एक समय ऐसा आता है, जब हम ठहर जाते हैं, अपने आप में

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 27/2/2022

संसार में समुद्रों की कमी नहीं है और इसका अर्थ यह भी है कि पानी की कमी नहीं है। पानी, जो हर कहीं ढल जाता है, रंग रूप बदल लेता है। पर मेरे पास एक मटका है, जिसे मैंने बरसों से सम्हाल रखा है। पानी भरने और उलीचने की नियमित प्रक्रिया में वह इतना पक गया है कि अब उसके फूटने की गुंजाइश बहुत कम बची है। हालाँकि इधर शाम होते ही वह टपकने लगता है। हर 10-20 मिनिट बाद जब एक बूँद गिरती है, तो उसका शोर ब्रम्हांड में यूँ दर्ज होता है, मानो उल्का पिंड टकराए हों। और मैं अब मानकर चलता हूँ कि मटका अब फूटेगा नहीं। यूँ ही टप, टप, टप करके खाली होता जाएगा। एक दिन निर्जल हो जाएगा। फिर उसकी मिट्टी, वह गार जिस पर कुछ न चढ़ पाया था, कितनी भौंडी हो जाएगी। एकदम अनोपयोगी और निस्पृह? 

निराशा जब बढ़ती है तो स्वप्न भी हमें उन रास्तों पर ले जाते हैं, जहाँ से लौटना निषिद्ध होता है। वे रास्ते हमें बेहद डराते हैं। इतना कि सहसा यकीन नहीं होता कि ये वही हैं, जहाँ हमने अठखेलियाँ करते हुए अपने बेहतरीन पल गुजारे थे।

नींद एक नशा है जो हमें अमूमन ऐसे अमूर्त में ले जाता है, जिसमें सिर्फ हम होते हैं। स्मृतियाँ और हमारे अवचेतन के विचार अपने सम्पूर्ण और वीभत्स स्वरूप में होते हैं। पर हम समझौता नहीं करते। तमाम दु:स्वनों के बाद भी नींद में गुम रहते हैं। फिर वह लम्बी भरपूर रात हो या क्षणिक झपकी। हम बार-बार उस सबको जीना चाहते हैं, जो हम होश-ओ-हवास में नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे एक तरह का वितान रचते हैं अपने आसपास कि अब तो चैन मिले। 

एक समय ऐसा आता है, जब हम ठहर जाते हैं, अपने आप में। न कहानी, न कविता, न संगीत, न खेल, न दोस्ती और न दुश्वारियाँ। बस, एक ज़ुनून हमें अपने ही भीतर ले जाता है खींचकर और एक अभिशप्त एवं उदास साँझ के आग़ोश में सबसे दूर, कोलाहल को छोड़कर हम कुछ नहीं करना चाहते।

हम लड़ते हैं, याद करते हैं ख़ामोश होकर अपनी सफलताओं को। अपनी हार को याद करके उद्दाम वेग से सब कुछ नेस्तानाबूद कर देना चाहते हैं। पर लगता है, समय का घोड़ा तेजी से बहुत आगे बढ़ गया है। वो हरा देने वाले लोग मैदान में सिर उल्टा करके लेटे हैं। सफल लोग उन पर वमन कर रहे हैं। अट्टाहास करके उन्हें लताड़ रहे हैं और इस दृश्य में अपने को हिंसक बनाकर बदला लेना कितना सार्थक होगा? इसलिये मैं सबको मुआफ़ करता हूँ और मैदान में उल्टे पड़े सिरों को एक वक्र दृष्टि डालकर निकल जाता हूँ किसी कोने में। 

लिखना अब बेमानी है, कविता के बिम्ब चूक गए हैं। जो लिख रहे हैं वे सिर्फ सर्ग और प्रत्यय लगाकर दोहरा रहे हैं। शब्दों की आँच में सत्ताएँ पोषित हो रही हैं। क्रान्तियों की दास्ताँ सुनकर अब कोई चहक नहीं उठती। इतिहासकार कब्र में छुप गए हैं। संगीत सुनाने वाली गायिका के सुरों में अनहद नाद नही गूँजता। साज़िन्दे शाम के समय देसी दारू का एक पव्वा लेकर किसी मज़ार की ओर रुख़सत हो रहे हैं, जहाँ कोई दरवेश या औलिया झूमते हुए कव्वाली गाएगा। और आधी रात को कुत्ते की छोड़ी हुई हड्डी चूसकर सोने का जतन करेगा। 

विक्षप्त समय है। काल भयानक है। मौत का संगीन साया हर रोज नमूदार होता है। रात में देर तक चमगादड़ हुलसते हैं। बिल्ली का अपशकुनी रोना सुनाई देता है। कबूतरों की गुटरगूँ भयभीत करती है। चाँद यूँ दबे पाँव आता है, मानो नदियों के सूख जाने का अपराधी हो और एक गिद्ध मुझे देखता है और पूछता है – और कब तक इन्तज़ार करूँ?
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 48वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 
47.सब भूलना है, क्योंकि भूले बिना मन मुक्त होगा नहीं
46. एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?
45.मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44.‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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