वाल्मीकि-रामायण में पहले पाँच ही काण्ड थे, अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक!

कमलाकांत त्रिपाठी, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश से

मूल वाल्मीकीय रामायण में “रामायण” के शब्दार्थ “राम की यात्रा” के अनुरूप बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड की प्रक्षिप्तता की स्थापना करनेवाले विद्वानों में वासुदेव शरण अग्रवाल और डॉ. नंदकिशोर देवराज प्रमुख हैं। माना कि किसी भी स्थापना के मूल्यांकन का एकमात्र आधार गुणावगुण (merits) के आलोक में उसका विश्लेषण और परीक्षण ही होना चाहिए। किन्तु, दुनिया जैसी है, उसमें सम्बन्धित विद्वानों की हैसियत और प्रतिष्ठा को अधिक वरीयता दी जाती है। दुनिया के ढर्रे को तर्जीह देते हुए, सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्धता के कारण अनावश्यक होने के बावजूद, पाठकों के लिए त्वरित सुलभता की दृष्टि से इन दोनों विद्वानो के मतों की पूर्वपीठिका के तौर पर इनसे सम्बन्धित कुछ सूचनाओं का भी उल्लेख प्रासंगिक होगा।

वासुदेवशरण अग्रवाल (1904-1960) प्राचीनभारत-केन्द्रित प्राच्यविद्या (Indology) के मूर्धन्य विद्वानों में शुमार होते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की देन डॉ. अग्रवाल मथुरा पुरातत्त्व संग्रहालय के अध्यक्ष (1930-40) तथा भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष (1946-1951) रहे। 1951 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ इंडोलॅजी में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए। वर्ष 1952 में लखनऊ विश्वविद्यालय में राधाकुमुद मुखर्जी व्याख्यान-निधि के व्याख्याता के रूप में पाणिनि पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यानमाला का आयोजन किया। डॉ. अग्रवाल के शोध और लेखन का बहुआयामी क्षेत्र संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं के साहित्य और उनमें बिम्बित भारतीय संस्कृति के मूलाधारों की वैज्ञानिक एवं तार्किक व्याख्या है। संस्कृत साहित्य में कालिदास और बाणभट्ट से लेकर पुराण और महाभारत तक एवं हिन्दी साहित्य में विद्यापति के अवहट्ठ काव्य कीर्तिलता से लेकर जायसी के पद्मावत तक उनकी तर्कसंगत व्याख्या के हासिल में नवीन प्रासंगिकता प्राप्त करते हैं। उनकी हिन्दी कृतियों—‘मेघदूत-एक अध्ययन’, ‘हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘कादम्बरी’, ‘पाणिनि कालीन भारतवर्ष’, ‘मार्कण्डेय पुराण: एक संस्कृतिक अध्ययन’, ‘पद्मावत’ (मूल एवं संजीवनी व्याख्या), कीर्तिलता (ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अध्ययन एवं संजीवनी व्याख्या), भारत सावित्री (तीन खण्डों में महाभारत-कथा का निचोड़ और उसका आलोचनात्मक पाठ), भारत की मौलिक एकता, भारतीय कला, सात निबन्ध-संग्रहों के अतिरिक्त उनके द्वारा अनूदित एवं सम्पादित पुस्तकों का पूरा भंडार है।

हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी भारत-केन्द्रित प्राच्यविद्या पर उनके द्वारा लिखित 11 पुस्तकें और सम्पादित तीन पुस्तकें हैं। साहित्य अकादमी ने उनकी चुनी हुई रचनाओं को लेकर ‘वासुदेवशरण अग्रवाल रचना संचयन’ प्रकाशित किया है, जो एक बहुमूल्य ग्रन्थ है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने वाल्मीकीय रामायण के गहन अनुशीलन के बाद एक महत्वपूर्ण शोध-आलेख “रामायणी कथा” शीर्षक से लिखा था। सौभाग्य से उनका यह आलेख वियोगी हरि द्वारा सम्पादित और सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित (2011) पुस्तक “हमारी परम्परा” में संगृहीत (पृ.210-232) है। अग्रवाल जी लिखते हैं, “अब हम रामायण की कथा को लेते हैं। इसके लिए वर्तमान संस्करण का ही आश्रय लिया गया है। यह स्मरण रखना चाहिए कि वर्तमान लोक प्रचलित संस्करण दाक्षिणात्य पाठ पर आधारित है। निर्णयसागर और गीताप्रेस के संस्करण नहीं हैं। इसके अतिरिक्त इटली के विद्वान्‌ गौरेशियों ने बंगीय पाठ मुद्रित किया था, और पं. विश्वबन्धु ने उत्तर-पश्चिम का पाठ प्रकाशित किया है। किन्तु वे दोनों लोक में चालू नहीं हुए। फिर भी यह उल्लेखनीय है कि रामायण की उत्तरापथवाचना के, जो वस्तुत: कौशल जनपद की वाचना थी, सम्पादन और प्रकाशन की आवश्यकता अभी बनी है। अनन्य गति से हम यहाँ प्रस्तुत प्रकाशित संस्करण को ही आधार मानकर कथा का वर्णन कर रहे हैं।”

“रामायण के कुछ हस्तलेख ऐसे हैं जिनमें अयोध्याकाण्ड को ही आदिकाण्ड कहा गया है। ज्ञात होता है कि उस समय ‘कौशलो नाम मुदित: स्फीतो जनपदो महान्‌’ से ही ग्रन्थ का आरम्भ होता था।“ (पृ.215-16)

अग्रवाल जी अयोध्याकाण्ड (आदिकाण्ड) के जिस आरम्भिक श्लोक का सन्दर्भ दे रहे हैं। वह प्रचलित संस्करण (गीताप्रेस) में बालकाण्ड के पाँचवे सर्ग (सर्ग-1 से सर्ग-4 तक अन्य पुरुष में स्वयं वाल्मीकि की कथा घुसा देने के बाद) का पाँचवाँ श्लोक है, “कोशलो नाम मुदित: स्फीतो जनपदो महान्‌। निविष्ट: सरयूतीरेतीरे प्रभूतधनधान्यवान्‌॥” [कोशल नाम का एक ख़ुशहाल और विशाल जनपद है। वह सरयू के किनारे बसा हुआ, प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न है।] अयोध्या में घटित मानव-सम्बन्धों की एक अपूर्व विडम्बना के तहत मर्यादा पुरुषोत्तम (ईश्वर नहीं) राम जिस धैर्य और कर्तव्य-बोध के साथ सिंहासन-त्याग और वनवास-स्वीकार करते हैं। वहीं रामायण (राम-यात्रा) का बीज-बिन्दु है। उस यात्रा पर आधारित काव्य-प्रबन्ध की शुरुआत के लिए इस श्लोक से अधिक सहज, सरल, लोकोन्मुख पद्य और क्या हो सकता था?

वर्तमान में प्रचलित बालकाण्ड के उपरोक्त पाँचवें सर्ग के शुरू के चार श्लोकों का कथ्य भी द्रष्टव्य है। सर्ग-4 में वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचनाकर लव-कुश को उसमें प्रशिक्षित करने के बाद यह सर्ग लव-कुश द्वारा रामायण के गायन से प्रारम्भ होता है। गायन के माध्यम से ही इस सर्ग-5 का कथ्य यूँ शुरू होता है, “समस्त पृथ्वी पूर्वकाल से जिस वंश के विजयशाली राजाओं के अधिकार में रही है, जिन्होने समुद्र का उत्खनन कराया था, जिन्हें यात्रा-काल में साठ हज़ार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुल में उत्पन्न हुए, उन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओं की कुल-परम्परा में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान्‌ आख्यान का अवतरण हुआ है। हम दोनों (लव-कुश) आदि से अन्त तक इस काव्य का पूर्ण रुप से गान करेंगे। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है। अत: आप लोग दोषदृष्टि का परित्याग कर इसका श्रवण करें।”

इसके बाद ही प्रचलित रामायण के बालकाण्ड के पाँचवें सर्ग का उपरोक्त श्लोक आता है, जिसका उल्लेख अग्रवाल जी मूल रामायण के आदिकाण्ड (अयोध्याकाण्ड) के प्रथम श्लोक के रूप में करते हैं। आपको स्पष्ट हो गया होगा कि इस श्लोक के कथ्य की शैली ही वाल्मीकि की आडम्बरहीन, सरल, प्रकृत और लोकगम्य शैली है जो (प्रक्षिप्त) बालकाण्ड के पाँचवे सर्ग के ही शुरू के चार श्लोकों के कथ्य की अलौकिक, आडम्बरी और अतिशयोक्तिपूर्ण शैली से इसे पृथक्‌ कर देती है। अग्रवाल जी अपने उपरोक्त आलेख में प्रचलित रामायण के बालकाण्ड से युद्धकाण्ड तक की कथा का संक्षिप्त पाठ देकर बालकाण्ड के प्रक्षिप्त होने का प्रमेय निर्मित करते है। फिर युद्धकाण्ड के अन्तिम सर्ग में आई फलश्रुति के आधार पर उसे अन्तिम काण्ड मानते हुए (निहितार्थ—उत्तरकाण्ड भी प्रक्षिप्त है) अपना आलेख निम्नलिखित निष्कर्ष के साथ समाप्त करते हैं, “यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि-रामायण में पहले पाँच ही काण्ड थे। उसका आरम्भ अयोध्याकाण्ड से और समाप्ति युद्धकाण्ड में होती थी। बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड कालान्तर में आगे-पीछे संकलित हुए जब गुप्त-युग में (?) उसे काव्य-रूप में परिणत किया गया।“ (पृ.232)

यहाँ ‘कालान्तर’ शब्द तो सर्वथा समीचीन है। किन्तु गुप्तकाल का निश्चयात्मक उल्लेख अन्य विवादों को जन्म दे सकता है। कारण, कालिदास के रघुवंशम्‌ में भी उत्तरकाण्ड के सीता-निर्वासन और शम्बूक-वध प्रसंग आते हैं। इससे उत्तरकाण्ड का समावेश कालिदास के पूर्व इंगित होता है। कालिदास का समय यद्यपि पाश्चात्य विद्वान्‌ गुप्तकाल मानते हैं किन्तु भारतीय विद्वान्‌ विक्रम संवत्‌ के जनक उज्जयिनी-नरेश विक्रमादित्य और कालिदास के नाटक विक्रमोर्वशीयम्‌ की सम्बद्धता तथा कालिदास के समस्त साहित्य में उज्जयिनी और महाकाल से उनके अकाट्य सम्बन्ध के प्रभूत साक्ष्य के आधार पर (गुप्त राजाओं की राजधानी उज्जयिनी नहीं, पाटलिपुत्र थी) उन्हें एकमत से पहली शताब्दी ई. पू. में रखते हैं; विक्रम संवत्‌ ईसवी सन्‌ से 57 साल पहले शुरू हुआ था। अन्धानुकरण किसी का भी हो, त्याज्य है।

आधुनिक भारत के बहुआयामी चिन्तकों में अग्रगण्य डॉ. नंद किशोर देवराज (जन्म:1917) भी लखनऊ विश्वविद्यालय की देन थे (कई साल पहले एक दुर्भाग्यपूर्ण सड़क-दुर्घटना में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई)। वे लखनऊ विश्वद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक रहे। तदुपरान्त उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग मे प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष का कार्यभार सँभाला। इस विश्वविद्यालय के उच्चानुशीलन केन्द्र के निदेशक भी रहे। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्‌ के सीनियर फ़ेलो के रूप में पौर्वत्य और पाश्चात्य दर्शन और संस्कृति पर उन्होंने अभूतपूर्व कार्य किया। हिन्दी में उन्होंने कई उच्च कोटि के उपन्यास और कविताएँ भी लिखीं तथा सैद्धांतिक आलोचना पर अपनी सुसंगत साहित्य-दृष्टि का ख़ुलासा किया। उनकी पुस्तकों में Philosophy of Culture and an Introduction to Creative Humanism’ (हिन्दी में—‘संस्कृति का दार्शनिक विवेचन’), ‘Freedom, Creativity and Value,’ ‘Humanism in Indian Thought’, ‘Limits of Disagreement’, ‘The Mind & Spirit of India, ‘Hinduism and the Modern Age, ‘Hinduism and Christianity’, ‘Islam and the Modern Age Society’, ‘दर्शन: स्वरूप, समस्याएँ एवं जीवन-दृष्टि’, ‘भारतीय संस्कृति: महाकाव्यों के आलोक में’ के अतिरिक्त उनके द्वारा संपादित ‘भारतीय दर्शन’ नाम की एक लोक-विश्रुत पुस्तक है। उनके बीस निबन्धों का संग्रह Philosophy, Religion & Culture शीर्षक से तथा एक और निबन्ध-संग्रह The Concept of Person and other Essays के नाम से प्रकाशित है। ‘अजय की डायरी’, ‘मैं, वे और आप’ तथा ‘पथ की खोज’ उनके विशिष्ट कोटि के उपन्यास तथा ‘इतिहास पुरुष’ उनका कविता संग्रह है। उनके उपन्यासों के केन्द्र में साहित्य में दार्शनिक दृष्टि का सुष्ठ समावेश है। वे जीवन के इस मूल प्रश्न से जूझते हैं कि क्या सांस्कृतिक अभिरुचि और बौद्धिकता स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को सार्थकता प्रदान कर सकती है? उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आलोचना सम्बन्धी मेरी मान्यताएँ’ में साहित्य और आलोचना के अन्तर्सम्बन्ध, आलोचना की भूमिका तथा उसकी सीमाओं का बेबाक निदर्शन किया है।

डॉ. देवराज बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, एक प्रखर मानवतावादी थे और समाजवाद तथा व्यक्तिवाद में सम्यक्‌ सामंजस्य के लिए आजीवन चिंतन-मनन करते रहे। उन्हें बहुमुखी भारतीय मनीषा का आधुनिक प्रतिरूप कहा जा सकता है। डॉ. नंद किशोर देवराज अपनी पुस्तक “भारतीय संस्कृति: महाकाव्यों के आलोक में” {उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) लखनऊ,1979 संस्करण} में पृष्ठ 226–229 पर वाल्मीकीय रामायण के हर काण्ड की कथा के प्रमुख प्रसंगों का उल्लेख करते हैं। पृष्ठ 228 पर युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्ड के कथा-प्रसंगों का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं, “युद्धकाण्ड–…..चौदह वर्ष पूर्ण होने पर राम का अयोध्या प्रत्यागमन। भरत द्वारा राज्य-रूप धरोहर का वापस देना। पुष्पक विमान का लौट जाना। राम का अभिषेक। सीता द्वारा हनुमान को हार का दान, राम के राज्य का वर्णन और रामायण की कथा सुनने के फल का कथन। उत्तरकाण्ड—रामायण-श्रवण के फल-कथन से जान पड़ता है कि मूल रामायण युद्धकाण्ड के साथ समाप्त हुई थी। उत्तरकाण्ड में काफ़ी बाद में सुग्रीव, विभीषण आदि का प्रयाण दिखाया गया है। जबकि युद्धकाण्ड में राज्याभिषेक के तुरन्त बाद उनकी बिदाई हो जाती है।” इस तरह डॉ. देशराज भी उत्तरकाण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं। बालकाण्ड के सम्बंध में डॉ. देवराज इसी पुस्तक के पृष्ठ 226 पर अयोध्याकाण्ड के कथा-प्रसंगों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “अयोध्याकाण्ड काव्य की दृष्टि से रामायण का सर्वश्रेष्ठ अंश है। बालकाण्ड में अलौकिक कथाओं की भरमार है, अयोध्याकाण्ड में विशुद्ध मानवीय कथा कही गई है।“

इस तरह डॉ. देवराज की कसौटी कथा-प्रसंगों की मानवीयता बनाम अलौकिकता है। लोक में रामकथा अतिप्राचीनकाल से प्रचलित थी। निश्चय ही यह लोककथा प्रकृत रूप से अलौकिकता और राम पर अवतारतत्त्व या ईश्वरत्त्व के आरोपण से मुक्त थी। वाल्मीकि ने इसी लोककथा के आधार पर अपने आदिकाव्य में विडम्बनाओं से भरी राम-यात्रा के लौकिक आख़्यान को प्रबन्ध काव्य का रूप दिया। रामायण काल तक वासुदेव भक्ति सम्प्रदाय के अवतारवाद का उदय ही नहीं हुआ था। यह तो बाद के महाभारत काल की उपज थी। महाभारत में भी रामकथा आती है। इससे सिद्ध होता है कि रामकथा उसके बहुत पहले से लोक में प्रचलित थी, जब अवतारवाद का उदय नहीं हुआ था।

इस तरह वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड तो पूर्णत: प्रक्षिप्त हैं ही, शेष पाँच काण्डों में भी यत्र-तत्र प्रक्षिप्त घुसाकर पुराण-शैली में अलौकिकता की पच्चीकारी कर दी गई है। जहाँ-जहाँ कथा में अलौकिकता का तत्त्व आता है या राम पर आदर्श पुरुष, आदर्श राजा और आदर्श लोकनायक से इतर अवतारत्त्व या ईश्वरत्त्व का आरोपण होता है, वे सभी अंश बाद के प्रक्षिप्त हैं। इसके लिए वाल्मीकीय रामायण के विभिन्न वाचनों तथा हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध पाठों के गहन परीक्षण से प्रक्षिप्त अंशों की पहचान और उनके बहिष्करण की ज़रूरत है। यह शुद्ध रूप से अकादमिक काम है। किन्तु इसका एक अनिवार्य राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। सामान्य जन में गहरी जड़ें जमाए जो आस्था (या दुरास्था) का तत्त्व है, इस प्रयास को अतिरिक्त पेचीदा और जोखिम-भरा बनाने के लिए नियतिबद्ध है। जो भी हो, सनातन के मूलाधार में जो सतत अग्रगामी परम्परा अभिनिविष्ट है उसे कभी न कभी यह कठिन कार्य हाथ में लेना ही होगा। तुलसी ने और नहीं तो उत्तरकाण्ड के अमानवीय एवं अयुक्तिपूर्ण सीता-निर्वासन और शम्बूकवध के अधोगामी प्रसंगों का बहिष्करण कर एक क्रांतिकारी परम्परा का सूत्रपात किया। उस परम्परा में अभी प्रभूत सम्भावनाएँ संगर्भित हैं।
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(उत्तर प्रदेश की गोरखपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व व्याख्याता और भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे कमलाकांत जी ने यह लेख मूल रूप से फेसबुक पर लिखा है। इसे उनकी अनुमति से मामूली संशोधन के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। इस लेख में उन्होंने जो व्याख्या दी है, वह उनकी अपनी है।) 
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कमलाकांत जी के पिछले लेख 
9. वाल्मीकि रामायण में ‘जोड़ा गया उत्तरकाण्ड’, जो एक बार लगता है जैसे ‘रावणकाण्ड’ हो!
8. यह वाल्मीकि रामायण का बालकाण्ड है या विश्वामित्र-काण्ड?
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5. क्या भगवान राम के समकालीन थे महर्षि वाल्मीकि?
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1. अग्नि परीक्षा प्रसंग : किस तरह तुलसी ने सीता जी को ‘वाल्मीकीय सीता’ की त्रासदी मुक्त किया!

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Neelesh Dwivedi

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