प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 22/6/2021

त्यागना। इसे सामान्य भाषा में हमेशा के लिए किसी चीज को छोड़ देना कह देते हैं। जैसे दान देना भी त्याग है। वैसे, अक्सर हम धन त्यागने को ही असल त्याग मान लेते हैं। क्योंकि शायद धन ही ऐसी वस्तु है, जिसे छोड़ना सबसे कठिन है। अन्य चीजें त्यागना सरल है पर धन त्यागना बहुत कठिन। किसी ने कहा भी है, ‘चमड़ी जाए, दमड़ी न जाए।’ पर आधुनिक समाज में और भी बहुत सी चीजें त्यागी जा रही हैं। जैसे कि बुजुर्ग माता-पिता। महज़ अनुकूलता के लिए उनका त्याग कर दिया जाता है। हालाँकि आज व्यक्ति के परिवार में माता-पिता के अलावा और कोई रिश्ता-नाता होता नहीं। फिर भी सन्तान बड़ी होकर उनके त्याग से नहीं चूकती। क्योंकि उसे धन कमाने के लिए बाहर जाना होता है। बड़े शहरों में, विदेश में। और वहाँ माता-पिता मखमल में पैबन्द की तरह मान लिए जाते हैं। वे बच्चों की आधुनिक दुनिया में ‘अनुकूल’ नहीं बैठते। इसलिए त्याग दिए जाते हैं। फिर ये त्यागे गए माता-पिता या तो अपने पैतृक स्थानों में एकाकी जीवन बिताते हैं या वृद्धाश्रमों में अपनी तरह के अनजान वृद्धों के बीच जगह पाते हैं। और दिलचस्प ये कि यही युवा सन्तानें चन्द पैसे कमाकर,साल में एकाध बार वृद्धाश्रमों में जाकर, वहाँ कुछ धन आदि का कथित ‘त्याग’ कर आत्मीयता अर्जित करने की कोशिश करती भी दिख जाती हैं।

बहरहाल, साल में एकाध मर्तबा से याद आया। अभी दो रोज पहले ही ‘फादर्स डे’ मनाया गया। यानि पिता का दिवस। उस दिन तथाकथित सामाजिक माध्यम (Social Media) खूब रंगे-चंगे नज़र आए। तमाम लोग अपने पिता को, उनके योगदान को याद करते हुए भावुक कर देने वाली तस्वीरें और लेख प्रसारित करते हुए दिखे। फिर यह देखते हुए भी कितने लोगों ने उनके लिखे पर टिप्पणी (Comment) किए। किस-किसने पसन्द (Like) किया। कितनी बार उनके विचार को साझा (Share) किया गया। पर फिर भी ठीक ही लगा, यह सब देखकर। क्योंकि एक दिन, किसी चलन (Fashion) के कारण ही सही, कम से कम पिताओं को बिना लांछित किए याद तो किया गया। वरना, आज के आधुनिक वातावरण में समाज जिस क्रान्ति से गुजर रहा है, वहाँ पिता चूँकि पुरुष सत्ता का प्रतीक है, इसलिए उसे याद करना अपराध भी माना जा सकता है।

हालाँकि यहाँ बात हो रही है त्याग की। एक समय था, जब परिवार का, समाज का, सम्बन्धों का त्याग बड़े उद्देश्य से किया जाता था। बुद्ध ने अपने परिवार का त्याग ऐसे ही महान उद्देश्य से किया था। इसीलिए वे त्याग भाव का तीसरे आर्यसत्य के रूप में परिचय कराते हैं। उसे नाम देते हैं, ‘दुःख-निरोध’। दुःख-निरोध यानि दुःख-समुदाय अर्थात् तृष्णा का परित्याग है। जब तृष्णा नहीं रहेगी तो किसी विषय के संग्रह की इच्छा नहीं होगी। विषय के प्रति आग्रह नहीं होगा, आसक्ति नहीं होगी। सो, जिन विषयों को बुद्ध ने उपादान (विषयों का संग्रह) कहा है, अगर वे न हों तो ‘भव’ अर्थात् पुनर्जन्म न हो। जन्म न हो तो बुढ़ापा, मरण, शोक, प्रिय से वियोग-संयोग, मन की खिन्नता आदि दुःख न हों। इस प्रकार सभी दुखों का निरोध हो जाता है, एक तृष्णा के त्याग मात्र से। 

लेकिन यह परित्याग इतना सरल नहीं है। आचार्य भर्तृहरि इस प्रसंग में बड़ी सुन्दर बात कहते हैं…

“भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता:, तपो न तप्तं वयमेव तप्ता:।
कालो न यातो वयमेव याता: तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।।”

अर्थ – भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया है। तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए। काल (समय) कहीं नहीं गया, बल्कि हम स्वयं चले गए। इस सबके बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गई। पुरानी नहीं हुई। बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए।। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि घोर प्रयास और बड़ी कठिनाइयों के बाद ही कुछ लोग, बस कुछ लोग ही, इन तृष्णाओं को त्यागने की सामर्थ्य अर्जित कर पाते हैं। इसीलिए कहते हैं, बुद्ध होना इतना आसान कहाँ है? अगर आसान होता तो सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों होते भला?

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 16वीं कड़ी है।)

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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?

14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?

13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?

12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन

11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?

10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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