संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 11/12/2021
परछाइयाँ बहुत गहरी हैं। हम सब बहुत तकलीफ़ में हैं। उम्र का लम्बा पड़ाव बीत गया है और कुल जमा हासिल अगर यह था या ये होने वाला था तो ज़िन्दगी की सभी शर्तें नामंज़ूर हैं और मैं सब लौटाकर फिर से शून्य पर लौटना चाहता हूँ। एक नई ताक़त और जोश के साथ, नई दिशाएँ तलाशने और वो सब कुछ पाने को जो खिलन्दड़पन से हासिल हो सकता है। मुझे नहीं चाहिए ये ख़ौफ़, वहशत और अंधेरे बन्द कमरों की सौग़ातें।
होश सम्हाला तब से ऊँचे मकान, पतले से अंधेरे चढ़ाव और तपती सी छतें मेरी साथिन रहीं। ज़िन्दगी के आधे से ज़्यादा बरस इन तपती छतों के नीचे गुज़ार दिए और उन अंधेरी सीढ़ियों को पार करते हुए ऊपर चढ़ते समय हमेशा ऐसा लगा कि ऊपर उठ जाने से समस्याएँ ख़त्म हो जाती हैं या कम से कम उनका असर तो ख़त्म हो ही जाता है। पर शायद हमेंशा की तरह ग़लत था मैं और ग़लत थीं धारणाएँ। कभी लगा ही नहीं कि झूठी सन्तुष्टि के लिए या मुग़ालतों के लिए कोई बात कभी सच हो जाए।
एक फ़ाख्ता मेरी छत पर रोज बेनागा दाने चुनने आता है। बहुत सतर्क होता है हरदम। बड़ी फुर्ती है उसमें। थाली में जो भी पड़ा हो, वह बेहद तसल्ली से एक-एक दाना चुनता है। उसकी गर्दन चहुँओर घूमती रहती है। मेरी नजर पड़ते ही वह और चौकन्ना हो जाता है। किसी और चिड़िया के आसपास मँडराने पर वह थोड़ा शिथिल रहता है। बाज़ और कौव्वों को देखकर थोड़ा विचलित और आशंकित भी पर वह दानों की थाली के साथ तादात्म्य नहीं छोड़ता। उसका अपने परिवेश से संयोजन और लगाव बराबर बना रहता है।
मैं दिन में बीसों बार अपनी खिड़की से निहारता हूँ। उसके बरअक़्स अपने को देखता हूँ और हर बार हार जाता हूँ, बल्कि हारकर अपने को समझा लेता हूँ कि उस एक बालिश्त जीव में और मुझमें बहुत फर्क है। मेरे पास मेधा है और चातुर्य पर बावजूद इसके मैं साध नहीं पा रहा कुछ। कारण जो भी हो। ऊपर बाजों के विशालकाय डैने हों या फन फैलाए साँपों के वृहद् घेरे, जो मेरे आसपास की ज़मीन पर फैले हैं। मैं बेहद आक्रामक होकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। वो फ़ाख्ता मुझे हर बार एक दृष्टि देता है और मैं भूल जाता हूँ, उसे निहारने में। लगता है, जीवन दानों, थाली, बाज़, कौव्वों, साँपों और सतर्कता के बीच साधने का नाम है, निहारने का नहीं।
देर रात सोने की आदत पड़ गई है, जब उठता हूँ आजकल तो आँखें चिपकी होती हैं भोर में। मलता हूँ तो कीचड़ निकलता है, जैसे सदियों की थकान सिर माथे लेकर सोया था और फिर लगता है नींद ही कहाँ आई कल रात। नहीं-नहीं, पिछले एक हफ़्ते से। नहीं-नहीं कुछ महीनों से, सालों या दशकों से। और आँखों पर पानी के छींटे देते हुए लगता है, जैसे एक बादल है जो इस दुरूह रास्ते से अन्दर घुसे जा रहा है और रास्ते का जमा कीच और मैल धुलता जा रहा है।
जीवन आरामदायक एवं सहज लम्बी नींद का दूसरा नाम होना चाहिए कि आप बिस्तर या कड़े फर्श पर गिरें और आपकी आँखें बन्द हो जाएँ और एक दिन ऐसा हो कि आप यूँ ही पड़े रहें और मन के किसी कोने में व्योम से आती आवाज़ सुनाई दे कि “रात को ठीक से सोया था यह शख्स पानी पीकर। उठा भी नहीं, न चीख सुनाई दी और न कराह सुनी किसी ने। बहुत उठाया देर तक, पानी भी छींटा पर टस से मस नहीं हुआ। तब शंका हुई और आख़िर सब कुछ ख़त्म हो गया।”
इन आवाज़ों को देखता हूँ। अपने दोनों हाथों से इन आवाज़ों की आकृति को उभारते हुए टटोलता हूँ। अच्छा लगता है, जब मुझे इन आवाज़ों को टटोलने पर घेरे नज़र आते हैं। इन आवाज़ों को ठीक-ठाक शक्ल देकर देखता हूँ तो यह मेरे ही परिवेश के वे लोग हैं, जो मुझे कभी हँसता हुआ नही देख पाए। मेरे क्रन्दन में इन्हें सुख मिला और ये परपीड़क आज कितने भयभीत हैं कि कभी इनका भी नम्बर आएगा। इन आवाज़ों की सुवास अपने भीतर महसूस करता हूँ और इनसे अपने अकेलेपन में पूरी शिद्दत से बात करता हूँ।
ये घेरे कभी फ़ाख्ता बनते हैं। कभी मासूम चिड़िया, कभी बाज़, कभी कौव्वे और कभी विषैले सर्प और मैं अपने को इनसे बहुत सघनता से गाँठते हुए गूँथता हूँ। नींद की आहट है, सपनों की प्रवेश प्रक्रिया शुरू होने को है और बिसरा दी गई स्मृतियाँ अपने शैशव से पूर्ण स्वरूप में आकर ठकठकाती हैं द्वार। मनुहार करती हैं कि चलो, अब बहुत देर हो गई है। लौटना चाहिए। और यकीन मानिए मैं बिल्कुल उदास नही हूँ। बेहद प्रफुल्लित और संयमित हूँ।
हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं। लौटना प्रीतिकर है और हम सबको लौटना है।
नैहर की याद परिपक्व दिमाग़ की वो स्मृति है, जो सब कुछ बिसरा देती है। हम सबका नेपथ्य में जाना ही नैहर है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 39वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
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