माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 10/9/2021
तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 1815 में जब पूरे देश का दौरा किया तब उन्हें नहरी-संरचनाओं की अहमियत समझ आई। इससे जुड़े मुनाफ़ों का भी वे अनुमान लगा सके। हिंदुस्तान में 18वीं सदी की अराजकता ने इन संरचनाओं को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया था। लिहाज़ा हेस्टिंग्स ने तुरंत सबसे पहले पश्चिमी यमुना नहर के पुनरुद्धार का काम शुरू करने का आदेश ज़ारी किया। हालाँकि शुरू में काम धीमा रहा। मगर जब 1823 में सिंचाई परियोजनाओं का काम देखने के लिए दिल्ली में एक महाअधीक्षक की नियुक्ति की गई, तब इस 445 मील लंबी नहर का काम तेजी से पूरा हो सका। फिर पूर्वी यमुना नहर का 1830 में पुनरुद्धार कराया गया। वैसे, कंपनी शासन के तहत सिंचाई के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण काम गंगा नहर पर हुआ। इस नहर को उसकी मुख्य शाखा और उपशाखाओं के साथ अप्रैल 1856 तक लगभग 450 मील तक फैलाया जा चुका था।
अंग्रेजों को पंजाब में कई नहरें अच्छी स्थिति में ही मिली थीं। जो ठीक नहीं थीं, उन्होंने उनका भी पुनरुद्धार कराया। इनमें 325 मील लंबी बारी दोआब नहर प्रमुख थी। इसका काम 1856 में पूरा हुआ। बम्बई प्रान्त में हालाँकि, इस दिशा में न के बराबर काम हुआ। लेकिन मद्रास में कुछ सिंचाई परियोजनाएँ अच्छी शुरू की गईं। वह भी एक अभियंता अधिकारी आर्थर कॉटन के उत्साह की वज़ह से। उन्होंने तमाम विरोध के बावजूद 1836 में कोलेरून नदी पर बाँध का निर्माण शुरू कराया। इसके बाद कृष्णा नदी पर भी 1853 में एक अन्य बाँध बनवाना शुरू किया। इस तरह कंपनी ने जितनी भी सिंचाई परियोजनाएँ शुरू कीं, वे सब वित्तीय रूप से मुनाफ़े वाली थीं। इसके बावज़ूद कंपनी का रवैया सिंचाई परियोजनाओं को लेकर ठंडा ही रहा। उसके निदेशकों ने बड़ी हिचक के साथ इन परियोजनाओं के लिए पैसे खर्च करने की अनुमति दी। वह भी भारत में मौज़ूद प्रशासन के दबाव के कारण।
कृषि के बाद बात, आर्थिक-कारोबारी गतिविधियों की। इनमें उल्लेख ज़रूरी है कि बंगाल पर अंग्रेजों के आधिपत्य से पहले तक ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए हर साल क़रीब चार-पाँच लाख पाउंड वज़न का सोना-चांदी इंग्लैंड से भारत भेजा जाता था। ताकि वह निर्यात के लिए भारत से उत्पाद ख़रीद सके। मगर जब कंपनी ने बंगाल पर अधिकार कर लिया तो वहाँ से मिलने वाले राजस्व से ही वह भारतीय उत्पाद खरीदने लगी। साथ ही धन अब उल्टा ब्रिटेन भेजने लगी। इस बाबत चार्ल्स ग्रांट ने लिखा भी, “बंगाल अधिग्रहण के बाद शुरू के 30 साल में ही वहाँ से क़रीब पाँच करोड़ पाउंड स्टर्लिंग (इंग्लैंड की मुद्रा) की रकम ब्रिटेन भेजी गई। इसमें पूरब के अन्य हिस्सों से मिला राजस्व और हुई कमाई शामिल नहीं थी।”
हालाँकि कंपनी ने भारत में ब्रिटेन के ही निजी व्यापारियों की हदबंदी करने कोशिश भी की। वहीं, दूसरे देशों के व्यापारियों को पूरी छूट और प्रोत्साहन दे रखा था। कारण कि वे कंपनी के प्रतिनिधियों को सोना-चाँदी आदि के रूप में खूब धन देते थे। लिहाज़ा कंपनी के इस रवैये ने उसके कर्मचारियों और अन्य ब्रिटिश कारोबारियों को गुपचुप निवेश के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने स्थानीय व्यापारियों को मुखौटे जैसा इस्तेमाल किया। जबकि वे ख़ुद परदे के पीछे से कारोबार करने लगे। इससे अवैध मुनाफ़ा भी बड़ी मात्रा में इंग्लैंड पहुँचा। इस दौरान कंपनी के कई कर्मचारी तो नौकरी छोड़कर ख़ुद भी सीधे व्यवसाय में उतर गए थे। उनके साथ भी ऐसे लोगों ने ख़ूब पैसा लगाया, जिन्होंने कंपनी की नौकरी नहीं छोड़ी थी। इस आर्थिक और कारोबारी गतिविधि के लिए ‘एजेंसी हाउस प्रणाली’ शुरू की गई।
एजेंसी हाउस कंपनी के सैन्य व नागरिक प्रशासन के कर्मचारियों से निवेश स्वीकार करते थे। वह पैसा भारत में ही व्यावसायिक गतिविधियों में लगा देते थे। इनमें भारतीयों को यूरोपीय तौर-तरीकों से व्यापार करने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। ताकि वे भी अपना व्यापारिक प्रतिष्ठान या ‘एजेंसी हाउस’ खोल सकें। ये अधिकांशत: संयुक्त पूँजी सिद्धांत (ज्वाइंट स्टॉक प्रिंसिपल) पर चलते थे। यानी इनमें मालिक और निवेशक लाभ तथा देनदारियों में बराबर के हिस्सेदार थे। ये प्रतिष्ठान काफी सफल रहे। ख़ास तौर पर भारतीय कारोबारियों के, जिन्हें अंग्रेजों ने ही नहीं, अन्य यूरोपीय व्यापारियों ने भी प्राथमिकता दी।
इस तरह कंपनी की व्यावसायिक नीतियाँ काफी विरोधाभासी थीँ। उसके पास कारोबारी एकाधिकार था। लेकिन वह निजी ब्रिटिश कारोबारियों को छोड़कर हर किसी को यह एकाधिकार तोड़ने के लिए उकसाती थी। उसने नील और कपास जैसी बाग़ानी फ़सलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया। मग़र यूरोपीय समुदाय को ज़मीन का मालिक नहीं बनने दिया। उसने निजी ब्रिटिश व्यापारियों को कंपनी के जहाजों का इस्तेमाल करने पर मज़बूर किया। पर वे एक सीमा से ज़्यादा माल नहीं ले जा सकते थे। अंदरूनी बाज़ार में भी ब्रिटिश व्यापारियों की पहुँच कंपनी ने नहीं होने दी। हालाँकि 1813 के अधिकार पत्र अधिनियम ने सभी ब्रिटिश कारोबारियों के लिए भारत में व्यापार का रास्ता खोला। फिर 1833 में तो कंपनी की आर्थिक भूमिका ख़त्म होने के बाद सबके लिए ही खुल गया। लेकिन इसका नुकसान स्वदेशी उद्योग को अधिक हुआ। मसलन- लंकाशायर से सूती कपड़ों का आयात इतना बढ़ गया कि भारत का कपास निर्यात 1813 तक न्यूनतम स्तर तक पहुँच गया। इससे स्वदेशी कपास उद्योग ढहने लगा।
इन हालात के मद्देनज़र कंपनी के निदेशकों की सभा ने 11 जून 1823 को सिफारिश की कि भारत के “स्थानीय उत्पादकों से वसूले जा रहे सभी अनावश्यक शुल्क हटा लिए जाएँ।” इसके बाद कुछ परिवहन एवं सीमा शुल्क आदि में छूट दी भी गई। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। इस बारे में 1840 में सर चार्ल्स ट्रेविलियन ने लिखा, “बंगाल में ख़ास किस्म का रेशमी कपास होता है। इससे ढाका के मुसलिम रेशमी वस्त्र बनाते हैं। लेकिन अब यह कपास बमुश्किल नज़र आता है। कारण कि ब्रिटिश कपास उत्पादकों ने पूरे भारत के गरीब उत्पादकों को नष्ट कर दिया है। भारत में थोड़े-बहुत कपास उत्पादक जैसे-तैसे अपने आप को बचाए हैं। पर उनका उत्पाद ख़राब किस्म का है। स्थिति ये हो चुकी है कि ढाका को कभी ‘भारत का मैनचेस्टर’ कहा जाता था। वह समृद्ध कस्बा था। आबादी पहले क़रीब 1,50,000 थी। लेकिन अब वह छोटा ग़रीब कस्बा हो गया है। आबादी 30-40 हज़ार रह गई है। वास्तव में संकट बहुत बड़ा है।”
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ :
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
23. ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
18. हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?
17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
16. भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?
15. सरकारी आलोचकों ने अंग्रेजी-सरकार को ‘भगवान विष्णु की आया’ क्यों कहा था?
14. भारत में कलेक्टर और डीएम बिठाने की शुरुआत किसने की थी?
13. ‘महलों का शहर’ किस महानगर को कहा जाता है?
12. भारत में रहे अंग्रेज साहित्यकारों की रचनाएँ शुरू में किस भावना से प्रेरित थीं?
11. भारतीय पुरातत्व का संस्थापक किस अंग्रेज अफ़सर को कहा जाता है?
10. हर हिन्दुस्तानी भ्रष्ट है, ये कौन मानता था?
9. किस डर ने अंग्रेजों को अफ़ग़ानिस्तान में आत्मघाती युद्ध के लिए मज़बूर किया?
8.अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को किसकी मदद से मारा?
7. सही मायने में हिन्दुस्तान में ब्रिटिश हुक़ूमत की नींव कब पड़ी?
6.जेलों में ख़ास यातना-गृहों को ‘काल-कोठरी’ नाम किसने दिया?
5. शिवाजी ने अंग्रेजों से समझौता क्यूँ किया था?
4. अवध का इलाका काफ़ी समय तक अंग्रेजों के कब्ज़े से बाहर क्यों रहा?
3. हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के आधिपत्य की शुरुआत किन हालात में हुई?
2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया?
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?
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