भावनाओं के सामने कई बार पैसों की एहमियत नहीं रह जाती, रहनी भी नहीं चाहिए!

निकेश जैन, इन्दौर मध्य प्रदेश

निकेश, आपको और कितने पैसे चाहिए? 

एक नई-नवेली कम्पनी के मानव संसाधन विभाग के मुखिया (सीएचआरओ) ने मुझसे सवाल किया था। वे चाहते थे कि मैं उनकी कम्पनी में आ जाऊँ। इसके लिए वे कोई भी कीमत देने को तैयार थे। 

मैंने उनसे कहा, “आपकी पेशकश पहले ही मेरी अपेक्षाओं से कहीं ज़्यादा है। इसलिए इसे पैसे का मामला न समझिए। मेरे कुछ निजी कारण हैं। इसलिए मुझे सोचने का थोड़ा और समय चाहिए। 

और मेरे निजी कारण क्या थे? मैं उस समय जिस कम्पनी में काम कर रहा था, उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था। मुझे अपने काम में मज़ा आ रहा था। कम्पनी में मेरा सम्मान था और आगे बढ़ने की सम्भावनाएँ भी ख़ूब थीं। वहाँ बस, एक समस्या थी। सारी दुविधा उसी कारण थी, न कि पैसे की वज़ह से। 

मैं अपने बच्चों से दूर था। मेरी बड़ी बेटी स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी करने वाली थी। उसका स्कूल में आख़िरी साल था और फिर उच्च अध्ययन के लिए उसे किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना था। ऐसे अहम मौक़े पर मैं उसके साथ नहीं था। किसी दूसरे शहर में काम कर रहा था। जबकि मैं उसके साथ होना चाहता था। 

आख़िरकार मैंने बेटी के साथ होने का विकल्प चुना और बेंगलुरू वापस आ गया। 

मेरी पूर्व कम्पनी के कई लोगों को मेरे फ़ैसले के पीछे का यह कारण समझ नहीं आया। उन्हें लगा कि मुझे दूसरी कम्पनी ने ज़रूर मोटा पैसा दिया होगा। इसीलिए मैंने जमी-जमाई नौकरी छोड़ी है। बल्कि उन्होंने तो मुझे कानूनी नोटिस तक थमा दिया, जो मेरे 25 साल के कॉरपोरेट करियर का पहला मामला था। 

ख़ैर उस वक़्त जो हुआ, सो हुआ। मगर आज इतने सालों बाद जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे अपना वह फ़ैसला साेलह आने ख़रा महसूस होता है। इसलिए कि अगर तब मैं अपनी बेटी के साथ नहीं रह पाता, तो उस बात का पछतावा मुझे ज़िन्दगी भर होता रहता। 

पैसों से दुनिया में बहुत सी चीज़ें ख़रीदी जा सकती हैं। लेकिन कुछ भावनाएँ होती हैं, जिनके सामने पैसों की एहमियत नहीं रह जाती… और रहनी भी नहीं चाहिए। 

कॉरपोरेट दुनिया के लोगों को भी यह सीख-समझ लेना चाहिए। 

——

निकेश का मूल लेख

Nikesh, how much more money you want?

I was asked this question by a CHRO of a startup who badly wanted me to join them.

My response was – your offer is already far better than what I was expecting so it’s not the compensation but it’s my own personal reasons because of which I needed more time to think about it.

And my personal reason was my emotional binding with my previous (or then current) employer.

I was enjoying the job; my role. I was treated well and potential was huge.

But I was away from my kids, working in a different town and I strongly felt I needed to be with my elder daughter during her last year in the school while she was applying for universities.

Huge dilemma….which had noting to do with money.

Finally, I decided in favor of my daughter and moved back to Bangalore.

A lot of people in my previous company did not understand this decision. They felt I left and joined a competition because they must have offered me a huge hike etc.

In fact I was served a legal notice as well (my first in my entire 25 years of corporate career).

Today after so many years when I look back, I feel that was a right decision. If I were not with my daughter that time, I would have lived with that guilt my entire life.

Money can buy many things but there are emotions that are beyond money.

Corporates also need to learn that!

Thoughts?

——- 

(निकेश जैन, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने इसे लिंक्डइन पर लिखा है।)

——
निकेश के पिछले 10 लेख

18 – सब छोड़िए, लेकिन अपना शौक़, अपना ‘राग-अनुराग’ कभी मत छोड़िए
17 – क्रिकेट से दूर रहने के इतने सालों बाद भी मैं बल्लेबाज़ी करना भूला कैसे नहीं?
16 – सिर्फ़ 72 घंटे में पीएफ की रकम का भुगतान, ये नया भारत है!
15 – भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग अब अमेरिका से भी बेहतर हैं, कैसे?
14 – छोटे कारोबारी कैसे स्थापित कारोबारियों को टक्कर दे रहे हैं, पढ़िए अस्ल कहानी!
13 – सिंगापुर वरिष्ठ कर्मचारियों को पढ़ने के लिए फिर यूनिवर्सिटी भेज रहा है और हम?
12 – जल संकट का हल छठवीं कक्षा की किताब में, कम से कम उसे ही पढ़ लें!
11- ड्रोन दीदी : भारत में ‘ड्रोन क्रान्ति’ की अगली असली वाहक! 
10 – बेंगलुरू में साल के छह महीने पानी बरसता है, फिर भी जल संकट क्यों?
9- अंग्रेजी से हमारा मोह : हम अब भी ग़ुलाम मानसिकता से बाहर नहीं आए हैं!

सोशल मीडिया पर शेयर करें
From Visitor

Share
Published by
From Visitor

Recent Posts

‘देश’ को दुनिया में शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है क्योंकि कानून तोड़ने में ‘शर्म हमको नहीं आती’!

अभी इसी शुक्रवार, 13 दिसम्बर की बात है। केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी लोकसभा… Read More

2 days ago

क्या वेद और यज्ञ-विज्ञान का अभाव ही वर्तमान में धर्म की सोचनीय दशा का कारण है?

सनातन धर्म के नाम पर आजकल अनगनित मनमुखी विचार प्रचलित और प्रचारित हो रहे हैं।… Read More

4 days ago

हफ़्ते में भीख की कमाई 75,000! इन्हें ये पैसे देने बन्द कर दें, शहर भिखारीमुक्त हो जाएगा

मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर को इन दिनों भिखारीमुक्त करने के लिए अभियान चलाया जा… Read More

5 days ago

साधना-साधक-साधन-साध्य… आठ साल-डी गुकेश-शतरंज-विश्व चैम्पियन!

इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11… Read More

6 days ago

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल दहाड़ा- बर्बर होरी घाटी में ‘सभ्यता’ घुसपैठ कर चुकी है

आकाश रक्तिम हो रहा था। स्तब्ध ग्रामीणों पर किसी दु:स्वप्न की तरह छाया हुआ था।… Read More

7 days ago