कार चलाते हुए दफ़्तर का काम, पुलिस ने किया ‘काम तमाम’!…भाई ऐसा भी क्या काम?

टीम डायरी

कार चलाते हुए दफ़्तर का काम, पुलिस ने किया ‘काम तमाम’! यह ‘रोचक-सोचक’ मामला है बेंगलुरू का। इसमें पहले बात करेंगे ‘रोचक’। वहाँ व्यस्त सड़क पर एक महिला कार चलाते हुए लैपटॉप पर काम करते देखी गई। देर शाम को जब शहर का यातायात वैसे ही कई जगह बाधित रहता है, यह महिला काम ही नहीं, लैपटॉप पर वीडियो चालू कर के भी चली जा रही थी। शायद वह दफ़्तर के साथियों के साथ बैठक में शामिल थी।

हालाँकि, इससे पहले कि वह दुर्घटना का शिकार होती या कारण बनती, उस पर यातायात पुलिस की नजर पड़ गई। पुलिस ने उसकी कार के आगे जाकर उसे रोका और उसका चालान काट दिया। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बाद में पुलिस ने उसकी तस्वीर और कार चलाने के दौरान काम करने का वीडियो (नीचे है) भी सोशल मीडिया पर साझा कर दिया। इस सन्देश के साथ कि अगर “काम करना है, तो घर से करें, कार चलाते वक़्त नहीं।”         

तो अब बात करें मामले के ‘सोचक’ यानी सोचनीय पहलू की। आख़िर ऐसा भी क्या काम कि ख़ुद अपनी और दूसरे लोगों की जान जोख़िम में डालकर उसे करना पड़ रहा है? इसका ज़वाब सम्भवत: अभी दो-चार महीने पहले आए कुछ बयानों में मिल सकता है। इनमें एक बयान है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी कम्पनी ‘इन्फोसिस’ के संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति का। वह कहते हैं कि भारत के नागरिकों को चीनियों की तरह ‘हफ़्ते में 70-72 घंटे काम करना चाहिए’। मतलब सप्ताह के छह दिन भी करें तो रोज 12-12 घंटे तक।

इसी तरह दूसरा बयान आया निर्माण क्षेत्र की बड़ी कम्पनी लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के प्रमुख एसएन सुब्रमण्यन का। उन्होंने कर्मचारियों से यहाँ तक कह दिया गया कि रविवार की छुट्‌टी लेकर क्या करोगे? ‘घर में रोज-रोज पत्नी की सूरत कब तक देखोगे? दफ़्तर आओ, रविवार को भी काम करो। हफ़्ते में 90 घंटे काम करो।’ यानि सप्ताह के सातों दिन रोज लगभग 13 घंटे। यही नहीं, उन्होंने फिर यह भी कह दिया गया कि भारत में लाेग काम के लिए आगे बढ़ना नहीं चाहते। दफ़्तर जाकर काम नहीं करना चाहते। घर नहीं छोड़ना चाहते।

निश्चित रूप से, ख़ास तौर पर निजी क्षेत्र में काम करने वालों पर यही सोच दरअस्ल, सबसे बड़ा दबाव है। निजी क्षेत्र के कामग़ारों में अधिकांश ऐसे लोग हैं, जिनकी रीढ़ झुकते-झुकते पूरी झुक चुकी है। जिनके पैर बड़ी कम्पनियों से मिलने वाली लाखों रुपयों की तनख़्वाह रूपी बैसाखियों के सहारे टिके हैं। उन्हें हमेशा ये डर सताता रहता है कि ये बैसाखियाँ हट गईं तो उनका पूरा अस्तित्त्व भरभराकर धूल में मिल जाएगा। और यही डर उन्हें अब जान का जोख़िम लेने या दूसरों की जान की परवा न करने के रास्ते पर भी आगे ले जा रहा है।

स्थिति चिन्ताजनक है। इस पर विचार करना होगा और शुरुआत ख़ुद से होगी। 

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Neelesh Dwivedi

Share
Published by
Neelesh Dwivedi

Recent Posts

आरसीबी हादसा : उनकी नज़र में हम सिर्फ़ ‘कीड़े-मकोड़े’, तो हमारे लिए वे ‘भगवान’ क्यों?

एक कामकाजी दिन में किसी जगह तीन लाख लोग कैसे इकट्‌ठे हो गए? इसका मतलब… Read More

1 day ago

आरसीबी के जश्न में 10 लोगों की मौत- ये कैसा उत्साह कि लोगों के मरने की भी परवा न रहे?

क्रिकेट की इण्डियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के फाइनल मुक़ाबले में मंगलवार, 3 जून को रॉयल… Read More

2 days ago

‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ यानि बड़ों की आज्ञा मानना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा है!

एक वैष्णव अथवा तो साधक की साधना का अनुशीलन -आरम्भ आनुगत्य से होता है, परिणति… Read More

4 days ago

फिल्मों में अक़्सर सेना और पुलिस के अफ़सर सिगरेट क्यों पीते रहते हैं?

अभी 31 मई को ‘विश्व तम्बाकू निषेध दिवस’ मनाया गया। हर साल मनाया जाता है।… Read More

5 days ago

कभी-कभी व्यक्ति का सिर्फ़ नज़रिया देखकर भी उससे काम ले लेना चाहिए!

कभी-कभी व्यक्ति का सिर्फ़ नज़रिया देखकर भी उससे काम ले लेना चाहिए! यह मैं अपने… Read More

1 week ago

मेरे जीवन का उद्देश्य क्या? मैंने सोचा तो मुझे मिला!

मैने खुद से सवाल किया कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मैं अपने जीवन… Read More

1 week ago