अपनी भाषा पर गर्व कीजिए, देखिए, ‘एक टीचर’ के लिए हमारे पास कितने शब्द हें!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

दुनियाभर में अंग्रेजी की लोकप्रियता का बड़ा कारण क्या है, जानते हैं? इस भाषा का शब्दकोष अन्य भाषाओं की तुलना में बहुत सीमित है। यानि इसमें शब्द कम हैं। इसीलिए लोगों को अधिक शब्द याद नहीं रखने पड़ते। वे चुनिन्दा शब्दों के माध्यम से ही अपनी भाषायी अभिव्यक्ति कर लेते हैं और ‘भद्रलोक के सदस्य’ कहलाने लगते हैं। जबकि किसी भाषा की समृद्धता सही मायनों में उसके शब्दकोष की समृद्धि से ही समझी जाती है। 

अब ‘शिक्षक’ शब्द ही ले लें। ‘शिक्षक दिवस’ के अवसर पर इसकी प्रासंगिकता भी बनी। तो अंग्रेजी में ‘शिक्षक’ के लिए एक शब्द है, ‘टीचर’, अर्थात् जो पढ़ाता है। ‘लेक्चरर’ (व्याख्याता) और प्रोफेसर (प्राध्यापक) को भी जोड़ लें तो कुल तीन हुए। हालाँकि ‘लेक्चरर’ और ‘प्रोफेसर’ को भी आजकल ‘टीचर’ में समाहित मान लिया गया है। जबकि इसके ठीक उलट हमारी सनातन भाषा को देखिए, इसमें ‘एक टीचर’ के लिए कितने शब्द हैं। 

एक – अध्यापक 

यः अध्यापनम्, पाठनम् वा करोति सः अध्यापकः। 

अर्थात् – जो अध्यापन और पाठन यानि पढ़ाने का काम करें, वे ‘अध्यापक’ (टीचर जैसे) हैं।  

दाे – उपाध्याय 

एकदेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:। योsध्यापयति वृत्यर्थम् उपाध्याय: स उच्यते।। 

अर्थात् – वेद (अब विषय समझिए) के भाग-मंत्र तथा व्याकरण, शिक्षा एवं ज्योतिष आदि वेदांगों को जो विप्र आजीविका के लिए पढ़ाएँ यानि अपना घर चलाने, पैसे कमाने के लिए पढ़ाएँ, उन्हें ‘उपाध्याय’ (लेक्चरर जैसे) कहते हैं।  

तीन – आचार्य 

आचिनोति हि शब्दार्थम् आचारे स्थापयत्यपि। स्वयम् आचरेत् यस्मात् आचार्य: परिकीर्तित:।। 

अर्थात् – जो परम्परागत उपदेश (शिक्षा) देते हैं। अपने आचरण से शिष्यों को, लोगों को सत्कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। शब्दों के नए-नए अर्थ और स्वरूप का चिन्तन करते हैं, उन्हें लोगों को समझाते हैं। इस तरह शिष्यों की बुद्धि विकसित करते हैं, वे ‘आचार्य’ (प्रोफेसर जैसे) कहलाते हैं।  

चार – पंडित 

पवृतवाक्चित्रकथ उहवान प्रतिभावान। आशु ग्रन्थस्य वक्ता च य: स पण्डित उच्चते।।

अर्थात् – जो ग्रन्थों के तात्पर्य को शीघ्र बता दें। ऐसा करते हुए जिनकी वाणी कहीं रुके नहीं। जो विलक्षण तरीक़े से बात करें। तर्क में निपुण हों। प्रतिभावान् हों, वे ‘पंडित’ (पीएचडीधारक जैसे) कहे जाते हैं। 

पाँच – गुरु 

निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि:। सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते।।

अर्थात् – जो शास्त्रविधि अनुसार गर्भाधान, जातकर्म आदि विभिन्न संस्कारों को विधिपूर्वक पूरा कराएँ। इस प्रकार पिता की तरह यजमान के परिवार ही नहीं, समाज का भी बौद्धिक, आत्मिक, आध्यात्मिक पोषण करें। मार्गदर्शन करें। वे ब्राह्मण ‘गुरु’ कहलाते हैं। 

गौर करने लायक है कि अंग्रेजी भाषा में ‘गुरु’ के समकक्ष भी कोई शब्द नहीं है। हो भी कैसे? अंग्रेजों ने तो विस्तार को संकुचित करने की, समेटने की दिशा पकड़ी है। जैसे – अंग्रेजों की संस्कृति में उनका परिवार ही विश्व होता है। जबकि, सनातन संस्कृति में पूरा विश्व ही परिवार है। तो सोचिए, हमें किस ‘परिवार’ में शामिल होना है?

————— 

(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

 

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