वामित्र की बड़ी बहन ऋचीक मुनि को ब्याही सत्यवती की सशरीर स्वर्ग पधारने की कथा जो कौशिकी नदी बनकर भूतल पर प्रवाहित है। नेपाल से बिहार तक बहती आज की कोसी ही पुराणकाल की कौशिकी हैं।

सर्ग-35—गंगा की उत्पत्ति की विलक्षण कथा। हिमालय सभी पर्वतों का राजा है। उसकी पत्नी मेरु पर्वत की सुन्दरी पुत्री मेना है। उसकी दो पुत्रियों में ज्येष्ठ गंगा हैं और कनिष्ठ हैं उमा। गिरिराज हिमालय का उमा (पार्वती) को तपस्या में रत शिव से ब्याह देना। देवताओं का गंगा को देवकार्य की सिद्धि के लिए गिरिराज से माँग लेना और बाद में स्वर्ग से त्रिपथगा के रूप में अवतीर्ण होकर गंगा का तीनों लोकों में प्रवाहित होना। 

सर्ग-36: शिव-पार्वती के सम्बन्ध में ऊलजलूल कथा। उमा से शिव के विवाह के बाद दोनों का सौ दिव्य वर्षों तक रति-क्रीडा में निमग्न रह जाना। देवताओं की चिन्ता–इतने वर्षों के बाद शिव के तेज (वीर्य) से उमा गर्भ धारण कर जो अति-तेजस्वी प्राणी उत्पन्न करेंगी उसका तेज कौन बर्दाश्त करेगा! शिव के पास आकर देवगण की प्रार्थना–आप रति-क्रीडा से विरत हों। शिव का मान जाना किन्तु क्रुद्ध हुई पार्वती का देवताओं को शाप—मैं पुत्र-प्रप्ति की इच्छा से पति के साथ रमण कर रही थी, तुम लोगों ने बाधा डाली, तुम्हारी पत्नियाँ भी सन्तान उत्पन्न करने में अक्षम हो जाएँगी।

सर्ग-37: अग्निदेव द्वारा शिव के तेज को गंगा के दिव्य रूप में स्थापित किया जाना और उससे एक पुत्र का जन्म। कृत्तिका नक्षत्र-पुंज की छहों कृत्तिकाओं का नवजात शिशु को दुग्धपान कराकर उसे जीवन देना, जिससे उसका नाम कार्तिकेय पड़ना।

सर्ग-38: भृगु मुनि के वरदान से पुत्रहीन इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर (राम के पूर्वज) की दो पत्नियों में से एक, विदर्भकुमारी केशिनी के एक पुत्र तथा दूसरी (अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री एवं पक्षिराज गरुड की बहन) सुमति से साठ हज़ार पुत्रों के जन्म की अलौकिक कथा।

सर्ग-39: सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इंद्र द्वारा चुराया जाना और सगर के साठ हज़ार पुत्रों द्वारा उसे खोजने के लिए पृथ्वी का भीषण उत्खनन।

सर्ग-40: एक बार असफल होने पर पिता के आग्रह पर इन पुत्रों द्वारा पृथ्वी का पुन: उत्खनन। पौर्वत्य पृथ्वी के उत्खनन से पर्वताकार विशाल गजराज विरूपाक्ष का दर्शन जिसने अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण कर रखा है और मस्तक हिलने से भूकम्प आता है। दाक्षिणात्य पृथ्वी के उत्खनन से दूसरे विशाल गजराज महापद्म, पाश्चात्य पृथ्वी के उत्खनन से गजराज सौमनस, पृथ्वी के उत्तर खंड के उत्खनन से गजराज श्वेतभद्र का दर्शन। पूर्वोत्तर के उत्खनन से भगवान्‌ कपिल तथा उन्हीं के पास चरते हुए यज्ञ के घोड़े का दर्शन। कपिल को चोर समझकर सगर-पुत्रों द्वारा उन्हें फटकार लगाना और उससे रुष्ट कपिल के मुँह से निकली हुंकार से उनका भस्म हो जाना।

सर्ग-41: सगर की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र असमंजस के पुत्र अंशुमान का अपने पितृव्यों द्वारा उत्खनित मार्ग से नीचे पहुँचने पर भस्मीभूत पितृव्यों और पास में चर रहे घोड़े का दर्शन। शोकाकुल अंशुमान की पितृव्यों को जलांजलि देने की इच्छा पर पितृव्यों के मामा गरुड की गंगा को वहाँ लाकर उनके जल से पितृव्यों का उद्धार करने की सलाह। अंशुमान के घोड़ा लेकर ऊपर आने पर सगर द्वारा यज्ञ का समापन और तीस हज़ार वर्ष शासन करने के उपरान्त उनका स्वर्ग-गमन।

सर्ग-42: सगर के बाद अंशुमान का राज्य, फिर पुत्र दिलीप को राज्य देकर तपस्या हेतु अंशुमान का हिमालय के लिए प्रस्थान। बत्तीस हज़ार वर्षों तक वहाँ तपस्या और देहान्त। अपने भस्म पूर्वजों को जलांजलि देकर उनका उद्धार करने की कामना लिए दिलीप का भी अवसान। उनके पुत्र भगीरथ द्वारा गंगावतरण के लिए गोकर्ण तीर्थ जाकर, पंचाग्नि का सेवन करते हुए, एक-एक महीने उपरान्त आहार ग्रहण करते हुए, घोर तपस्या। तपस्या से प्रसन्न देवताओं के साथ ब्रह्मा का आगमन। हिमालय-पुत्री गंगा के अवतरण पर पृथ्वी की उनका वेग सहन करने की अक्षमता का ज़िक्रकर ब्रह्मा का भगीरथ को सलाह देना कि गंगा को धारण करने के लिए वे शिव को तैयार करें।

सर्ग-43: देवताओं के साथ ब्रह्मा के लौट जाने पर भगीरथ का मात्र अँगूठे के अग्रभाग को पृथ्वी पर टिकाकर खड़े-खड़े एक वर्ष तपस्या कर, शिव को संतुष्ट करना और शिव द्वारा गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने का आश्वासन। गंगा का संकल्प कि वे बृहत्‌ रूप धारण कर अपने वेग से शिव को लिए-लिए पाताल लोक चली जाएँगी। गंगा के अहंकार से कुपित शिव का उन्हें अपने जटामंडल में अदृश्य कर देना। भगीरथ द्वारा पुन: तपस्या। उससे प्रसन्न शिव का गंगा को बिन्दुसरोवर में छोड़ना और गंगा का सात धाराओं में विभक्त होकर, तीन धाराओं (ह्लादिनी, पावनी, नलिनी‌) का पूर्व दिशा में, तीन‌ धाराओं (सुचक्षु, सीता और सिन्धु) का पश्चिम दिशा में और एक धारा का दिव्य रथ पर आरूढ़ भगीरथ के पीछे-पीछे चलना। देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष गण का नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा हाथियों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गंगा की शोभा निहारना। गंगा द्वारा उसी समय यज्ञ कर रहे प्रतापी राजा जह्नु के यज्ञपमंडप को बहा ले जाना, कुपित हुए जह्नु का गंगा का समस्त जल पी जाना; देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों द्वारा जह्नु की स्तुति कर गंगा को उनकी पुत्री बना देना। इससे  प्रसन्न हुए जह्नु का गंगा को अपने कानों के छिद्र से पुन: प्रकट कर देना (जिससे गंगा का जाह्न्वी कहलाना)। अन्तत: भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे प्रवाहित गंगा का समुद्र (गंगासागर) में समा जाना और भगीरथ के साठ हज़ार पितरों (सगर-पुत्रों) के उद्धार के लिए रसातल पहुँच जाना। भगीरथ का भी यत्नपूर्वक गंगा के साथ रसातल जाना, पितरों को अचेतावस्था में देखना और गंगा द्वारा उनकी भस्मराशि को आप्लावित कर उन्हें स्वर्ग पहुँचा देना।

सर्ग-44: रसातल में ब्रह्मा का प्रकट होना, भगीरथ को गंगाजल से पितरों का तर्पण करने की आज्ञा देना और उन्हें आश्वस्त करना कि जब तक संसार में सागर का जल रहेगा, सगर-पुत्र देवताओं की तरह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे। भगीरथ से यह भी कहना कि गंगा अब तुम्हारी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और भागीरथी नाम से जगत्‌ में विख्यात होंगी। भगीरथ का इस कार्य को सम्पन्न कर अपने नगर लौट जाना। मंगलमय गंगावतरण उपाख्यान की फलश्रुति।

यह बालकाण्ड के 77 सर्गों में से 44वें सर्ग तक आए रामकथा से असम्बद्ध, अलौकिक और असंभाव्य पौराणिक आख्यानों की अतिसंक्षिप्त बानगी है।

बालकाण्ड के शेष सर्गों में समुद्र-मंथन और उससे निकलने वाले हालाहल (कालकूट) विष, धन्वन्तरि, साठ करोड़ अप्सराओं, वरुण की पुत्री व सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी, उच्चै:श्रवा घोड़े, कौस्तुभ मणि और अन्त में अमृत की उत्पत्ति की कथा। कश्यप ऋषि की पत्नियों दिति और अदिति तथा उनसे देवों और असुरों की उत्पत्ति की कथा। गौतम तथा अहिल्या की कथा। गौतम ऋषि द्वारा इन्द्र को शाप देने तथा अहिल्या के उद्धार का उपाय बताने की कथा। शतानन्द द्वारा विश्वामित्र का वंश-वर्णन। वशिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष। विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की गाय कामधेनु के बलात् अपहरण से दु:खी कामधेनु का वशिष्ठ की आज्ञा से हुंकार भरकर महाबली पह्लव और काम्बोज तथा अपने थन से बर्बर, योनिस्थान से यवन, शकृस्थान (गोबर करने के स्थान) से शक, रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत व किरात सैनिकों को उत्पन्न करना जो विश्वामित्र के सौ पुत्रों में से निन्यानवे का संहार कर विश्वामित्र को अपने बचे हुए एक पुत्र को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिए निकल जाने को बाध्य करते हैं। [रामायण काल में ये पह्लव, काम्बोज, बर्बर, यवन, शक और म्लेच्छ कहाँ से आ गए?]

फिर सर्ग-57 से सर्ग-60 तक विश्वामित्र-त्रिशंकु की विस्तृत कथा। अम्बरीष और शुन:शेप की कथा, शुन:शेप को यज्ञ-पशु बनाए जाने के निष्फल प्रयास की कथा। विश्वामित्र की तपस्या और इन्द्र-प्रेरित मेनका द्वारा उसे भंग किए जाने की कथा। विश्वामित्र द्वारा पुन: तपस्या करने, इस बार इन्द्र-प्रेरित रम्भा द्वारा उन्हें मोहित करने के उद्योग की कथा। ध्यान-भंग होने पर विश्वामित्र द्वारा रंभा को एक हज़ार साल के लिए प्रस्तर-प्रतिमा बन जाने का शाप और अन्तत: उनका ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने में सफल हो जाना।

पूरे बालकाण्ड में ऐसे ही अनेक अवांतर प्रसंग भरे हुए हैं, जिनमें पौराणिक कथाओं का ठीक पौराणिक शैली में लौकिक-अलौकिक, सम्भव-असम्भव की विभाजन रेखा का अतिक्रमण करते हुए अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक वाल्मीकि के जिस सुगठित और सूत्रबद्ध कथा-विधान के दर्शन होते हैं। ये कथाएँ उसके विरूपण का आईना हैं। अधिकांश कथाएँ विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण के सामने वर्णित हैं। कई के केन्द्र में विश्वामित्र स्वयं हैं। विशेषज्ञ विद्वानों का मत अपनी जगह, आप ख़ुद पारायण करें और तय करें कि यह रामायण का बालकाण्ड है या विश्वामित्र-काण्ड, जिसमें यत्र-तत्र बालकाण्ड के कथा-सूत्र भी बिखेर दिए गए हैं। 
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(उत्तर प्रदेश की गोरखपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व व्याख्याता और भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे कमलाकांत जी ने यह लेख मूल रूप से फेसबुक पर लिखा है। इसे उनकी अनुमति से मामूली संशोधन के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। इस लेख में उन्होंने जो व्याख्या दी है, वह उनकी अपनी है।) 
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Neelesh Dwivedi

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