समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
(लेखक विषय की गम्भीरता और अपने ज्ञानाभास की सीमा से अनभिज्ञ नहीं है। वह न तो वैदिक या शास्त्रीय परम्परा का अभ्यासी है और न विशेषज्ञ। इसीलिए यह लेखमाला वस्तुत: आत्मचिन्तन है। इसे साझा करने का उद्देश्य सुधी पाठकों में सनातन धर्म और वर्तमान परिवेश के सम्बन्ध में यथार्थ जिज्ञासा उत्पन्न करना भर है। इसे विद्वानों को दिखाकर, दोषों को हटाकर प्रकाशित करने का विचार था, जो प्रमादवश नहीं हो पाया। सो, कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ जो भी श्रेष्ठ है वह गुरुजनों का प्रसाद ही है। लेखक अपनी अल्पज्ञता या प्रमाद की वजह से रह गईं त्रुटियाें के लिए क्षमायाचना करता है। आशा है कि विज्ञजन इसे बालचेष्टा मानकर क्षमा करेंगे। प्रार्थना है कि प्रस्तुत लेखमाला में कोई त्रुटि, दोषादि दृष्टिगत होने पर कृपा कर के इनमें से किसी ईमेल- apnidigitaldiary@gmail.com या samir.patil75@gmail.com पर प्रेषित करने का कष्ट करें। बड़ा अनुग्रह होगा।)
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पिछली कड़ी में हमने यह जानने की कोशिश की थी कि सम्प्रदायों की भीड़ में सनातन कहाँ है? अब हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि सनातन धर्म का मूल अर्थ क्या है? सनातन धर्म का अर्थ है वैदिक सनातनीयता। सनातनीयता माने अविभाज्य अविच्छिन्न सत्य को जीने की कला का विशिष्ट ज्ञान। और सत्य वह है जो शाश्वत, सारस्वत (सीखा हुआ) श्रुति परम्परा में मनुष्यों के अस्तित्त्व के आरम्भ से अमूल्य ज्ञानानुभव का पुंज रहा है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवन्तता के साथ वेद के रूप में हमारी थाती है, और इसे हम प्रमाण रूप में स्वीकार करते आए हैं।
वैदिक ऋचाएँ दिव्य शक्तियों के प्रति स्तुतियाँ मात्र नहीं है, तथापि अंशों में कुछ मंत्रों को स्तुति के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं। ऋचा, वह मंत्र रूप है जिन्हें ऋषियों ने देखा और अनुभव किया है। सत्य जो वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाक् के माध्यम से जीव और ब्रह्मांड के बीच का विनिमय है, मंत्र उसे उद्घाटित करते हैं। इसी तरह, वेद इतिहास भर नहीं है, यद्यपि कुछ अंशों में वेद इतिहास का बोध कराता है। इसीलिए वेद इतिहास नहीं, क्योंकि मंत्र जिस लौकिक-पारलौकिक सत्य को उद्घाटित करते है, वह आज भी अनुभव किए जाते हैं।
वेद का प्रधान प्रतिपाद्य यज्ञ है। इसमें भौतिक दृष्टि से दृश्यमान जगत् के अनुभव और उसके पीछे के सत्य का शोध होता है। ज्योतिष वेदपुरुष के नेत्र हैं। ठीक जैसे रात्रि आकाश में एक अहोरात्र में सप्तर्षि मंडल ध्रुव तारे की परिक्रमा करते हुए संवत्सर में परिभ्रमण करते हुए एक स्वस्तिक चिह्न का निर्माण करते हैं। इसी तरह वैदिक दृष्टि ब्रह्मांडीय व्यवस्थाक्रम के सत्-ऋत् को देखती है। मानव आचार-विचार, आहार-विहार परिचर्या में यज्ञ कर्म परिक्रमा करते हुए सांवत्सरिक परिभ्रमण करता है। ब्रह्मांड ऐसे ही क्रम से चालित है, जो सनातन ऋत्-सत्य है और सृष्टि को धारण किए है।
ऋत्-सत्य क्रम में विविध स्तरों पर दिव्य शक्तियाँ कार्य करती हैं, जो वस्तुत: एक विराट् पुरुष का ही अंग है। वही विराट् पुरुष सबका आदि नियन्ता, सृष्टि और जीव के रूप में व्याप्त है। वेद की यह दृष्टि श्रौत यज्ञ के रूप में प्रकट होती है। उस एकमात्र अद्वितीय विराट् पुरुष ने अपने आप में, अपने आप ही से; यज्ञ, हवि, देवता सब रूप लेकर यजन कर सृजन किया। वहीं अग्नि, देवता और यज्ञ में विभाजित हुआ और उसने उसी को हविरूप से (उसी के रूप) अग्नि में उसी यज्ञ क्रिया से, देव-ऋषि रूप से हवि रूप कर दिया। सृष्टि यज्ञ है। सनातन धर्म प्रधानता से धर्म यज्ञ कर्म ही है।
यहाँ सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि परमपुरुष प्रत्यक्ष और सत्य प्रायोगिक है, जिसका दार्शनिकीकरण परवर्ती काल का विकास है। अत: उपनिषदों में तत्वमसि, अहंब्रह्मास्मि, सर्वं खल्विदं ब्रह्म आदि महावाक्यों से जिस सत्य का वर्णन हुआ है, वह कोई शुष्क वैचारिक परिवेश में अनुभव हुए सत्य नहीं है। उपनिषदों के आख्यानों, जिनमें ये महावाक्यादि प्रकट होते हैं, उनको पढ़ने से ही सृष्टि यज्ञ की महत्ता स्पष्टत: सामने आ जाती है।
मानव और प्रकृति के पवित्र सम्बन्धों की ऐसी नैरन्तर्यपूर्ण घटना दुनिया में कहीं विद्यमान नहीं है। यह सनातनीयता ही वेद के आस्तिक्य का कारण और आधार है। इसका निष्कर्ष यह है कि वैदिक ज्ञान, आचार और दर्शन के अभाव में सनातनता और धर्म सम्भव नहीं है। यह अलग बात है कि हम कदाचित् ही इसको अनुभव करते हैं। अधिक से अधिक हम श्रुति नाम से जाने वाले ज्ञानानुभव-पुंज वेद को भगवान मान-कह लेते हैं या बौद्धिक रूप से उस सत्य को समझने का प्रयास करते हैं जो जीने की कला है और उससे उत्पन्न होने वाला विज्ञान है।
वेद जिस दिव्यता की बात करते हैं वह प्रत्यक्ष है। सूर्य प्रत्यक्ष देव है, मरुत, जल, पृथ्वी और अग्नि अपने विविध रूपों में प्रत्यक्ष देव हैं। मनुष्य चेतना के जिस स्तर पर उनको उनके कार्यकलापों के साथ अनुभव करता है, वह सनातन वैदिक दृष्टि है। मानव के कर्म और समस्त सृष्टि ही नहीं वरन् ब्रह्मांड का क्रम श्रौत यज्ञ में जुड़ जाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण से दिखने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- चार वर्णों और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास- चार आश्रमों में कर्म की गति भी वैदिक यज्ञ का विज्ञान है। सनातन परम्परा में इसका स्थान केंद्रीय और सर्वाधिक महत्त्व का है।
वेद शास्त्रीय अनुशासन, नियम और दृढ़ कर्ममय साधन का मार्ग देता है, यही सनातन के अभ्युदय और नि:श्रेयस का मूल है। श्रौत यज्ञ मे प्रतिष्ठित वैदिक कर्म और दर्शन के किसी उपासना से समग्र लोकमंगल सम्भव नहीं। ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, शिक्षा, व्याकरण और कल्प – ये वेदांग यज्ञ कर्म के अभाव में निरर्थक रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में धर्म का दार्शनिकीकरण का आरम्भ होता है। परिणामस्वरूप लोक में धर्म सत्यनारायण की कथा की तरह ही रह जाता है। कथा, जिसमें कथा का माहात्म्य ही कहा-सुना और गुना जाता है। उसे ही सब फलप्रद माना जाता है। उससे ही भाविक लोग ‘यथेष्ट फल’ भी प्राप्त करते हैं।
यह सत्य स्वीकार करने में किसी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि सनातन धर्म का ह्रास यथार्थ में वैदिक यज्ञ परम्परा के निरादर का परिणाम है। सनातन धर्म आधारित लौकिक राजनैतिक तंत्र का पुनरोत्थान जिस देश-काल में जिस किसी अंश में दिखता है, उसके पीछे एक पुष्ट यज्ञ आधारित वैदिक संस्कृति के चरणचिह्न मिलते हैं। ऐसे प्रामाणिक सनातन धर्म का प्राण अद्वितीय श्रौत परम्परा है।
अगले अंक में हम श्रौत यज्ञ के महत्त्व और उसकी अपरिहार्यता पर विचार करेंगे।
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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। पाँच कड़ियों की यह श्रृंखला है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)
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बहुत शानदार लेखनी है। और सनातन वेद के गुढ़ रहस्यो पर से र्पदा उठाने का काम किया है।सनातन और प्रकृती प्रेम को आपने जोड़ा है यह वास्तव में सत्य है। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाऐ।
आपका साधुवाद कि आपने उत्साह बढ़ाया।