भारत में कृषि विभाग की स्थापना कब हुई?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 13/10/2021

लॉर्ड मेयो 1869-72 तक भारत के वायसराय थे। उन्होंने ब्रिटेन की सरकार को एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, “दुनिया में भारत जैसा शायद ही कोई देश हो, जहाँ सरकार का कृषि के क्षेत्र से ऐसा सीधा हित जुड़ा हो। भारत सरकार सिर्फ ‘सरकार’ नहीं है, वह मुख्य ज़मींदार भी है। सरकार को जिस संपत्ति के लगान के रूप में बड़ा राजस्व मिलता है, वह किसी निजी मालिक की नहीं, सरकारी है। ऐसे में पूरे देश में कृषि के हालात सुधारने के लिए कदम उठाने पर सरकार और उसकी संपत्ति की अहमियत बढ़ती है। इसीलिए इंग्लैंड में जो काम बड़े जमींदार करते हैं, भारत में उन्हें करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। कृषि के क्षेत्र में पूरी जानकारी और पकड़ रखने वाला भारत में कोई इकलौता जमींदार है, तो वह सरकार है।”

अपनी इसी सोच के आधार पर 1866 से ही भारत सरकार ने देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। उस समय के अकाल आयोग ने तो अलग से कृषि विभाग बनाने का सुझाव भी दिया था। उन दिनों मैनचेस्टर से भी अच्छी गुणवत्ता के कपास की आपूर्ति के लिए भारत सरकार पर दबाव था। इस सबका नतीज़ा 1869 में भारत में अलग कृषि विभाग के रूप में सामने आया। राजस्व और वाणिज्य विभाग भी इसके साथ थे। लेकिन उस समय चूँकि ब्रिटेन की सरकार का रवैया अनुकूल नहीं था। विभाग की गतिविधि भी मुख्यत: शुरू में राजस्व और वाणिज्य तक सीमित रही। लिहाज़ा 10 साल में ही कृषि विभाग बंद कर दिया गया। लेकिन इसी बीच 1880 के अकाल आयोग ने फिर अनुशंसा की कि सरकार कृषि क्षेत्र की हालत सुधारने के प्रयास करे। ताकि खाद्यान्न उत्पादन बढ़ सके। सो, अगले ही साल कृषि विभाग फिर स्थापित कर दिया गया। साथ ही अब प्रांतों में भी कृषि विभाग बना दिए गए। 

हालाँकि अब भी कृषि विभाग की गतिविधि मुख्य रूप से राजस्व और आँकड़े जुटाने तक ही सीमित रही। इसी बीच 1901 के अकाल एवं दुर्भिक्ष आयोग ने इस दिशा में सरकार को अहम सुझाव दिए। उसने कहा, “कृषि के क्षेत्र में शोध और प्रयोगों को बढ़ावा देना होगा। जुताई, खाद से संबंधित अनुसंधान बढ़ाने होंगे। फसलों की बीमारियाँ और उनके इलाज के बारे में पता करना होगा। बीज गुणवत्ता सुधारने के प्रयास करने होंगे। पशुपालन, प्रजनन को प्रोत्साहन तथा पशुओं की बीमारियों तथा उनके इलाज से जुड़े प्रबंध की भी आवश्यकता है। चारा-भूसे की आपूर्ति सुनिश्चित और निर्बाध करनी होगी।… हम जानते हैं कि इन पहलुओं पर थोड़ा-बहुत ध्यान दिया गया है। लेकिन ये चीजें लगातार और अधिक ध्यान की माँग करती हैं। इसके लिए हर प्रांत में मजबूत विशेषज्ञ कर्मचारियों की नियुक्ति की भी ज़रूरत है।” 

इसके बाद 1901 में ही देश में कृषि विभाग को पहला महानिरीक्षक मिला। इस पद पर पहली बार एक कनाडाई विशेषज्ञ की नियुक्ति हुई। उनके साथ अन्य वैज्ञानिक विशेषज्ञ भी थे। इन सभी को प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिक उपकरणों की जरूरत थी, लेकिन सरकार के सामने वित्तीय कठिनाइयाँ आ खड़ी हुईं। हालाँकि अनापेक्षित अन्य स्रोत से धन का इंतजाम हुआ। एक अमेरिकी करोड़पति थे, हेनरी फिप्स। वे 1902-03 में भारत यात्रा पर आए थे। यहाँ उन्हें भारतीय किसानों की मदद के लिए वायसराय के प्रयासों के बारे में पता चला। इनसे वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने इस काम के लिए 20,000 पाउंड की मदद देने की पेशकश कर दी। बाद में इस रकम में उन्होंने 10,000 पाउंड और बढ़ा दिए। उन्होंने एलान किया कि उनके द्वारा उपलब्ध कराई गई वित्तीय मदद को भारतीयों के कल्याण के लिए वायसराय जैसे चाहें, वैसे खर्च कर सकते हैं। लॉर्ड कर्जन उस समय वायसराय थे। उन्होंने एक कृषि संस्थान की स्थापना का प्रस्ताव रखा, जिसे फिप्स ने तुरंत मंजूरी दे दी। इसके बाद अप्रैल-1905 में पूसा, बिहार में नए संस्थान का शिलान्यास किया गया। हालाँकि यह इमारत 1934 में ही एक भूकंप के दौरान ध्वस्त हो गई। इसके बाद संस्थान दिल्ली में पुनर्स्थापित किया गया।

कृषि सेवाओं के विस्तार के मामले में उस समय बाधा पहुँची, जब 1914-18 तक विश्व युद्ध चलता रहा। फिर 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के जरिए कृषि को ‘स्थानांतरित’ विषय के रूप में स्वीकार किया गया। साल 1920 में विभाग के लिए अधिकारियों/कर्मचारियों की नियुक्ति का व्यवस्थित सिलसिला शुरू हुआ। हालाँकि प्रांतों में जब चुनी हुई सरकारें आईं तो कुछ समय के लिए उन्होंने भी कृषि से जुड़े मसलों की अनदेखी की। कारण कि उस समय राष्ट्रवादियों का ध्यान राजनीतिक अधिकार हासिल करने की तरफ ज्यादा था। उनका लक्ष्य ही देश से विदेशी शासन को ख़त्म करने का था। लेकिन सरकार के स्तर पर भी थोड़े-बहुत शोध, खाद-बीज का प्रबंध, कानून बनाने, जैसे काम ही हो रहे थे। इनसे बात बन नहीं रही थी।

अलबत्ता कुछ अन्य कारकों ने भी अनवरत रूप से कृषि क्षेत्र में सुधारों को रोका। जैसे- भारतीय कृषि में अंतरनिहित पारंपरिक व्यवस्था, जिसे प्रभावित करना सरकार के लिए हमेशा मुश्किल रहा। इस सिलसिले में 1870 में लॉर्ड मेयो ने लिखा था, “कृषि से संबंधित मामले में हमें दो चीजों के लिए सावधान रहना चाहिए। पहला- हमें दिखावटी तौर पर स्थानीय कृषकों से वह सब करने के लिए नहीं कहना चाहिए, जो वे सदियों से कर रहे हैं। दूसरा- उन्हें ऐसी चीजें करने को भी नहीं कहना चाहिए, जो वे नहीं कर सकते या वैसा कुछ करने के लिए उनके पास साधन नहीं हैं। दोनों मामलों में वे हम पर हँसेंगे। इसके बाद जब हम उन्हें कोई काम का मशविरा भी देंगे तो वे उस पर ध्यान नहीं देंगे। उसकी अनदेखी करना सीख जाएँगे।”

यानि मेयो ने कहीं भी इन बातों पर जोर नहीं दिया कि भारतीय किसानों को भाप-चालित हल (ट्रैक्टर का शुरुआती रूप) या अमोनिया खाद के उपयोग आदि के लिए कहा जाए। हालाँकि सरकार की ओर से कृषि क्षेत्र में किए कुछ प्रयासों में सफलता भी मिली। जैसे, नई किस्म के बीजों की आपूर्ति। लेकिन फिर भी आम तसवीर यही थी कि सरकार के प्रयास नाकाफी हैं।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
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