‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण में ‘गणपाठ’ क्या है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

सार्थक नाम रखने हेतु संस्कृत भाषा का ज्ञान हमारे लिए सहयोगी होता है। इसी तरह, संस्कृत जानने हेतु, शब्दों के सार्थक प्रयोग हेतु संस्कृत व्याकरण अत्यधिक सहायक होता है। संस्कृत के व्याकरण के बारे में हम पहले से बात कर रहे थे। उसी क्रम में अब संस्कृत व्याकरण के अङ्गों के बारे में भी सामान्य चर्चा कर लेना उचित होगा।

जिस प्रकार वेद के छह अङ्गों में एक अङ्ग व्याकरण है, वैसे ही व्याकरण के भी कुल पाँच अंग होते हैं। अगर ऐसा कहें कि पाँच अंग मिलकर ‘व्याकरण के पूर्ण स्वरूप’ का निर्माण करते हैं तो अधिक उचित होगा। कहा भी गया है, “पंचांग व्याकरण यथा- हेमचन्द्राचार्यै: श्रीसिद्धहेमाभिधानाभिधं पञ्चाङ्गमपि व्याकरणं सपादलक्षपरिमाणं संवत्सरेण रचयाञ्चक्रे”। व्याकरण-शास्त्र के ये पाँच अंग व ग्रन्थ इस प्रकार माने जाते हैं- शब्दानुशासन (सूत्रपाठ), धातुपाठ, गणपाठ (= प्रातिपदिकपाठ) उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन। इन पाँचों अंगों वा ग्रन्थों में शब्दानुशासन मुख्य है। इसकी भी हम पूर्व में चर्चा करते रहे हैं। शब्दानुशासन अर्थात् पाणिनीय अष्टाध्यायी के उपकारी होने के कारण अन्य चार गौण हैं। वे शब्दानुशासन के परिशिष्ट माने जाते हैं।

तो इसके बाद अब गणपाठ पर भी दृष्टि डालना जरूरी है। गण का अर्थ है, ‘जिसकी गिनती की जाए‘। हमने ‘गण’ शब्द को अब तक ‘समूह’ के अर्थ में ही जाना है। लेकिन गण की विशिष्टता है कि यहाँ जो समूह है, उसमें जिनकी गणना की गई है, उनका ‘क्रम निश्चित’ होगा। जबकि समूह में क्रम के निश्चितता अनिवार्य नहीं है।  इस प्रकार ‘गणपाठ’ का अर्थ हुआ- गणों अर्थात् क्रम विशेष में पढ़े गए शब्द/प्रतिपादिक अथवा नाम शब्दों या प्रकृतियों के समूहों का संकलन जिस ग्रंथ में हो, वह। आचार्य पाणिनि ने अपने सूत्रों में ‘आदि’ या ‘प्रभृति’ अथवा ‘बहुवचनान्त’ शब्दों की व्यवस्थित व्याख्या हेतु सूत्रपाठ से अलग गणपाठ का उपदेश किया है।

पाणिनीय गणपाठ की तरफ विद्वानों और व्याख्याकारों ने कम ध्यान दिया। लेकिन इसका महत्त्व व्याकरण में बिल्कुल भी कम नहीं है। वासुदेव शरण अग्रवाल अपनी कृति ‘पाणिनिकालीन भारत’ में कहते हैं, “गोत्रनामों की मूल प्रकृतियों से अपत्यार्थ तद्धित प्रत्ययों का विधान करता हुआ पाणिनीय गणपाठ गोत्रनामों की एक विस्तृत सूची प्रस्तुत करता है, जो बहुत कुछ श्रौतसूत्रों के प्रवराध्यायों की सूचियों से मिलती-जुलती है। इसलिए सम्प्रति उपलब्ध गणपाठों में सबसे प्राचीन पाणिनि के इस गणपाठ की ओर से आँखें बन्द नहीं की जा सकतीं।”

इस तरह हम देख सकते हैं कि व्याकरण की सम्पूर्ण जानकारी हेतु गणपाठ का ज्ञान भी अनिवार्य है। आचार्य पाणिनि ने पूर्व आचार्यों की तरह उनकी परम्पराओं को आगे बढ़ाते हुए उनका परिष्कार ही किया है। तथा भाषा के स्वरूप को सुन्दर व्यवस्थित करने का उपक्रम किया है। गणपाठ के विषय में यहाँ संक्षेप में इतना जानना पर्याप्त है। आगे अन्य अङ्गों के बारे में भी संक्षेप में चर्चा करेंगे।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ 

16 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बच्चे का नाम कैसा हो- सुन्दर और सार्थक या नया और निरर्थक?
15 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?
14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है? 
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!
11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10-  संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
8- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : भाषा और व्याकरण का स्रोत क्या है?
7- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!

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