टीम डायरी
सोचिए, भक्त और भगवान के बीच अगर ‘एचआर’ यानि ह्यूमन रिसोर्स मतलब तमाम सरकारी-निजी कम्पनियों में काम करने वाला ‘मानव संसाधन’ विभाग आ जाए तो क्या हो? भक्त-भगवान न सही, साध्य-साधक अथवा व्यक्ति और उसके लक्ष्य के बीच ‘एचआर’ आए तो क्या हो? इसके ज़वाब के लिए एक सच्ची कहानी है।
कहानी किस देश, कौन सी कम्पनी की है, पता नहीं। लेकिन वह है बड़ी मज़ेदार और सटीक सन्देश देने वाली। क़रीब 10-11 दिन पहले एक कम्पनी के प्रबन्धक ने इसे सोशल मीडिया पर साझा किया था। वे बताते हें, “हम लोग बहुत समय से एक ऐसा विशेषज्ञ (डेवलपर) ढूँढ रहे थे, जो एंगुलर तकनीक का जानकार हो। यह ऐसी तकनीक है, जिसमें व्यक्ति के अस्ल कौशल और ज्ञान का पता चलता है। लेकिन हमारी कम्पनी के ‘एचआर’ को, महीनों की मशक़्क़त के बाद भी ऐसा कोई विशेषज्ञ नहीं मिल पा रहा था। मैंने उनसे कई बार पूछा कि आख़िर मामला क्या है? लेकिन उनकी ओर से एक ही ज़वाब आता- हम कोशिश कर रहे हैं। जल्दी ही किसी न किसी को भर्ती कर लेंगे।”
इसके बाद वे आगे बताते हैं, “आख़िर मैंने तंग आकर ख़ुद अपनी ही एक नकली मेल आईडी बनाई और उसके माध्यम से अपना ही बायोडाटा लगाकर अपनी ही कम्पनी में आवेदन भेज दिया। पर मैं जानकर दंग रह गया कि मेरा बायोडाटा पहले ही चरण में ख़ारिज़ कर दिया गया। जबकि मैंने उसमें लिखा था कि मैं एंगुलर तकनीक का जानकार हूँ। बावज़ूद इसके मेरे बायोडाटा पर किसी ने नज़र डालने की भी ज़ेहमत नहीं की। जब मैंने इस मामले की जाँच कराई तो पाया कि हमारी कम्पनी का एचआर विभाग एप्लीकेंट ट्रैकिंग सिस्टम (एटीएस) नामक टूल का इस्तेमाल करता है। इसमें सिस्टम इस तरह का सैट किया गया है कि एटीएस सिर्फ़ उन्हीं आवेदकों के आवेदन आगे बढ़ाता है, जो एंगुलरजेएस तकनीक में माहिर हैं। जबकि यह तकनीक अब पुरानी हो चुकी है। चलन से बाहर हो गई है।”
यह गफ़लत और एचआर का बेपरवाह रवैया सामने आने के बाद नाराज़ प्रबन्धक ने पूरे एचआर विभाग को नौकरी से निकाल दिया। अलबत्ता, अब आते हैं अपने पहले वाले सवाल पर कि अगर भक्त-भगवान, साध्य-साधक या व्यक्ति और उसके लक्ष्य के बीच ऐसी एचआर जैसी कोई ‘मध्यस्थ व्यवस्था’ आ जाए तो क्या हो? ज़ाहिर तौर पर भक्त सभी तरह से पात्र होने के बावज़ूद कभी भगवान तक नहीं पहुँच सकता। साधक अपने साध्य तक नहीं पहुँच सकता और व्यक्ति अपने लक्ष्य से दूर ही बना रह सकता। तो फिर क्या करना चाहिए? ज़वाब सीधा है। अभी-अभी बताया गया है कि पूरी ‘मध्यस्थ व्यवस्थ’ (एचआर) को रास्ते से हटाना ही एकमात्र विकल्प रहता है, ऐसी स्थिति में।
कहते हैं, ‘समझदार को इशारा काफ़ी होता है।’ सो, जो समझते हैं, वे इशारा समझ ही गए होंगे।
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