दुर्रानी व सामवेद का उर्दू अनुवाद: वेद किसी की धरोहर नहीं, वे मानव के लिए ईश्वरीय वाणी हैं

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

झारखंड के रहने वाले एक मशहूर फिल्मकार हैं इक़बाल दुर्रानी। उन्होंने कुछ समय पहले ‘सामवेद’ का उर्दू में अनुवाद किया था। लेकिन इतना वक़्त बीत जाने के बाद भी अब तक उनके द्वारा किए गए अनुवाद के सन्दर्भ में बहुत से विद्वानों की अलग-अलग टिप्पणियाँ पढ़ने को मिल रही हैं। विद्वान बहुत से शास्त्रीय वचनों, प्रमाणों, तर्कों के आधार पर दुर्रानी द्वारा किए गए अनुवाद पर अपत्तियाँ कर रहे हैं। ये आपत्तियाँ अनुवाद की गुणवत्ता, कुशलता और सार्थकता पर नहीं, अपितु अनुवादक की धार्मिकता, भाषा और संस्कृति के आधार पर हो रही हैं। 

इस दृष्टि से कुछ विचार आवश्यक है। क्या सनातन को न मानने वाला वेद अनुवाद कर सकता है? या फिर, क्या वह वेद पढ़ भी सकता है? क्या वह वेद के अर्थ, भाव, संस्कृति आदि के प्रति अपने अनुवाद में न्याय कर पाएगा? विविध प्रश्न हैं। इन पर क्रमश: विचार करते हैं, तो अन्य नए प्रश्न उत्पन्न होते हैं। सनातन परम्परा में वेद को ईश्वरीय ज्ञान माना जाता है। निश्चित ही, ईश्वर पर कोई व्यक्ति, समाज, समूह केवल अपने होने का दावा नहीं कर सकता। करता भी है, तो वह उसकी मूढ़ता ही होगी। क्योंकि मनुस्मृति वेद को संसार के समस्त धर्मों का मूल घोषित करती है।

जैसे ईश्वर किसी व्यक्ति विशेष का नहीं हो सकता, वैसे ही ईश्वरीय ज्ञान भी किसी एक व्यक्ति की, समाज की, समूह की धरोहर नहीं हो सकती। पारसी धर्म का मुख्य ग्रन्थ ‘जेंद अवेस्ता’ तो लगभग ऋग्वेद की प्रति लगती है। इस दृष्टि से विचार करने पर भी वेद किसी एक समुदाय विशेष की धरोहर नहीं मानी जा सकती। निश्चित ही हर धर्म की अपनी पद्धतियाँ, विधियाँ, आदेश, निषेध होते हैं। इस आलोक में देखें तो भी वेद किसी एक की धरोहर नहीं हो सकते। वेद मानव मात्र के लिए ईश्वरीय वाणी हैं। क्योंकि ईश्वर ज्ञान स्वरूप है, अत: संसार में जो भी ज्ञान रूप है, वह ईश्वरीय होने से वेद है। हाँ, थोड़ा सुधार कर यह कहा जाए कि वेद सभी के लिए हैं, न कि सभी के हैं, तो अधिक उपयुक्त रहेगा।

अब बात वेद के पठन-पाठन की विधियों की आती है। तो भारतीय परम्परा में वेद को ‘धूर्तों के वचन’ कह कर निन्दा करने वाले ‘चार्वाक’ भी ऋषि माने जाते हैं। यह भी निश्चित है कि जब उन्होंने ‘धूर्तों के वचन’ कहा होगा तो वेद को पहले पढ़ा भी होगा। वहीं दूसरी तरफ वेद ज्ञान देने वाले ‘ब्रह्मा’ की पूजा तक निषिद्ध है। ऐसे ही, पढ़ने की विधि पर जब बात करते हैं, तो सबसे पहले पढ़ने के ‘अधिकारी’ होने की बात आती है। ये कि वेद पढ़ने का अधिकारी कौन है? अगर विधि परम्परा की बात करें तो पूरे विश्व की जनसंख्या के .01% व्यक्ति भी वेद पढ़ने-पढ़ाने के अधिकारी होने की योग्यता नहीं रखते होंगे। यहाँ तक कि सनातन मानने वालों में भी परस्पर पढ़ने का अधिकारी होने के प्रमाण-पत्र निरस्त किए जाते हैं। तो फिर अन्य धर्म मानने वाले के विषय में क्या ही कहा जाए।

वेद ही नहीं, अपितु सनातन परम्परा में प्रत्येक शब्द तक ‘ब्रह्म’ है। उसका शुद्ध उच्चारण करना भी वेद के समान प्रभाव पैदा करने वाला माना गया है। शास्त्र कहते हैं, ‘एक शब्द मात्र सही से पढ़, बोल या प्रयोग कर लिया, वही स्वर्ग और लोक में समस्त प्रकार का कल्याण करने वाला होता है”। फिर अधिकारी होकर वेद पढ़ने की तो बात ही निराली होगी। और अगर अधिकारी हुए बिना कुछ पढ़, लिख, सीख भी लिया तो भी थोड़ा पुण्य या कहें मानवीय गुणों के उत्कर्ष का कारण ही तो बनेगा। ओर  इससे अधिक क्या होगा?

तुलसीदास जी कहते हैं, 
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥

और भी देखिए
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याभंतर: शुचि:।

केवल अनुवाद करने मात्र से या पढ़ने मात्र से किसी भी धर्म या ग्रन्थ या धर्म समूह पर कोई सार्थक-निरर्थक प्रभाव पड़ेगा या नहीं, यह उस समुदाय की वैचारिक उर्वरा पर निर्भर करता है। हालाँकि अमृत चाहे देव चखें या राक्षस, अमृत के गुण के कारण अमर तो होना ही है।

मूल वेद जिस धर्म के हैं, वह धर्म निश्चित ही इतना दुर्बल नहीं कि किसी के अनुवाद करने या पढ़ने मात्र से उसमें कुछ कम हो जाएगा। न ही मूल धर्म या सनातन धर्म किसी को वेद पढ़ने-पढ़ाने का निषेध करता है। हाँ, शास्त्रीय परम्परा से पढ़ना है, तो विधियों का पालन अनिवार्य है। यह विधियाँ मंत्र के प्रभाव को कई गुणा बढ़ा देती हैं। वहीं विधिवत् सीखने वाले अधिकारी को पूरी तरह समर्पण भाव से सीखने पर मंत्र अपना स्वरूप स्वयं ही खोलकर रख देते हैं। शास्त्र-वचन में कहें तो “यथा पति-पत्नी स्वत: स्नेह भाव से परस्पर विवस्त्र होते हैं’, वैसे ही।
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(नोट : अनुज संस्कृत के शिक्षक हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के हैं। दिल्ली में रहते हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शुमार हैं। डायरी पर लगातार इस तरह के लेख, श्रृंखलाएँ, आदि लिखते रहते हैं।)

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