बाहर कोई और आया, यह बताने कि बच्चे के अब्बा अस्पताल में हैं…

विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 26/8/2022

अदालत का फैसला हो चुका है। सरकारों की चाल-ढाल भी देख ली गई है। कमियों, खामियों, अनदेखियों और मनमानियों का यह पिटारा अनंत है। हो सकता है, जब कभी आखिरी फैसला आएगा तब फिर सरकारें तुरत-फुरत कुछ करेंगी। नेता अपने-अपनों के हिसाब से बयान देंगे। अस्पतालों की बदहाली फिर उजागर होगी। फिलहाल खबरों और मेल-मुलाकातों के इस सिलसिले को यहीं खत्म करते हैं। हम गजाला के घर से चले थे। फैसलों, बयानों, खबरों से होकर यहां तक आए। आखिर में साजिदा बानो से रूबरू होते हैं ताकि यह याद बनी रहे कि गैस की तबाही के सबूत किस-किस शक्ल में भोपाल में जिंदा थे।

शाहजहांनाबाद में पुरानी अदालत के करीब रामनगर है। यहां सरकारी मकानों की कतार है, जिसकी एक पहली मंजिल पर 48 साल की एक अकेली औरत रहती है। कम लोगों को याद होगा, यूनियन कार्बाइड की जानलेवा गैस ने 1981 में सबसे पहले जिस बेकसूर इंसान की जान ली थी, वह इसी का शौहर था और बदकिस्मती देखिए कि जब 1984 में हादसा हुआ तो उस दिन इसके बड़े बेटे ने दम तोड़ा। फिर अपनों ने दुत्कारा और घर से निकाल दिया। गैस त्रासदी ने कैसे घर-परिवार, रिश्ते-नाते और उम्मीदें तबाह कर डालीं। अब जब इस हादसे के सारे किरदार बेनकाब हो चुके हैं, इस दस्तावेज के आखिरी पन्नों के लिए अपन साजिदा बानो के सूने घर में चलते हैं। खामोशी से सुनिए वो क्या कह रही हैं…

मैं कानपुर की हूँ। अशरफ मोहम्मद खान नाम था मेरे शौहर का। वे यूनियन कार्बाइड में फिटर थे। कभी दिन तो कभी रात की नौकरी। उस रात वे ड्यूटी पर थे। यह 25 दिसंबर 1981 की बात है। मेरे दो छोटे बच्चे थे डेढ़ साल का अरशद और सात महीने का शोएब। अरशद उस दिन पापा का इंतजार कर रहा था। मैं उसे तैयार कर ही रही थी। वे साइकल से आते-जाते थे। दरवाजे पर आहट हुई। अरशद अपने नन्हें कदमों से दरवाजे की तरफ लपका। बाहर कोई और आया था। यह बताने कि बच्चे के अब्बा अस्पताल में हैं…

उस दिन के बाद जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं रही। कुदरत ने जिंदगी के और रिश्तों के क्या-क्या रंग दिखाए। किन हालातों से होकर गुजरी, सोचकर ही कांप जाती हूं। मेरे ससुरालवालों ने मुझे अपने शौहर के पास जाने से रोका। तीन दिन बाद जब शौहर की मौत हुई, तो इद्दत के चार महीने 10 दिन बीतने के पहले ही घर से निकाल दिया। रोज़े के दिनों में मैं अपने दो मासूम बच्चों के साथ सड़क पर आ गई थी। एचएस खान का नेकदिल परिवार था, उन्होंने उस बुरे वक्त में मेरी मदद की और रोज़ा खुलवाया। मुझे याद है कि मेरे शौहर मेरा बहुत ही ख्याल रखने वाले इंसान थे। उन्होंने पढ़ी-लिखी होने के बावजूद कभी मुझे काम नहीं करने दिया। सिलाई-कढ़ाई का शौक था, लेकिन वह भी नहीं करने दिया। कहते थे- तुम क्यों परेशान होती हो, मैं हूं न? लेकिन अब वे जा चुके थे। बदकिस्मती मेरी जिंदगी में दस्तक दे चुकी थी….

मुझे याद है कि इस्लाम नगर में उन्होंने तब 20 एकड़ जमीन ली थी। कहते थे कि साजिदा मैं ऐसी जगह नौकरी करता हूं, जहां जिंदगी का भरोसा नहीं। यह जमीन अपन बीवी-बच्चे पांच-पांच एकड़ बांट लेंगे और इत्मीनान से खेती करेंगे। मैं इतने साल चुप रही। अब यह हकीकत बताने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि जमीन और मेरे घर से मिला सोना मेरे ससुराल वालों ने हड़प लिया। वे यूनियन कार्बाइड से मिले कुल जमा 70 हजार रुपयों की मांग भी करते रहे और बेरहमी से अदालतों में उलझाया। लालच इंसान को किस हद तक गिरा सकता है, यह मैंने देखा और हमारी कौम में, औरतों के बराबर हक की बात की जाती है। किसे पता है कि मैं अपने बच्चों को लिए-लिए कभी भोपाल तो कभी कानपुर कैसे भागती फिरी….

अरशद और शोएब बड़े हो रहे थे। 1984 की बात है। तब मैं कुछ महीनों से कानपुर में थी। लौटने लगी तो इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और हालात बिगड़ गए। मुझे दिसंबर तक वहीं ठहरना पड़ा। जब मैं ट्रेन से चली, मैं नहीं जानती थी कि यूनियन कार्बाइड से निकली मौत मेरे एक बच्चे को भी मुझसे छीनना चाहती है। रात को जब ट्रेन भोपाल रेलवे स्टेशन पर पहुंची तो सन्नाटा पसरा था। मुझे लगा ही नहीं कि यह भोपाल है। देखा तो भोपाल ही था। कोई कुली और कोई इंसान नजर नहीं आया। बच्चों का खांस-खांसकर बुरा हाल था। अरशद मुझसे खांसी की गोली मांगने लगा। मैं प्रतीक्षालय पहुंची। वहां मौत का मंजर था। गोद के बच्चे टेबल पर पड़े हुए थे। मैं ऑटो लेने बाहर निकली। बच्चों को वहीं छोड़ा। कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। बाहर किसी ने कहा कि बच्चों को क्यों मौत के मुंह में छोड़ आई? मुझे याद नहीं कि फिर क्या हुआ…

बच्चों के लिए प्लास्टिक का एक डॉगी लाई थी। उरई में गुलाबजामुन लिए थे। अरशद बोला कि घर चलकर खा लेंगे। वह गुलाबी शर्ट पहने निहायत ही खूबसूरत लग रहा था। लोगों ने कहा भी कि किसी की नजर न जाए। जनाब, अरशद ने दूसरे दिन दम तोड़ दिया। गैस ने शोएब और मेरी सेहत पर भी बुरा असर डाला। हम अब तक दवाएं खा रहे हैं। मैं अपने घर से बेदखल और अपने रिश्तेदारों की ज्यादतियों की शिकार भी हुई मगर गनीमत है कि मैं पढ़ी-लिखी थी..

मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीए किया था। मेरे घर में कोई लिखा-पढ़ा नहीं था। मेरे वालिद इनायत हुसैन सारंगी के मास्टर थे और रेडियो पर उनके प्रोग्राम आते थे। घर में बिजली नहीं थी। मुझे पढ़ने का शौक था और कोई चाहता नहीं था कि हम घर से बाहर जाएं। मैं अपनी तालीम की मन्नत मांगती थी। रो-रोकर स्कूल गई। पढ़ने की जिद पूरी की। पड़ौस के घर में बिजली थी, किताब ले जाकर वहां पढ़ती। इस तरह मैंने बीए किया। बीए की पढ़ाई के दौरान ही वालिद को कैंसर हो गया और वे चल बसे। गैस के कारण इतने साल बाद आए बुरे वक्त में वही तालीम मेरा आसरा बनी, जब अपने सभी साथ छोड़ चुके थे। मैं सबसे यह कहना चाहूंगी कि अपनी बेटियों को आजादी दें, खूब पढ़ाएं और आगे बढ़ने के मौके दें। तालीम ही काम आती है, जब कोई काम नहीं आता….

मुझे गैस हादसे के पांच साल बाद महिला पॉलीटेक्निक कॉलेज में नौकरी मिली। आज इज्जत से जिंदगी गुजारने लायक बन सकी हूं। शोएब इलेक्ट्रिक का काम करता है। वह लिख-पढ़ नहीं पाया। डॉक्टरों ने भी कहा कि पढ़ाई पर ज्यादा जोर मत दीजिए। वह कई-कई दिन घर से बाहर रहता है। मुझे एक समझदार और पढ़ी-लिखी लड़की की तलाश है, जो मेरे शोएब को संभाल ले। कभी सोचती हूं कि सब कुछ ठीक रहता तो अपने दो में से एक बच्चे को डॉक्टर और दूसरे को इंजीनियर बनाती। हम मियां-बीबी खेती-बाड़ी करते। मगर नसीब में यह दिन देखने बाकी थे….

गैस ने मुझे सांसों की तकलीफ दी। कानपुर मेरा पीहर है। वहां धूल-धुआं बहुत है। वहां जाती हूं तो सांस लेना मुहाल हो जाता है। उधर डॉक्टर भी कहते हैं कि यहां मत आया कीजिए, आपकी सेहत पर बुरा असर होता है। आप सबसे मैं पूछती हूं कि मैं कहां जाऊं? 
(समाप्त)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  
47. यह हमारी सरकारों की अंतहीन आपराधिक अनदेखी है
46. सिर्फ तीन शख्सियतों ने गैस पीड़ितों के प्रति मानवीय संवेदनशीलता दिखाई
45. सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश का नारा दे रही है, मुझे हंसी आती है
44. सियासत हमसे सीखिए, ज़िद नहीं समझौता कीजिए!
43 . सरकार घबराई हुई थी, साफतौर पर उसकी साठगांठ यूनियन कार्बाइड से थी!
42. लेकिन अर्जुनसिंह वादे पर कायम नहीं रहे और राव पर उंगली उठा दी
41. इस मुद्दे को यहीं क्यों थम जाना चाहिए?
40. अर्जुनसिंह ने राजीव गांधी को क्लीन चिट देकर राजनीतिक वफादारी का सबूत पेश कर दिया!
39. यह सात जून के फैसले के अस्तित्व पर सवाल है! 
38. विलंब से हुआ न्याय अन्याय है तात् 
37. यूनियन कार्बाइड इंडिया उर्फ एवर रेडी इंडिया! 
36. कचरे का क्या….. अब तक पड़ा हुआ है 
35. जल्दी करो भई, मंत्रियों को वर्ल्ड कप फुटबॉल देखने जाना है! 
34. अब हर चूक दुरुस्त करेंगे…पर हुजूर अब तक हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे थे? 
33. और ये हैं जिनकी वजह से केस कमजोर होता गया… 
32. उन्होंने आकाओं के इशारों पर काम में जुटना अपनी बेहतरी के लिए ‘विधिसम्मत’ समझा
31. जानिए…एंडरसरन की रिहाई में तब के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की क्या भूमिका थी?
30. पढ़िए…एंडरसरन की रिहाई के लिए कौन, किसके दबाव में था?
29. यह अमेरिका में कुछ खास लोगों के लिए भी बड़ी खबर थी
28. सरकारें हादसे की बदबूदार बिछात पर गंदी गोटियां ही चलती नज़र आ रही हैं!
27. केंद्र ने सीबीआई को अपने अधिकारी अमेरिका या हांगकांग भेजने की अनुमति नहीं दी
26.एंडरसन सात दिसंबर को क्या भोपाल के लोगों की मदद के लिए आया था?
25.भोपाल गैस त्रासदी के समय बड़े पदों पर रहे कुछ अफसरों के साक्षात्कार… 
24. वह तरबूज चबाते हुए कह रहे थे- सात दिसंबर और भोपाल को भूल जाइए
23. गैस हादसा भोपाल के इतिहास में अकेली त्रासदी नहीं है
22. ये जनता के धन पर पलने वाले घृणित परजीवी..
21. कुंवर साहब उस रोज बंगले से निकले, 10 जनपथ गए और फिर चुप हो रहे!
20. आप क्या सोचते हैं? क्या नाइंसाफियां सिर्फ हादसे के वक्त ही हुई?
19. सिफारिशें मानने में क्या है, मान लेते हैं…
18. उन्होंने सीबीआई के साथ गैस पीड़तों को भी बकरा बनाया
17. इन्हें ज़िन्दा रहने की ज़रूरत क्या है?
16. पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं… गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! 
15. किसी को उम्मीद नहीं थी कि अदालत का फैसला पुराना रायता ऐसा फैला देगा
14. अर्जुन सिंह ने कहा था- उनकी मंशा एंडरसन को तंग करने की नहीं थी
13. एंडरसन की रिहाई ही नहीं, गिरफ्तारी भी ‘बड़ा घोटाला’ थी
12. जो शक्तिशाली हैं, संभवतः उनका यही चरित्र है…दोहरा!
11. भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है
10. वे निशाने पर आने लगे, वे दामन बचाने लगे!
9. एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली ले जाने का आदेश अर्जुन सिंह के निवास से मिला था
8.प्लांट की सुरक्षा के लिए सब लापरवाह, बस, एंडरसन के लिए दिखाई परवाह
7.केंद्र के साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए!
6. कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया! 

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Neelesh Dwivedi

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